अखिल भारत
हिन्दू महासभा
भारत हिन्दू राष्ट्र क्यों नहीं
49वां अधिवेशन पाटलिपुत्र-भाग:14
(दिनांक 24 अप्रैल,1965)
अध्यक्ष बैरिस्टर श्री नित्यनारायण
बनर्जी का अध्यक्षीय भाषण
प्रस्तुति: बाबा पं0 नंद किशोर मिश्र
असमानता नैसर्गिक नियम है। सभी को समान बना देने की बात
कहना जनता को मूर्ख बनाना अथवा प्रकृति के नियमों के संबंध में अपनी अज्ञानता का प्रदर्शन करना ही है क्योंकि
हम प्रकृति के नियमों में परिवर्तित नही कर सकते। 'सम्यम् प्रलयम्' समानता का अर्थ ही है प्रलय जिस दिन पूर्णरूपेण समानता आ जायेगी उसी दिन
रसायन शास्त्र, भौतिक शास्त्र तथा विज्ञान अपना कार्य बन्द कर देंगे। प्रगति पूर्ण ''ब्रह्म'' तक पहुंचने की दिशा में प्रयत्नशील हैं। संपूर्ण सृष्टि अनेकता में एकता
का ही खेल है। हम एक को छोड़कर दूसरे को ही नहीं पकड़ सकते। इतने पर भी किसी भी
अच्छे समाज और सरकार का यह पावन दायित्व है कि वह यह देखे कि जीवन में व्यक्ति
को समान अधिकार और सुयोग प्राप्त हो और
प्रत्येक व्यक्ति समाज के लिये सर्वस्व समर्पण हेतु तैयार रहे। कांग्रेस शासन
की स्थापना के पूर्व हिंदू विचार धारा के परिणाम स्वरूप ही हिंदू धर्मशाला, विद्यालय, सड़कें, मंदिर आदि- बनवाते थे तथा कुएं और बावड़ी खुदवाते थे। समाज के लिये व्यय करना एक
सामाजिक कर्तव्य के रूप में धर्म एक अंग माना जाता था। संयुक्त परिवार व्यवस्था
सामान्य प्रणाली थी और परिवार से पृथक होने वाले किसी भी व्यक्ति के कार्य को एक
सामाजिक अपराध की श्रेणी में रखा जाता था।
सतत प्रचार और विभिन्न कानूनों द्वारा वर्तमान शासकों ने
हिंदू समाज व्यवस्था को तहस-नहस करने में पर्याप्त अंशों में सफलता भी प्राप्त
कर ली है। वह व्यवस्था जो प्रत्येक व्यक्ति को उसकी आवश्यकतानुसार प्रदान
करने की प्रतिश्रुति देती थी मार्क्सवादी समाजवाद के अनुसार केवल कार्य की नहीं। हम
हिंदुत्व के आधार पर ही समाज का पुर्नउद्भव चाहते हैं और हिंदू समाजवाद उसी का एक
पक्ष है। हम एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था
रचना चाहते हैं जिसमें व्यक्तिगत हित सामाजिक हितों पर न छा पाएं और सामाज का गठन
संघर्ष नहीं अपितु सहयोग और समन्वय पर हो। हिंदू जीवन पद्धति व्यक्तिगत लाभ के
लिये धन संयम की विरोधी है और उसमें वर्ग संघर्ष और घृणा को कोई स्थान नहीं जिसके
कारण समाज की शांति और व्यवस्था विध्वंस हो जाती हैं।
हिंदू जीवन पद्धति प्रत्येक व्यक्ति की शारीरिक और मानसिक
समानता की दर्पपूर्ण घोषणा नहीं करती जिसका पाश्चात्य समाजवादी और उनके पंथानुयायी आए दिन चित्कार
करते हैं। क्योंकि हम जानते है कि ऐसा हो
जाना प्राकृतिक नियमों के विरूद्ध हैं। क्योंकि इसके अंर्तगत ''सर्वहारा तानाशाही'' के नाम पर संपूर्ण जनता ही क्रीतदास बनाकर रख दी जाती है। व्यक्तिगत
बुद्धि, क्षमता और चरित्र को समाज के विकास में अपनी पूर्ण
भूमिका निभानी होगी। आर्थिक दासता के स्थान पर आर्थिक असमानता वरेण्य है। व्यक्ति
की समाप्ति का अर्थ है लोकतंत्र की समाप्ति। इसी प्रकार की असमानताओं की स्वार्थपरता
के लिए नहीं अपितु एक विकासशील राज्य की सामाजिक समृद्धि के लिये समुचित रूप से
रक्षा करनी होगी। हम मत्स्य न्याय अर्थात धनिकों द्वारा निर्धनों का दमन करने
के विरूद्ध हैं। हम समाज के मानसिक दृष्टिकोंण को ही इस ढंग से निर्मित करने के
लिये प्रयासरत हैं कि व्यक्ति-व्यक्ति के प्रति मन में ममता की पावन भावना जागृत
हो। वस्तुत: यही हिंदुत्व अथवा हिंदुत्व राजनीति की आधारशिला है।
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