Thursday, September 29, 2011

मधुर भंडारकर पर बलात्‍कार का मुकदमा दर्ज करने का आदेश

रविन्‍द्र कुमार द्विवेदी
मधुर भंडारकर (मराठी: मधुर भांडारकर) का जन्म - 26 अगस्त 1968 में हुआ था। भंडारकर  एक राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता भारतीय फिल्म निर्देशक, पटकथा लेखक और निर्माता हैं. उन्हें विशेष कर चांदनी बार (2001), पेज 3 (2005), ट्रैफिक सिग्नल (2007) और फैशन (2008) जैसी सर्वश्रेष्ठ फिल्मों के लिए जाना जाता है. उन्होंने ट्रैफिक सिग्नल के लिए सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का राष्ट्रीय पुरस्कार जीता था।
प्रीती जैन नाम की लड़की जो संपन्‍न घराने से ताल्‍लुकात रखती थी जिसके  पिता विदेशों में भारत के उच्‍चायुक्‍त रह चुके हैं, कि  दिली तमन्‍ना फिल्‍म में हीरोइन बनने की थी। सुश्री जैन का फिल्‍म इंडस्‍ट्री में पदार्पण 1999 के आस-पास हुआ। और उनकी मुलाकात फिल्‍म निर्माता मधुर भंडारकर से हुयी। ज्ञात   रहे कि लड़कियों को फिल्‍म में हीरोइन बनाने का झासा देकर  शारीरिक शोषण करने का चलन कोई नया नही है, प्रीती हवस के भूखे मधुर के जाल में फंस गयी। यहीं से शुरू हुआ प्रीती जैन के शारीरिक शोषण का सिलसिला जो बदस्‍तूर कई सालों तक जारी रही।
मधुर ने अपनी बात में कहा है कि मुझे 12 जुलाई 2004 को प्रीति ने एक क़ानूनी नोटिस भेजा था जिसमें यह बात लिखी थी कि अगर मैंने उन्हें 48 घंटों के भीतर अपनी फिल्म में कास्ट नहीं किया तो वह अदालत में मेरे खिलाफ शादी का झांसा देने, वादा कर मुकर जाने और धोखाधड़ी का केस दायर करेंगी। उस नोटिस में कहीं भी मुझपर बलात्कार के आरोप नहीं लगाये गए थे।
प्रीति ने 24 जुलाई 2004 को एक बार फिर से मधुर के  खिलाफ बलात्कार के आरोप लगाकर पुलिस में शिकायत दर्ज कराई जिसमें मधुर को  जमानत मिल गई। सुश्री जैन ने वर्ष 2009 में अंधेरी की अदालत में याचिका दाखिल करके आरोप लगाया था कि फिल्म निर्देशक ने वर्ष 2004 में उसके साथ बलात्कार किया था। लेकिन एक बार फिर से कोर्ट ने इस केस को री-ओपन कर दिया है।
इसके बाद प्रीती का दुर्भाग्‍य  ने पीछा नही छोड़ा। फिर प्रीती जैन को सोहेल खान नाम का म्‍यूजिक डायरेक्‍टर मिला जिसने प्रीती के साथ काफी हमर्ददी  दिखायी और कहा कि मैं तुमसे बेइंतहा मोहब्‍बत करता हूं। मैं तुम्‍हारे अंदर हीरोइन बनने के ख्‍वाब को पूरा करूंगा। भावनाओं के आवेश में प्रीती इन फिल्‍म इंडस्‍ट्री के जिस्‍मानी गोस्‍त के भूखे दरिंदों को पहचानने में भारी भूल की। सुहैल ने भी प्रीती को शादी का झांसा देकर उसके जिस्‍म का भरपूर दोहन किया। बाद में सुहैल प्रीती से किये अपने सारे वायदे से मुकर गया।
 इसके बाद में प्रीति ने सोहेल खान, म्यूजिक डायरेक्टर को भी क़ानूनी नोटिस भेजकर बताया कि वह उनके बच्चे की मां बनने वाली है, इतना ही नहीं उन्होंने नोटिस में डीएनए टेस्ट के जरिए इस बात की पुष्टि  भी करने की बात कही थी। प्रीति ने नोटिस में सोहेल को यह कहा कि अगर उन्होंने उनके बच्चे को नहीं अपनाया तो वह सात दिनों के अंदर अदालत का दरवाजा खटखटाएंगी।
मधुर भंडारकर मुंबई के उपनगर खार की वीडियो कैसेट लाइब्रेरी में काम करते थे. इससे उन्हें फिल्मों के एक बड़े संग्रह का उपयोग करने का मौका मिला और इसके माध्यम से उन्होंने फिल्म-निर्माण का अध्ययन किया.
निर्माण में अपने कौशल का प्रयोग करने के बाद और फिल्म निर्देशक अशोक गायकवाड़ के साथ सहायक के रूप में काम करने की अन्य कोशिशों के बाद वे राम गोपाल वर्मा के सहायक बने. उन्होंने उनकी 1995 की रंगीला फिल्म में एक छोटी सी भूमिका भी निभाई. उसी वर्ष उन्होंने एक टीवी धारावाहिक 'अपने रंग हजार' में एक पायलट प्रकरण बनाया, लेकिन सफलता नहीं मिली. दो वर्षों बाद उन्होंने त्रिशक्ति के साथ बतौर निर्देशक के रूप में काम किया और इस फिल्म के निर्माण में दो वर्ष से भी अधिक का समय लगा और 1999 में इसे जारी किया गया. इस फिल्म में अपेक्षाकृत कम जाने-माने कलाकारों को लिया गया और मोटे तौर पर बॉक्स ऑफिस पर इसे नजरअंदाज किया गया. दो वर्षों के बाद उन्होंने 2001 में चांदनी बार का निर्देशन किया जिसमें तब्बू और अतुल कुलकर्णी ने अभिनय किया
मधुर भंडारकर को स्‍कूल के अनुशासन को भंग करने के कारण स्कूल से निकाल दिया गया था. मधुर भंडारकर के पिता रामचंद्र भंडारकर एक बिजली के ठेकेदार थे, लेकिन जब मधुर लगभग बारह वर्ष के थे, तो व्यापार में पिता को भारी नुकसान हुआ और मधुर को अध्ययन के साथ-साथ काम भी करना पड़ा.
मधुर के पिता रामचंद्र भंडारकर राष्‍ट्र-विरोधी गतिविधियों में लिप्‍त पाये गये थे। जिसके एवज में  उनके पिता को एक साल की बामुशक्‍कत सजा  हो चुकी थी। ये एक साल की सजा अंडर सी-कस्‍टम  एक्‍ट के तहत हुयी है। अदालत की टिप्‍पणी थी कि इसी रूट से अवैध व्‍यापार करने वाले एके-47 राइफल आदि लाते हैं। और तो और आतंकी
, राष्‍ट्रद्रोहियों को भी भंडारकर परिवार पनाह देता था। मधुर भंडारकर चकलाघर, ब्‍लू फिल्‍मों का भी भारी व्‍यापार खड़ा किये थे। जिसे दूर-दूर तक सप्‍लाई करने जाते थे।
मधुर भंडारकर चपरासी के रूप में एक वीडियो की दूकान पर काम किया और डांस बार लड़कियों से लेकर फिल्मी सितारे तक कई क्षेत्रों में लोगों को कैसेट देने जाते थे. साथ ही उन्होंने ट्रैफिक सिग्नलों पर च्विंग गम बेचने का काम किया, और एक थोड़े समय के निर्देशक के साथ सहायक के रूप में काम किया, और इस काम के लिए उन्हें वेतन के रूप में 1000 रुपए मिलते थे.

उन्होंने दुबई की भी यात्रा की जहां उनके एकलौते भाई
, और बड़ी बहन काम की तलाश में इधर-उधर भटक रहे थे. अपने जीवन के संघर्षों के समय वह भीड़ भरी बसों में  यात्रा करते थे और जिन लोगों ने उनकी फिल्मों में कोई भूमिका की थी वे उन्हें कभी-कभी बैठने की जगह दे देते थे जिससे उन्हें बेहद शर्मिंदगी का एहसास होता था. ( 27 सितम्बर 2009 में जैसा कि खुद भंडारकर ने सुदेशना चटर्जी को बताया था)) वे हिंदू भगवान सिद्धिविनायक के बड़े भक्त हैं और खार में जब भी वे शहर में होते हैं अपने निवास से बिना चप्पल के मंगलवार को प्रभादेवी के मंदिर जाते हैं. उनके अनुसार फिल्म कॉर्पोरेट सबसे मुश्किल फिल्म थी क्योंकि अपनी पिछली फिल्म में पेज 3 संस्कृति को उघाड़ने के कारण कॉर्पोरेट लोगों ने उन्हें दूर ही रखना चाहा. पेप्सी - कोक विवाद से उन्होंने फिल्म कॉर्पोरेट से सीख ग्रहण किया. उनके कॉर्पोरेट फिल्म के बाद उन्हें विभिन्न मैनेजमेंट छात्रों के सामने कॉर्पोरेट मुद्दों पर भाषण  के लिए आमंत्रित किया गया, हालांकि उन्होंने स्नातक की भी  डिग्री नसीब नहीं है. (26 नवंबर 2008 को आईबीएन लोकमत टीवी चैनल पर साक्षात्कार में) भंडारकर ने मुंबई में 15 दिसंबर 2003 को अपनी प्रेमिका रेणु नंबूदिरी भंडारकर से विवाह की. अभी उनकी एक बेटी है जिसका नाम सिद्धि है.
जुलाई 2004 को, उन पर कास्टिंग काउच का आरोप लगाया गया और प्रीति जैन ने जब अदालत का दरवाजा खटखटाया तब यह एक बड़ा मामला बन गया. उसने कहा कि वह 1999 से 2004 तक उनके साथ हमबिस्तर हो रही थी क्योंकि उन्होंने एक फिल्म में भूमिका और शादी करने का वादा किया था. सितम्बर 2005 को उसे गिरफ्तार कर लिया गया क्योंकि उसने उन्हें मारने के लिए अंडरवर्ल्ड को 70,000 दिए थे.
हालांकि जनवरी 2006 में वर्सोवा पुलिस स्टेशन ने अंधेरी में रेलवे मोबाइल कोर्ट पर मजिस्ट्रेट को इनके खिलाफ मामले को वर्गीकरण करने के लिए पूछा क्योंकि जांच के दैरान पुलिस ने भंडारकर के खिलाफ दाखिल मामले से संबंधित शिकायत को पूरी तरह गलत पाया था इसीलिए इस मामले को पूरी तरह से रद्द करने के लिए कहा.
सूत्रों से यह ज्ञात हुआ है कि राष्‍ट्रीय महिला आयोग अतिशीघ्र स्‍थानिय पुलिस और न्‍यायालय को एक पत्र लिखने वाला है कि फिल्‍म इंडस्‍ट्री में मधुर भंडारकर और सुहैल खान जैसे लोगों पर कानूनी कारवायी की जाये ताकि फिल्‍म इंडस्‍ट्री में महिलाओं का शोषण बंद हो, और इस तरह के शोषण व जघन्‍य कुकर्म करने वालों को ऐसी सजा मिले जिससे इस तरह के अपराधी ऐसे अपराध करने से डरें।

Saturday, September 24, 2011

भारत को फिर जरूरत है राष्‍ट्रीयता के उफान की

दीनानाथ मिश्र

प्रस्‍तुति- डॉ0  संतोष राय 


भारतीय राष्ट्रीयता खोखली होती जा रही है। 1947 के पहले भावनात्मक स्तर पर राष्ट्रीयता में आज के मुकाबले प्रबलतर भाव था। राष्ट्रीयता, सुरक्षा, आंतरिक और बाह्य दोनों के बारे में साधारण समाज में एक उदासीनता व्याप्त है। इसमें कोई शक नहीं कि भारत का अन्तर-बाह्य सुरक्षा और राष्ट्रीयता का मामला गम्भीरतर होता चला जा रहा है। इस सम्बंध में हम आगे विस्तार से बात करेंगे। राष्ट्रीय सुरक्षा के हितों के प्रति बढ़ती हुई उदासीनता को कुछ उदाहरण स्पष्ट कर देंगे।

इधर बीस वर्षों से जम्मू-कश्मीर और देश के अन्य भागों में पाक प्रशिक्षित जेहादियों के हमले चल रहे हैं जिसमें 60 हजार से अधिक सैनिक और नागरिक आबादी को जान से हाथ धोना पड़ा है। लेकिन हमारे क्रिकेट प्रेेमी, भारत-पाक क्रिकेट मैच का बाकायदा लुत्फ उठाते हैं। क्रिकेट का यह लुत्फ और जेहादियों की आक्रमकता के विरूद्ध आक्रोश, साथ साथ नहीं चल सकता। सैनिकों और नागरिकों की वीभत्स हत्या, शत्रुभाव तब तक पैदा कर नहीं सकती, जब तक क्रिकेट की खेल भावना का उल्लास थम न जाए।

हमारे देश की लोकतंत्र के सबसे बड़े मंदिर संसद पर हमला हुआ। स्वाभाविक रूप से आक्रोश उमड़ा। आज जब उसके मुख्य षड्यंत्रकर्ता अफजल गुरु को तीनों स्तर की अदालती कार्रवाई के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने फांसी की सजा दे दी, मगर फांसी की कार्रवाई लटकी हुई है। अफजल गुरु के समर्थन के तर्क अखबारों में छपते हैं और भ्रम पैदा करते हैं। ऐसे में आम प्रतिक्रिया उदासीन हो जाती है। एमएस बिट्टा सरीखे लोग आक्रोश को वाणी देते हैं लेकिन उदासीनता के कारण मामला ठंडा पड़ता जाता है। ऐसे में शत्रु-मित्र भाव भी भोथरा हो जाता है और उदासीनता गहरा जाती है।

केरल की विधानसभा में कोयम्बटूर के कुख्यात बम-विस्फोट कांड के मुख्य अपराधी अब्दुल नसर मदनी की रिहाई का प्रस्ताव सर्वसम्मति से पास किया गया। सब को मदनी समर्थक वोटों की जरूरत थी। मुस्लिम वोट बैंक के कारण राष्ट्रीयता से सम्बंधित सवाल उलझाकर पीछे धकेल दिए जाते हैं। यह एक दो घटनाओं की बात नहीं है। पिछले विधानसभाई चुनाव में कांग्रेस ने माओवादियों से खुलकर गठबंधन किया और माओवादियों ने डटकर समर्थन दिया। कांग्रेस जीत गई। इसका अर्थ, समाजद्रोही माओवादियों के वोट के लिए समाज-हित को कांग्रेस ने न्योछावर कर दिया। अभी पिछले साल सर्वोच्च न्यायालय ने लम्बी प्रतीक्षा के बाद बांग्लादेशी घुसपैठियों को संरक्षण प्रदान करने वाले आईएमडीटी एक्ट को संविधान विरोधी कह कर कड़ी फटकार लगाई। लेकिन कांग्रेस को मुसलमानों के वोटों की जरूरत थी। उसने सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को ताक पर रखकर उस एक्ट का नुकसान बांग्लादेशियों को नहीं होने दिया। सर्वोच्च न्यायालय ने उस एक्ट को न केवल असंवैधानिक कहा था, बल्कि जन-सांख्यिकी हमला कहा था।

ये तो कुछ बड़े उदाहरण हैं। अनगिनत छोटे उदाहरण रोजमर्रा की घटनाएं हैं। ऐसे में राष्ट्र की अन्तर वाह्य सुरक्षा के सवाल गौण हो जाएं और राजनैतिक हानि-लाभ प्रबल हो जाए तो आश्चर्य क्या है? आम जनता में भी राष्ट्रीय हितों, सुरक्षात्मक हितों और समाजिक हितों के सरोकार उदासीनता के गर्त में डूब जाए तो आश्चर्य की बात नहीं है। अलबत्ता कारगिल युद्ध जैसी घटनाएं राष्ट्रहित जैसे सवालों को क्षणिक रूप से उबाल बिन्दु पर ले आती हैं लेकिन यह अल्पजीवी चेतना हरगिज पर्याप्त नहीं है। वैसे भी आम समाज अपने-अपने स्वार्थ-पूजा में लगा है। अपने-अपने हिस्से का हिन्दुस्तान बेचने में लगे हैं। टेलीविजन पीढ़ियां मनोरंजन और तनोरंजन में लगी हैं। गरीब आबादी रोजी-रोटी की परिक्रमा में लगी हैं। वह राष्ट्र की अन्तर-वाह्य सुरक्षा की कितनी चिंता कर सकती है। कॅरियर की आराधना करने वालों के पास राष्ट्रीय सुरक्षा के सवालों पर माथा-पच्ची करने का अवसर ही नहीं होता। राजनेता और राजनैतिक दल वोट बैंक के गणित का अध्ययन करते रहते हैं।

सवाल खड़ा होता है कि राष्ट्रीय सुरक्षा सम्बंधी मामलों की जिम्मेदारी किस पर है? सरकार, राजनैतिक दल, सुरक्षा बल के ही हवाले हैं ये सारे प्रश्न। जहां तक वोट बैंक की रात-दिन चिंता में लगे राजनैतिक दलों का सवाल है, उनके राजमार्ग में ये सवाल गौण हैं, औपचारिक हैं। राजनैतिक नीतियों के कारण उसमें शिथिलता भी है। जहां तक सुरक्षा बलों का सवाल है, अनेक क्षेत्रों में उनका मनोबल गिरा हुआ है। कहीं कहीं नीतियांें की लगाम के कारण, कहीं-कहीं शत्रुओं पर भारी पड़ने के कारण। मीडिया में शत्रुओं की घुसपैठ प्रभावी रूप से है। बहुत कुछ भ्रमग्रस्तता तो मीडिया के कारण है। राष्ट्रीय हितों के प्रति उदासीनता की जड़ में भी कहीं न कहीं मीडिया है।

उत्तर-पूर्वी राज्यों के बारे में अनेक विचारक यह कहने लग गए हैं कि भारत के नक्शे से यह कब कट जाएगा, कोई नहीं कह सकता। दस-साल में कट जाएगा, बीस साल में कट जाएगा, अलग जरूर होगा। मेरा यह मत नहीं है। दिल्ली में उत्तर पूर्वी राज्यों के कोई पांच हजार छात्र पढ़ते हैं। उसमें से कुछ ने प्रेस कांफ्रेंस के जरिए कुछ शिकायतें दर्ज की हैं। कहा कि इधर के लोग हमें अपना देशवासी नहीं मानते। हमारा खानपान अलग है, बोली अलग है। हमें कोई किराए पर मकान नहीं देता। एक दिन त्रिपुरा की एक भूतपूर्व मंत्री और उनके पति आए थे। उन्होंने शिकायत की कि दिल्ली बहुत दूर है। हमारी आवाज यहां तक नहीं पहुंचती। उनकी बात में सत्यांश है। जहां तक मकान किराए पर नहीं देने की बात है, वह तो लोग वकीलों को भी नहीं देते। राजनेताओं को देने में डरते हैं। खानपान बोलचाल में तो भारत इतना विविधतामय है, कि कुर्ग, मैसूर और दक्षिण भारत के अनेक लोग भी दिल्ली आकर वैसा ही अनुभव करते हैं जैसा पूर्वोत्तर क्षेत्र के छात्र।

सत्यांश यह भी है कि केन्द्रीय सरकार ने उत्तर पूर्वी राज्यों की ओर उपेक्षा भाव रखा है। सेना वहां बदनाम हो गई है। ऐसा ही कुछ-कुछ प्रशासन के बारे में भी है। केन्द्र से जाने वाला अधिकांश धन अलगाववादी तत्वों के हाथ में पहुुंच जाता है। केन्द्रीय सरकार ने पर्यटन स्थलों की अतीय संभावनाओं के बावजूद पूर्वोत्तर की उपेक्षा की है। वरना शेष भारत के लोग पर्यटन के लिए उधर जाते और सम्बंध घनिष्ठतर होते। जहां तक शांति का सवाल है, सारा पूर्वोत्तर एक तरह से अशांत है।

पूरे उत्तर पूर्व में कुल मिलाकर 79 जिले हैं। उनमें से 51 जिले किसी न किसी तरह के आतंकवाद से पीड़ित है। 2004 के चुनाव के बाद तरह-तरह के नक्सलवादियों, पीपुल्स वार गु्रप और माओवादियों में एकता हो गई और उनकी शक्ति का बेहतर संचालन, बेहतर हथियार उपलब्ध कराना अपनी रणनीति को बेहतर ढंग से संचालित करना शुरू हुआ। और कुल मिलाकर 162 ऐसे जिले हो गए हैं जहां उनकी हिंसक कार्रवाइयों से जानमाल की भारी क्षति रोजमर्रा की गतिविधि है। आंध्र प्रदेश में 23 जिले हैं। उनमें से माओवादियों से प्रभावित जिलों की संख्या 22 है। बिहार में 38 जिले हैं, 32 जिलों में वह प्रभावशाली हैं। झारखण्ड के 22 में से 19 जिले हिंसक गतिविधियों के शिकार हैं। यही हालत उड़ीसा की है। वहां 30 में से 14 जिले प्रभावित हैं। छत्तीसगढ़ की हालत तो बदतर है। 16 के 16 जिले माओवादियों की हिंसक गतिविधियों के शिकार हैं। आए दिन वहां हिंसक वारदातें होती रहती हैं। महाराष्ट्र में 35 में 6 जिले, पश्चिमी बंगाल में 18 में 15 जिले, उत्तर प्रदेश में 69 में से 3 जिले, उत्तराखण्ड में 13 में 5 जिले, मध्यप्रदेश के 48 में से 15 जिले, तमिलनाडु में 30 में 6 जिले, कर्नाटक में 27 में 6 जिले और केरल में 15 में से एक जिला माओवादियों के प्रभाव क्षेत्र में हैं। इस तरह इन राज्यों के 162 जिलों में इनका प्रभाव है।

जम्मू-कश्मीर के 24 में 12 जिलों में जेहादी आतंकवाद की जकड़ पकड़ में हैं। कुल मिलाकर देश के 604 जिलों में से 224 जिले इस्लामिक आतंकवाद, उत्तर पूर्वी क्षेत्र की हिंसा और माओवादियों से संचालित असुरक्षित, अशांत और किसी न किसी तरह आतंकवाद के शिकार हैं। जहां तक माओवादियों के आतंक का सवाल है कई हजार इसके शिकार हो चुके हैं। अरबों की सम्पत्ति का विनाश हुआ है। अभी हाल में 5 राज्यों के बंद में अकेले झारखण्ड को कोयले की आपूर्ति के मामले में अरबों रुपए का नुकसान हुआ। इनकी गतिविधियांे से जानमाल का नुकसान तो हैं ही यह विकास की गति को भी घटाती हैं। कहीं कहीं तो विकास होने ही नहीं देती।

अब थोड़ा बाह्य चुनौतियों की तरफ नजर डालें। चीन ने अरूणाचल की सीमा तक सड़कों और रेलवे लाइन का जाल बिछा दिया है। वह माउंट एवरेस्ट तल (बेस कैम्प) पर सड़क बनाने की योजना बना रहा है। बलूचिस्तान के ग्वाडर, बांग्लादेश, म्यांमार और श्रीलंका के साथ अपने सम्बंधों को घनिष्ट कर भारत की घेरेबंदी को चाक चौबंद कर दिया है। अरूणाचल पर दावा उन्होंने कर ही दिया है। अरब सागर, हिन्द महासागर और बंगाल की खाड़ी यानि करीब-करीब पूरे एशिया पैसेफिक क्षेत्र की एकक्षत्र शक्ति बनने की दिशा में लगा है।

भारत सैनिक रूप से चीन का मुकाबला नहीं कर सकता। विशेष रूप से तब, जब चीन ने पाकिस्तान के साथ बहुआयामी सामरिक सम्बंध बना लिया हो। इधर पाकिस्तान ने भारत में सिर्फ कश्मीर में ही नहीं, बल्कि भारत के अनेक हिस्सों में आईएसआई एजेंट स्लीपिंग सेल का गठन कर रखा है। भारत पाकिस्तान और बांग्लादेश के आतंकी जेहादी संगठनों मंे तालमेल चल रहा है। आईएसआई का भारत स्थित एक एक ठिकाना क्या कर सकता है, इसका अंदाज मुम्बई लोकल के फर्स्ट क्लास के डिब्बों में विस्फोट करके और 200 से अधिक नागरिकों की हत्या करके बता दिया है। उत्तर प्रदेश के आधे से ज्यादा जिलों में आईएसआई ने सजीव तंत्र विकसित किया है।

सुरक्षा के सवाल पर स्थिति कितनी गम्भीर और खतरनाक है, और पिछले तीन वर्षों में और कितनी बढ़ी है, इसका आकलन भयावह है। सवाल है कि मौजूदा पीढ़ी अपने आने वाली पीढ़ियों को कैसा भारत सौंप जाएगी? क्या भारत ऐसा रहेगा या इसका भूगोल बदल जाएगा? मौजूदा नीतियां चलती रहीं तो अगले दस-बीस वर्षों में भारत का भूगोल बदल जाएगा। यह नहीं भूलना चाहिए कि नेपाल में माओवादी, नेपाल और सरकार पर कितना हॉवी हो गए हैं? कितना खून-खराबा हुआ है? चाहे माओवादी हों या आईएसआई का नेटवर्क, अथवा अलगाववादी संगठन, उनके पास हथियारों की कमी नहीं है। क्या भारत के भविष्य के नक्शे के बारे में आशंकाग्रस्त होने की आवश्यकता नहीं है ? क्या इस स्थिति को पलटने के लिए आम लोगों की ओर से राजनैतिक कार्रवाई को और टाला जा सकता है?


साभार- प्रभासाक्षी डॉट कॉम

Friday, September 23, 2011

......तब हिन्दू ने ही इनको शरण दी थी।

 विजय कुमार शर्मा
 प्रस्‍तुति- डॉ0 संतोष राय

       सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद द्वारा प्रस्तावित इस विधेयक को केन्द्रीय सरकार ने स्वीकार कर लिया है। इस विधेयक का उद्देश्य बताया गया है कि यह देश में साम्प्रदायिक हिंसा को रोकने में सहायक सिद्ध होगा। इसको अध्ययन करने पर ध्यान में आता है कि यदि दुर्भाग्य से यह पारित हो जाता है तो इसके परिणाम केवल विपरीत ही नहीं होंगे अपितु देश में साम्प्रदायिक विद्वेष की खाई इतनी चौडी हो जायेगी जिसको पाटना असम्भव हो जायेगा। यहां तक कि एक प्रमुख सैक्युलरिस्ट पत्रकार, शेखर गुप्ता ने भी स्वीकार किया है कि,”इस बिल से समाज का साम्प्रदायिक आधार पर ध्रुवीकरण होगा। इसका लक्ष्य अल्पसंख्यकों के वोट बैंक को मजबूत करने के अलावा हिन्दू संगठनों और हिंदू नेताओं का दमन करना है। जिस प्रकार सरकार की रुचि भ्रष्टाचार को समाप्त करने की जगह भ्रष्टाचार को संरक्षण देकर उसके विरुद्ध आवाज उठाने वालों के दमन में है,उसी प्रकार यह सरकार साम्प्रदायिक हिंसा को रोकने की जगह हिंसा करने वालों को संरक्षण और उनके विरुद्ध आवाज उठाने वाले हिंदू संगठनों और उनके नेताओं को इसके माध्यम से कुचलना चाहती है। इस अधिनियम के माध्यम से केन्द्र राज्य सरकारों के कार्यों में हस्तक्षेप कर देश के संघीय ढांचे को ध्वस्त कर देगा। यह भारतीय संविधान की मूल भावना को तहस-नहस करता हुआ भी दिखाई दे रहा है। यह अधिनियम एक नई तानाशाही को तो जन्म देगा ही, यह हिन्दू समाज की भावनाओं और उनको वाणी देने वाले हिन्दू संगठनों को भी कुचल देगा।
       जिस राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की अनुशंसा (आदेश) पर इस विधेयक को लाया जा रहा है, वह एक समानांतर सरकार की तरह काम कर रही है। यह न तो एक चुनी हुई संस्था है और न ही इसके सभी सदस्य जनता के द्वारा चुने गये प्रतिनिधी हैं। सरकार जो तर्क सिविल सोसाईटीया अन्य जन संगठनों के विरुद्ध प्रयोग करती है, वह स्वयं उस के विपरीत आचरण कर रही है। राष्ट्रीय सलाहकार परिषद एक असंवैधानिक महाशक्ति है जो बिना किसी जवाबदेही के सलाह की आड में आदेश देती है। केन्द्र सरकार दासत्व भाव से उनके आदेशों को लागू करने के लिये हमेशा ही तत्पर रहती है। जिस ड्राफ्ट कमेटी ने इस विधेयक को बनाया है, उसके सदस्यों के चरित्र का विचार करते ही उनकी नीयत के बारे में किसी संदेह की गुंजाइश नहीं रहती है। इस समिती में 9 सद्स्य और उनके 4 सलाहकार हैं । इन सब में समानता के यही बिंदू है कि ये सभी हिंदू संगठनों के घोर विरोधी हैं , हमेशा गुजरात के हिन्दू समाज को कटघरे में खडा करने के लिये तत्पर रहते हैं और अल्पसंख्यकों के हितों का एकमात्र संरक्षक दिखने के लिये देश को भी बदनाम करने में संकोच नहीं करते। हर्ष मंडेर रामजन्मभूमि आन्दोलन और हिन्दू संगठनों के घोर विरोधी हैं। अनु आगा जो कि एक सफल व्यवसायिक महिला हैं, गुजरात में मुस्लिम समाज को उकसाने के कारण ही एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में पहचानी जाती । तीस्ता सीतलवाड और फराह नकवी की गुजरात में भूमिका सर्वविदित है। उन्होंने न केवल झूठे गवाह तैय्यार किये हैं अपितु देश विरोधियों से अकूत धनराशी प्राप्त कर झूठे मुकदमे दायर किये हैं और जांच प्रक्रिया को प्रभावित करने का संविधान विरोधी दुष्कृत्य किया है। आज इनके षडयंत्रों का पर्दाफाश हो चुका है, ये स्वयं न्याय के कटघरे में कभी भी खडे हो सकते हैं। ये लोग अपनी खीज मिटाने के लिये किसी भी सीमा तक जा सकते हैं। जो काम वे न्यायपालिका के माध्यम से नहीं कर सके ,ऐसा लगता है वे इस विधेयक के माध्यम से करना चाहते हैं। एक प्रकार से इन्होनें अपने कुत्सित इरादों को पूरा करने के लिये चोर दरवाजे का प्रयोग किया है। इनके घोषित-अघोषित सलाहकारों के नाम इनका भंडाफोड करने के लिये पर्याप्त हैं।मुस्लिम इन्डियाचलाने वाले सैय्यद शहाबुद्दीन, धर्मान्तरण करने के लिये विदेशों में भारत को बदनाम करने वाले जोन दयाल , हिन्दू देवी-देवताओं का खुला अपमान करने वाली शबनम हाशमी और नियाज फारुखी जिस समिती के सलाहकार हों , वह कैसा विधेयक बना सकते हैं इसका अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है। भारत के बडबोले मंत्री, कपिल सिब्बल द्वारा इस अधिनियम को सार्वजनिक करते हुए गुजरात के दंगों और उनमें सरकार की कथित भूमिका का उल्लेख करना सरकार की नीयत को स्पष्ट करता है। ऐसा लगता है कि सारी सैक्युलर ब्रिगेड मिलकर जो काम नहीं कर सकी, उसे सोनिया इस विधेयक के माध्यम से पूरा करना चाहती हैं। गुजरात के संदर्भ में सभी कसरतें व्यर्थ जा रही हैं। आरोप लगाने वाले स्वयं आरोपित बनते जा रहे हैं। कानून के शिकंजे में फंसने की दहशत से वे मरे जा रहे हैं। इस अधिनियम का प्रारूप देखने से ऐसा लगता है मानो उन्हीं चोट खाये इन तथाकथित मानवाधिकारवादी ने इसको बनाने के लिये अपनी कलम चलाई है। इस विधेयक को सार्वजनिक करने का समय बहुत महत्वपूर्ण है। कुछ दिन पूर्व ही अमेरिका के ईसाईयत के प्रचार के लिये बदनाम अंतर्राष्ट्रीय धर्म स्वातंत्र्य आयोगने भारत को अपनी निगरानी सूची में रखा है। उन्होंनें भी गुजरात और ओडीसा के उदाहरण दिये हैं।मानावधिकार का दलाल अमेरिका मानवाधिकारों के सम्बंध में अमेरिका का दोगलापन जगजाहिर है। इस आयोग को चिंता है ओडिसा और गुजरात की घटनाओं की, परन्तु उसको कश्मीर के हिन्दुओं या मणिपुर और त्रिपुरा में ईसाई संगठनों द्वारा हिन्दुओं के नरसंहारों की चिंता क्यों नहीं होती? इससे भी बडे दुर्भाग्य का विषय यह है कि भारत के किसी सैक्युलर नेता नें अमेरिका को धमकाकर यह नहीं कहा कि उसको भारत के आन्तरिक मामलों में दखल देने का अधिकार नहीं है। भारत के मुस्लिम और ईसाई संगठनों नें इसका स्वागत किया है। इससे उनकी भारत बाह्य निष्ठा स्पष्ट होती है। इस बदनाम आयोग की रिपोर्ट के तुरन्त बाद इस विधेयक को सार्वजनिक करना, ऐसा लगता मानों ये दोनों एक ही जंजीर की दो कडिया हैं। राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के गलत इरादों का पता इसी बात से लगता है कि इन्होंनें साम्प्रदायिक दंगों के कारणों का विश्लेषण भी नहीं किया। ड्राफ्ट समिति की स्दस्य अनु आगा ने अप्रैल ,2002 में कहा था,” यदि अल्पसंख्यकों को पहले से ही तुष्टीकरण और अनावश्यक छूटें दी गई हैं तो उस पर पुनर्विचार करना चाहिये। यदि ये सब बातें बहुसंख्यकों के खिलाफ गई हैं तो उनको वापस लेने का साहस होना चाहिये। इस विषय पर सार्वजनिक बहस होनी चाहिये।’(इन्डियन एक्स.,8 अप्रैल,2002) इन नौ वर्षों में अनु आगा ने इस विषय में कुछ नहीं किया। शायद उन्हें मालूम चल गया था कि यदि सत्य सामने आ गया तो ऐसा अधिनियम बनाना पडेगा जो प्रस्तावित अधिनियम के बिल्कुल विपरीत होगा।
       यह अधिनियम विदेशी शक्तियों के इशारे पर ही लाया गया है। ऐसा लगता है कि एक अन्तर्राष्ट्रीय षडयंत्र के आधार पर हिन्दू समाज, हिन्दू संगठनों और हिन्दू नेताओं को शिकंजे में कसने का प्रयास किया जा रहा है।


इस विधेयक के कुछ खतरनाक प्रावधान निम्नलिखित है-


[1] यह विधेयक साम्प्रदायिक हिंसा के अपराधियों को अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक के आधार पर बांटने का अपराध करता है। किसी भी सभ्य समाज या सभी राष्ट्र में यह वर्गीकरण स्वीकार्य नहीं होता। अभी तक यही लोग कहते थे कि अपराधी का कोई धर्म नहीं होता। अब इस विधेयक में क्यों साम्प्रदायिक हिंसा के अल्पसंख्यक अपराधियों को दंड से मुक्त रखा गया है? प्रस्तावित विधेयक का अनुच्छेद 8 अल्प्संख्यकों के विरुद्ध घृणा का प्रचार अपराध मानता है। परन्तु हिन्दुओं के विरुद्ध इनके नेता और संगठन खुले आम दुष्प्रचार करते हैं। इस विधेयक में उनको अपराधी नहीं माना गया है। इनका मानना है कि अल्पसंख्यक समाज का कोई भी व्यक्ति साम्प्रदायिक तनाव या हिंसा के लिये दोषी नहीं है। वास्तविकता ठीक इसके विपरीत है। भारत ही नहीं सम्पूर्ण विश्व में इनके धार्मिक नेताओं के भाषण व लेखन अन्य धर्मावलम्बियों के विरुद्ध विषवमन करते हैं। भारत में भी कई न्यायिक निर्णयों और आयोगों की रिपोर्टों में इनके भाषणों और कृत्यों को ही साम्प्रदायिक तनाव के मूल में बताया गया है। ओडीसा और गुजरात की जिन घटनाओं का ये बार-बार प्रलाप करते हैं, उनके मूल में भी आयोगों और न्यायालयों नें अल्पसंख्यकों की हिंसा को पाया है। मूल अपराध को छोडकर प्रतिक्रिया वाले को ही दंडित करना न केवल देश के कानून के विपरीत है अपितु किसी भी सभ्य समाज की मान्यताओं के खिलाफ है। स्वतंत्र भारत के इतिहास में कथित अल्पसंख्यक समाज द्वारा हिंदू समाज पर 1,50,000 से अधिक हमले हुए हैं तथा हिन्दुओं के मंदिरों पर लगभग 500 बार हमले हुए हैं। 2010 में बंगाल के देगंगा में हिंदुओं पर किये गये अत्याचारों को देखकर यह नहीं लगता कि यह भारत का कोई भाग है। बरेली और अलीगढ में हिन्दू समाज पर हुए हमले ज्यादा पुराने नहीं हुए हैं। एक विदेशी पत्रकार द्वारा विदेश में ही पैगम्बर साहब के कार्टून बनाने पर भारत में कई स्थानों पर हिन्दुओं पर हमले किसी से छिपे नहीं हैं। अपराधी को छोडना और पीडित को ही जिम्मेदार मानना क्या किसी भी प्रकार से उचित माना जा सकता है? एक अन्य सैक्युलर नेता,सैम राजप्पा ने लिखा है,” आज जबकि देश साम्प्रदायिक हिंसा से मुक्ति चाहता है, यह अधिनियम मानकर चलता है कि साम्प्रदायिक दंगे बहुसंख्यक के द्वारा होते हैं और उनको ही सजा मिलनी चाहिये। यह बहुत भेदभावपूर्ण है।”(दी स्टेट्समैन, 6 जून, 2011)


[2] अनुच्छेद 7 के अनुसार यदि एक मुस्लिम महिला के साथ दुर्व्यवहार होता है तो वह अपराध है, परन्तु हिन्दू महिला के साथ किया गया बलात्कार अपराध नहीं है जबकि अधिकांश दंगों में हिन्दू महिला की इज्जत ही निशाने पर रहती है।


[3] जिस समुदाय की रक्षा के बहाने से इस शैतानी विधेयक को लाया गया है, उसको इस विधेयक मेंसमूहका नाम दिया है। इस समूह में कथित अल्पसंख्यकों के अतिरिक्त अनुसूचित जातियों और जनजातियों को भी शामिल किया गया है। क्या इन वर्गों में परस्पर संघर्ष नहीं होता? शिया-सुन्नी के परस्पर खूनी संघर्ष जगजाहिर हैं। इसमें किसकी जिम्मेदारी तय करेंगे? अनुसूचित जातियों के कई उपवर्गों में कई बार संघर्ष होते हैं,हालांकि इन संघर्षों के लिये अधिकांशतः ये सैक्युलर बिरादरी के लोग ही जिम्मेदार होते हैं। इन सबका यह मानना है कि उनकी समस्याओं का समाधान हिंदू समाज का अविभाज्य अंग बने रहने में ही हो सकता है। यह देश की अखण्डता और
हिन्दू समाज को भी विभक्त करने का षडयंत्र है। इन दंगों की रोकथाम क्या इस अधिनियम से हो पायेगी? इन संघर्षों को रोकने के लिये जिस सदभाव की आवश्यकता होती है, इस कानून के बाद तो उसकी धज्जियां ही उधडने वाली हैं।


[4] इस विधेयक में बहुसंख्यक हिन्दू समाज को कट्घरे में खडा किया गया है। सोनिया को ध्यान रखना चाहिये कि हिन्दू समाज की सहिष्णुता की इन्होनें कई बार तारीफ की है। कांग्रेस के एक अधिवेशन में इन्होनें कहा था कि भारत में हिन्दू समाज के कारण ही सैक्युलरिज्म जिंदा है और जब तक हिन्दू रहेगा भारत सैक्युलर रहेगा। विश्व में जिसको भी प्रताडित किया गया, उसको हिंदू नें शरण दी है। जब यहूदियों, पारसियों और सीरियन ईसाइयों को अपनी ही जन्मभूमि में प्रताडित किया गया था तब हिन्दू ने ही इनको शरण दी थी।
Courtsey:  

सोनिया सलाहकार परिषद ने की देश बांटने की तैयारी

साम्प्रदायिक और लक्षित हिंसा अधिनियम,2011
प्रिवेंशन आफ कम्युनल एण्ड टारगेटिड वायलेंस बिल 2011’
 के जरिए हिन्दुस्थान के हिन्दुओं का दमन सेकुलर षड़यन्त्र
 प्रो. राकेश सिन्हा
प्रस्‍तुति- डॉ0 संतोष राय

       बाल गंगाधर तिलक, महर्षि अरविन्द, लाला लाजपत राय, स्वामी दयानन्द सरस्वती जैसी राष्ट्रवादी विभूतियों की बात तो दूर सोनिया पार्टी की की मुस्लिम तुष्टीकरण राजनीति अगर इसी रफ्तार से जारी रही तो समाजवादी आचार्य कृपलानी,  मार्क्सवादी बी.टी. रणदिवे, सर्वोदय नेता लोकनायक जयप्रकाश नारायण जैसे लोगो पर भी साम्प्रदायिक विद्वेष फैलाने, कथित अल्पसंख्यकों को आहत करने एवं दुष्प्रचार करने के आरोप लग सकते है। फिर न सिर्फ उनके लेखों एवं प्रकाशित भाषणों पर प्रतिबंध लग सकता है बल्कि उन सब पर मरणोपरांत मुकदमा भी चल सकता है। यह बात अतिशयोक्ति नहीं, एक कटु सत्य है। जे.पी. पर 1946 में मुस्लिम लीग ने सूखा/बाढ़ राहत के दौरान हिन्दुओं को मुस्लिमों के खिलाफ भड़काने का आरोप लगाया था। केरल में मार्क्सवादी सरकार द्वारा पचास के दशक में नई शिक्षा नीति लागू की गई थी। तब ईसाईयों ने उसका जमकर विरोध किया था। उस समय रणदिवे ने कैथोलिक समुदाय को प्रतिक्रियावाद का एजेंट कहकर उन पर विदेशी धन का दुरूपयोग करने का आरोप लगाया था। आचार्य कृपलानी के भाई का ईस्लाम में मत परिवर्तन कराया गया था। उसने अपने एक और भाई का अपहरण कर उसे जबरन ईस्लाम में मतान्तरित करा लिया था। तब कृपलानी ने ईस्लाम पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि यह व्यक्ति को क्रूर बनाकर उसमें मजहब के प्रति अंधानुराग पैदा कर देता है। ये सभी बातें आपराधिक कानून के अंतर्गत आ जाएंगी यदि इप्रिवेंशन आफ कम्युनल एंड टारगेटिड वायलेंस बिल-2011 कानून बन जाता है तो।
जहर बुझा मसौदा
       इस विधेयक के मसौदे पर गौर करें तो ऊपर कही गई बातों से कहीं अधिक घातक षडयंत्र से पर्दा उठता है। विधेयक में कुल नौ अध्याय है और 138 धाराएं है। सबसे दिलचस्प बात यह है कि यह विधेयक आखिरकार क्यों लाया जा रहा है और इसका उद्धेश्य क्या है, इस पर एक शब्द भी नहीं है। अर्थात कोई प्रस्तावना नहीं है। विधेयक के पहले अध्याय में अवधारणाओं को परिभाषित किया गया है। यही परिभाषा संविधान, समाज और शासन तंत्र को तार तार कर देती है। यह देश के नागरिकों के आपस में शत्रुतापूर्ण भाव रखने वाले दो वर्ग बना देती है। एक वर्ग में पांथिक और भाषायी अल्पसंख्यकों तथा अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों को रखा गया है। इसे ग्रुप के द्वारा सम्बोधित किया गया है। अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के लिए अलग आयोग और कानून हैं। उन्हें हर जगह अल्पसंख्यक मंसूबोंपर पर्दा डालने के लिए ढाल के रूप में उपयोग किया जा रहा है। इसके पहले भी सच्चर कमेटी की अनुशंसा पर अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय द्वारा प्रास्तावित समान अवसर आयोग विधेयकमें भी कथित अल्पसंख्यकों के साथ अनुसूचित जातियों को रखा गया था। भाषायी अल्पसंख्यकों का वजूद क्या है, यह रंगनाथ मिश्र आयोग (राष्ट्रीय भाषायी और पांथिक अल्पसंख्यक आयोग) के मसौदे से जाहिर होता है। भाषायी अल्पसंख्यकों के अस्तित्व पर ही आयोग ने सवाल खड़ा कर दिया है। अतः यहाँ ग्रुप का तात्पर्य मूलतः मुस्लिम और ईसाई समुदायों से है। ग्रुप से बाहर के लोगो को अन्य माना गया है। भारत के नागरिकों को दो अलग और शत्रुतापूर्ण भाव रखने वाले वर्गों में विभाजित करने के बाद साम्प्रदायिक दंगा’, ‘लैंगिक अपराध’, ‘विद्वेष पूर्ण प्रचारइत्यादि को परिभाषित किया गया है। इसके अनुसार, दो सम्प्रदायों के बीच हिंसक वारदात को दंगा माना जाएगा। इस विधेयक के अनुसार, सिर्फ अल्पसंख्यक यानि ग्रुप के सदस्यों की जान-माल की किसी भी प्रकार की क्षति साम्प्रदायिक और उद्धेश्यपूर्ण हिंसामानी जाएगी। अगर हिन्दुओं की जान-माल की क्षति अल्पसंख्यकों सदस्यों द्वारा पहुंचायी जाती है तो यह साम्प्रदायिक या उद्धेश्यपूर्ण हिंसा नहीं मानी जाएगी। (देखें, धारा 3 (3) ) अल्पसंख्यक समुदाय के किसी व्यक्ति के व्यापार में बाधा पहुंचाने या जीविकोपार्जन में अड़चन पैदा करने या सार्वजनिक रूप से अपमान करने को शत्रुतापूर्ण वातावरण बनाने वाला अपराधमाना गया है। कोई हिन्दू मारा जाता है, घायल होता है, उसकी सम्पत्ति नष्ट हो जाती है, वह अपमानित होता है, उसका बहिष्कार होता है तो यह कानून उसे पीडि़तनहीं मानेगा। पीडि़तव्यक्ति इस मसौदे के अनुसार सिर्फ वही है जो इस ग्रुप का सदस्य है। अगर हिन्दू महिला अल्पसंख्यक वर्ग के किसी दुराचारी द्वारा बलात्कार का शिकार बनाई जाती है तो यह कानून उसे बलात्कार नहीं मानेगा। इस विधेयक (धारा 7) के अनुसार, अगर अल्पसंख्यक समुदाय की महिला के साथ कोई इस प्रकार की घटना ग्रुप के बाहर के व्यक्ति के द्वारा घटती है तो उसे लैंगिक अपराध के लिए दोषी माना जाएगा। अर्थात इमराना के श्वसुर द्वारा इमराना के साथ बलात्कारकरना इस मसौदे के अनुसार बलात्कार नहीं था।
न बहस, न विमर्श
       इसमें गवाहकी नई परिभाषा  रखी गई है। अल्पसंख्यकों के साथ घटी घटना की जानकारी  रखने वाला ही गवाह- होगा। इसके अनुसार बहुसंख्यकों के सम्बन्ध में जानकारी रखने वाला गवाह नहीं माना जाएगा। दुष्प्रचार को दूसरे अध्याय की धारा-8 में इस तरह परिभाषित किया गया है कि इतिहास में से लाल-बाल-पाल जैसे चिंतकों का लिखा तो प्रतिबंधित हो ही जाएगा, पंथ निरपेक्षता पर वैकल्पिक बहस भी समाप्त हो जाएगी। आप बाईबिल, कुरान, मुस्लिम पर्सनल ला, मुस्लिम रीतियों-कुरीतियों, अल्पसंख्यक मांगों-आन्दोलनों-संगठनों पर टीका -टिप्पणी, विमर्श नहीं कर सकते हैं। कोई भी दूसराव्यक्ति (यानि हिन्दू) अगर बोलकर या लिखकर या विज्ञापन, सूचना या किसी भी तरह से ऐसा कुछभी करता है जिसे अल्पसंख्यक समुदाय के किसी व्यक्ति या समुदाय के विरूद्ध भड़काऊ स्थिति पैदा करने वाला मान लिया जाता है तो उसे दुष्प्रचार/घृणा फैलाने का अपराधी माना जाएगा। इतिहासकार मुशीरूल हसन ने तो लाल-बाल-पाल पर अल्पसंख्यकों को स्वतंत्रता आन्दोलन में अलग-थलग करने का दोषी माना था। यानि अब लाल-बाल-पाल को प्रकाशित करने, पढ़ने और उद्धृत करने वाले जेल जाने के लिए तैयार रहें।
       विधेयक में कोई कसर नहीं छोड़ी गई है। हिन्दू संगठनों को निशाना किस चतुराई से बनाया गया है, इसे देखिए। अगर कोई बहुसंख्यक समाज का व्यक्ति अल्पसंख्यक समाज के लिए उपरोक्त किन्हीं अपराधों का दोषी है तो उस संगठन के मुखिया पर भी आपराधिक कानून लगाया जाएगा जिससे उसका प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सम्बन्ध है। संगठन भले ही पंजीकृत हो या न हो। मान लीजिए, किसी गांव या शहर में कोई क्लब या रामलीला कमेटी है। उसका कोई सदस्य अल्पसंख्यक व्यक्ति पर छींटाकशी या उसका बहिष्कार करता है या व्यापार में परस्पर झगड़ा हो जाता है तो उस क्लब या रामलीला कमेटी के पदाधिकारियों पर आपराधिक मुकदमा चलेगा। व्यापार एवं रोजगार में यह विधेयक समुदायों के बीच अंतर निर्भरता को पूरी तरह समाप्त कर देगा, राष्ट्र के बीच एक अघोषित साम्प्रदायिक राष्ट्र को जन्म देगा।
हिन्दू ही होगा अपराधी
       बचाव का बस यही रास्ता रह जाएगा कि बहुसंख्यक अल्पसंख्यकों के मन, मानसिकता, मस्तिष्क के अनुकूल व्यवहार करें एवं दासत्व के भाव से रहें। किसी अल्पसंख्यक ने बहुसंख्यक से रोजगार या किराए पर घर मांग लिया तो बिना योग्यता या अनुकूलता का विचार किए आप यदि हां नहीं कहेंगे तो आप आपराधिक कानून के शिकार होंगे। शिया-सुन्नी, ईसाई-मुस्लिम झगड़े पर यह कानून लागू नहीं होगा। उन्हें दंगा करने का कथित विशेषाधिकार दिया गया है। अनुसूचित जाति या जनजातियों को इस मसौदे में इसलिए रखा गया है कि अगर आप उन पर ईसाई मिशनरियों द्वारा सुनियोजित मतान्तरण या इस्लामिक पेट्रो डालर का उपयोग करने का आरोप लगाएंगें, सत्य उजागर करेंगे तो आप पर आपराधिक कानून लागू होगा। एक और बात गौरतलब है कि इस मसौदे में कोई आरोपित नहीं बल्कि हर आरोपित स्वतः अपराधी मान लिया गया है। उसे ही साबित करना पडेगा कि वह अपराधी नहीं है।
       पुलिस एवं नौकरशाही को अल्पसंख्यकों का जैसे अन्तःवस्त्र बनाकर रख छोड़ा गया है। कहीं भी कोई कथित अल्पसंख्यकों के विरूद्ध दुष्प्रचार, घृणा फैलाने वाला माहौल बना, कोई पोस्टर या लेख प्रकाशित हुआ या अल्पसंख्यक समुदाय के किसी व्यक्ति के जान-माल की कथित रूप से क्षति हुई तो पुलिस और प्रशासन को समान रूप से जिम्मेदार माना जाएगा। उन पर आपराधिक मुकदमा चलेगा। उनके लिए अपनी खाल बचाने का एक मात्र यही रास्ता होगा कि कही भी कोई अंदेशा हो या न हो, हिन्दुओं को गिरफ्तार करते रहें। हिन्दुओं के खिलाफ दुष्प्रचार, हिन्दू देवी-देवताओं का अपमान या जान-माल की जितनी क्षति हो जाए पुलिस प्रशासन को परेशान होने की आवश्यकता नहीं होगी।
       इस विधेयक ने दो प्रकार के आपराधिक कानून बनाए हैं। अब तक मुसलमानों के पास वैयक्तिक कानून था। अब अलग आपराधिक कानून भी उन्हें परोसा जा रहा है। इस विधेयक के मसौदे का लक्ष्य एक देश-दो विधान ही नहीं, बल्कि इसने तो देश के संघीय ढ़ांचे को भी नष्ट करने का इंतजाम किया है। किसी भी राज्य में साम्प्रदायिक स्थिति को आंतरिक गड़बड़ीकी संज्ञा  देकर संविधान की धारा 355 के अन्तर्गत केन्द्र से हस्तक्षेप करने की अनिवार्य अपेक्षा की गई है। सामान्य विधि के आधार पर यह पूरे संविधान में फेरबदल की साजिश नहीं तो और क्या है ?
       राष्ट्रीय स्तर पर एवं राज्यों में इसके लिए एक प्राधिकार बनाया गया है। इसमें सात सदस्यों में से चार का अल्पसंख्यक होना अनिवार्य है। उनके अन्तर्गत पुलिस, प्रशासन और न्यायपालिका का अधिकार होगा। आरोपित व्यक्ति चाहे पुलिस या प्रशासनिक अधिकारी या हिन्दू नागरिक हो, अपराधी मान लिया जाएगा। इसकी धारा 58, 73 एवं 74 में पोटाजैसे प्रावधान हैं। हिन्दुओं की स्थिति नाजी जर्मनी के यहूदियों की तरह बना दी गई है। वे कथित अल्पसंख्यकों पर जुल्म के जिम्मेदार होंगे। यह विधेयक मानता है कि घृणा, दुष्प्रचार, दंगा करना, असंवेदनशीलता आदि हिन्दुओं का चरित्रहै। इसे ऐतिहासिक सच और समकालीन वास्तविकता मान लिया गया है। और इसी चरित्रपर नियंत्रण करने के लिए सोनिया सलाहकार परिषदने यह विधेयक तैयार किया है। भारत की पुलिस, प्रशासन एवं न्यायपालिका पूर्वाग्रहयुक्त एवं अल्पसंख्यक विरोधीहै। इसे स्थापित किया गया है।
वही सेकुलर जमावड़ा
       आखिर यह खुराफाती साजिश किसके दिमाग की उपज है ? सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने यह विधेयक तैयार किया है। इस संविधानेतर संस्था में तीस्ता सीतलवाड़, हर्ष मंदर, जान दयाल जैसे वे नाम हैं जो विदेशी पैसे, प्रेरणा एवं प्रभाव के आरोपों में गले-गले डूबे हैं। यह विधेयक मुस्लिम-ईसाई प्रवक्ताओं द्वारा मुस्लिम-ईसाईयों का हिन्दुओं को प्रताडि़त करने के लिए तैयार किया गया विष का पिटारा है जो खुलते ही समाज को साम्प्रदायिक तनाव एवं अराजक स्थिति में ला खड़ा करेगा। यह हिन्दुओं को खलनायक बनाकर इस देश में साम्प्रदायिक राज स्थापित करने की साजिश है जो भारत की एकता-अखंडता को चुनौती दे रही है। 1930 एवं 40 के दशक में मुस्लिम लीग ने तो विधान मंडलों में अल्पसंख्यक वीटो हासिल किया था। सोनिया सलाहकार परिषदने तो सड़क से लेकर संसद तक अल्पसंख्यक वीटोको कानूनी जामा पहनाने का काम किया है। यह विधेयक अपने गर्भ में गृह युद्ध के भ्रूण पाल रहा है। यदि इसकी भ्रूण-हत्या नहीं की गई तो हिन्दू समाज नाजी जर्मनी का यहूदी समुदाय बनकर रह जाएगा। कुछ मसौदें ऐसे होते हैं जिन पर विमर्श होता है, कुछ पर विवाद, कुछ का उपहास होता है तो कुछ को कूड़ेदान में डाल दिया जाता है। स्वतंत्र भारत के इतिहास का यह पहला मसौदा है जिस पर ये सभी प्रतिक्रियाएं कम पड़ जाती हैं, इसे तो बस जला देने की आवश्यकता है।