Saturday, September 24, 2011

भारत को फिर जरूरत है राष्‍ट्रीयता के उफान की

दीनानाथ मिश्र

प्रस्‍तुति- डॉ0  संतोष राय 


भारतीय राष्ट्रीयता खोखली होती जा रही है। 1947 के पहले भावनात्मक स्तर पर राष्ट्रीयता में आज के मुकाबले प्रबलतर भाव था। राष्ट्रीयता, सुरक्षा, आंतरिक और बाह्य दोनों के बारे में साधारण समाज में एक उदासीनता व्याप्त है। इसमें कोई शक नहीं कि भारत का अन्तर-बाह्य सुरक्षा और राष्ट्रीयता का मामला गम्भीरतर होता चला जा रहा है। इस सम्बंध में हम आगे विस्तार से बात करेंगे। राष्ट्रीय सुरक्षा के हितों के प्रति बढ़ती हुई उदासीनता को कुछ उदाहरण स्पष्ट कर देंगे।

इधर बीस वर्षों से जम्मू-कश्मीर और देश के अन्य भागों में पाक प्रशिक्षित जेहादियों के हमले चल रहे हैं जिसमें 60 हजार से अधिक सैनिक और नागरिक आबादी को जान से हाथ धोना पड़ा है। लेकिन हमारे क्रिकेट प्रेेमी, भारत-पाक क्रिकेट मैच का बाकायदा लुत्फ उठाते हैं। क्रिकेट का यह लुत्फ और जेहादियों की आक्रमकता के विरूद्ध आक्रोश, साथ साथ नहीं चल सकता। सैनिकों और नागरिकों की वीभत्स हत्या, शत्रुभाव तब तक पैदा कर नहीं सकती, जब तक क्रिकेट की खेल भावना का उल्लास थम न जाए।

हमारे देश की लोकतंत्र के सबसे बड़े मंदिर संसद पर हमला हुआ। स्वाभाविक रूप से आक्रोश उमड़ा। आज जब उसके मुख्य षड्यंत्रकर्ता अफजल गुरु को तीनों स्तर की अदालती कार्रवाई के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने फांसी की सजा दे दी, मगर फांसी की कार्रवाई लटकी हुई है। अफजल गुरु के समर्थन के तर्क अखबारों में छपते हैं और भ्रम पैदा करते हैं। ऐसे में आम प्रतिक्रिया उदासीन हो जाती है। एमएस बिट्टा सरीखे लोग आक्रोश को वाणी देते हैं लेकिन उदासीनता के कारण मामला ठंडा पड़ता जाता है। ऐसे में शत्रु-मित्र भाव भी भोथरा हो जाता है और उदासीनता गहरा जाती है।

केरल की विधानसभा में कोयम्बटूर के कुख्यात बम-विस्फोट कांड के मुख्य अपराधी अब्दुल नसर मदनी की रिहाई का प्रस्ताव सर्वसम्मति से पास किया गया। सब को मदनी समर्थक वोटों की जरूरत थी। मुस्लिम वोट बैंक के कारण राष्ट्रीयता से सम्बंधित सवाल उलझाकर पीछे धकेल दिए जाते हैं। यह एक दो घटनाओं की बात नहीं है। पिछले विधानसभाई चुनाव में कांग्रेस ने माओवादियों से खुलकर गठबंधन किया और माओवादियों ने डटकर समर्थन दिया। कांग्रेस जीत गई। इसका अर्थ, समाजद्रोही माओवादियों के वोट के लिए समाज-हित को कांग्रेस ने न्योछावर कर दिया। अभी पिछले साल सर्वोच्च न्यायालय ने लम्बी प्रतीक्षा के बाद बांग्लादेशी घुसपैठियों को संरक्षण प्रदान करने वाले आईएमडीटी एक्ट को संविधान विरोधी कह कर कड़ी फटकार लगाई। लेकिन कांग्रेस को मुसलमानों के वोटों की जरूरत थी। उसने सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को ताक पर रखकर उस एक्ट का नुकसान बांग्लादेशियों को नहीं होने दिया। सर्वोच्च न्यायालय ने उस एक्ट को न केवल असंवैधानिक कहा था, बल्कि जन-सांख्यिकी हमला कहा था।

ये तो कुछ बड़े उदाहरण हैं। अनगिनत छोटे उदाहरण रोजमर्रा की घटनाएं हैं। ऐसे में राष्ट्र की अन्तर वाह्य सुरक्षा के सवाल गौण हो जाएं और राजनैतिक हानि-लाभ प्रबल हो जाए तो आश्चर्य क्या है? आम जनता में भी राष्ट्रीय हितों, सुरक्षात्मक हितों और समाजिक हितों के सरोकार उदासीनता के गर्त में डूब जाए तो आश्चर्य की बात नहीं है। अलबत्ता कारगिल युद्ध जैसी घटनाएं राष्ट्रहित जैसे सवालों को क्षणिक रूप से उबाल बिन्दु पर ले आती हैं लेकिन यह अल्पजीवी चेतना हरगिज पर्याप्त नहीं है। वैसे भी आम समाज अपने-अपने स्वार्थ-पूजा में लगा है। अपने-अपने हिस्से का हिन्दुस्तान बेचने में लगे हैं। टेलीविजन पीढ़ियां मनोरंजन और तनोरंजन में लगी हैं। गरीब आबादी रोजी-रोटी की परिक्रमा में लगी हैं। वह राष्ट्र की अन्तर-वाह्य सुरक्षा की कितनी चिंता कर सकती है। कॅरियर की आराधना करने वालों के पास राष्ट्रीय सुरक्षा के सवालों पर माथा-पच्ची करने का अवसर ही नहीं होता। राजनेता और राजनैतिक दल वोट बैंक के गणित का अध्ययन करते रहते हैं।

सवाल खड़ा होता है कि राष्ट्रीय सुरक्षा सम्बंधी मामलों की जिम्मेदारी किस पर है? सरकार, राजनैतिक दल, सुरक्षा बल के ही हवाले हैं ये सारे प्रश्न। जहां तक वोट बैंक की रात-दिन चिंता में लगे राजनैतिक दलों का सवाल है, उनके राजमार्ग में ये सवाल गौण हैं, औपचारिक हैं। राजनैतिक नीतियों के कारण उसमें शिथिलता भी है। जहां तक सुरक्षा बलों का सवाल है, अनेक क्षेत्रों में उनका मनोबल गिरा हुआ है। कहीं कहीं नीतियांें की लगाम के कारण, कहीं-कहीं शत्रुओं पर भारी पड़ने के कारण। मीडिया में शत्रुओं की घुसपैठ प्रभावी रूप से है। बहुत कुछ भ्रमग्रस्तता तो मीडिया के कारण है। राष्ट्रीय हितों के प्रति उदासीनता की जड़ में भी कहीं न कहीं मीडिया है।

उत्तर-पूर्वी राज्यों के बारे में अनेक विचारक यह कहने लग गए हैं कि भारत के नक्शे से यह कब कट जाएगा, कोई नहीं कह सकता। दस-साल में कट जाएगा, बीस साल में कट जाएगा, अलग जरूर होगा। मेरा यह मत नहीं है। दिल्ली में उत्तर पूर्वी राज्यों के कोई पांच हजार छात्र पढ़ते हैं। उसमें से कुछ ने प्रेस कांफ्रेंस के जरिए कुछ शिकायतें दर्ज की हैं। कहा कि इधर के लोग हमें अपना देशवासी नहीं मानते। हमारा खानपान अलग है, बोली अलग है। हमें कोई किराए पर मकान नहीं देता। एक दिन त्रिपुरा की एक भूतपूर्व मंत्री और उनके पति आए थे। उन्होंने शिकायत की कि दिल्ली बहुत दूर है। हमारी आवाज यहां तक नहीं पहुंचती। उनकी बात में सत्यांश है। जहां तक मकान किराए पर नहीं देने की बात है, वह तो लोग वकीलों को भी नहीं देते। राजनेताओं को देने में डरते हैं। खानपान बोलचाल में तो भारत इतना विविधतामय है, कि कुर्ग, मैसूर और दक्षिण भारत के अनेक लोग भी दिल्ली आकर वैसा ही अनुभव करते हैं जैसा पूर्वोत्तर क्षेत्र के छात्र।

सत्यांश यह भी है कि केन्द्रीय सरकार ने उत्तर पूर्वी राज्यों की ओर उपेक्षा भाव रखा है। सेना वहां बदनाम हो गई है। ऐसा ही कुछ-कुछ प्रशासन के बारे में भी है। केन्द्र से जाने वाला अधिकांश धन अलगाववादी तत्वों के हाथ में पहुुंच जाता है। केन्द्रीय सरकार ने पर्यटन स्थलों की अतीय संभावनाओं के बावजूद पूर्वोत्तर की उपेक्षा की है। वरना शेष भारत के लोग पर्यटन के लिए उधर जाते और सम्बंध घनिष्ठतर होते। जहां तक शांति का सवाल है, सारा पूर्वोत्तर एक तरह से अशांत है।

पूरे उत्तर पूर्व में कुल मिलाकर 79 जिले हैं। उनमें से 51 जिले किसी न किसी तरह के आतंकवाद से पीड़ित है। 2004 के चुनाव के बाद तरह-तरह के नक्सलवादियों, पीपुल्स वार गु्रप और माओवादियों में एकता हो गई और उनकी शक्ति का बेहतर संचालन, बेहतर हथियार उपलब्ध कराना अपनी रणनीति को बेहतर ढंग से संचालित करना शुरू हुआ। और कुल मिलाकर 162 ऐसे जिले हो गए हैं जहां उनकी हिंसक कार्रवाइयों से जानमाल की भारी क्षति रोजमर्रा की गतिविधि है। आंध्र प्रदेश में 23 जिले हैं। उनमें से माओवादियों से प्रभावित जिलों की संख्या 22 है। बिहार में 38 जिले हैं, 32 जिलों में वह प्रभावशाली हैं। झारखण्ड के 22 में से 19 जिले हिंसक गतिविधियों के शिकार हैं। यही हालत उड़ीसा की है। वहां 30 में से 14 जिले प्रभावित हैं। छत्तीसगढ़ की हालत तो बदतर है। 16 के 16 जिले माओवादियों की हिंसक गतिविधियों के शिकार हैं। आए दिन वहां हिंसक वारदातें होती रहती हैं। महाराष्ट्र में 35 में 6 जिले, पश्चिमी बंगाल में 18 में 15 जिले, उत्तर प्रदेश में 69 में से 3 जिले, उत्तराखण्ड में 13 में 5 जिले, मध्यप्रदेश के 48 में से 15 जिले, तमिलनाडु में 30 में 6 जिले, कर्नाटक में 27 में 6 जिले और केरल में 15 में से एक जिला माओवादियों के प्रभाव क्षेत्र में हैं। इस तरह इन राज्यों के 162 जिलों में इनका प्रभाव है।

जम्मू-कश्मीर के 24 में 12 जिलों में जेहादी आतंकवाद की जकड़ पकड़ में हैं। कुल मिलाकर देश के 604 जिलों में से 224 जिले इस्लामिक आतंकवाद, उत्तर पूर्वी क्षेत्र की हिंसा और माओवादियों से संचालित असुरक्षित, अशांत और किसी न किसी तरह आतंकवाद के शिकार हैं। जहां तक माओवादियों के आतंक का सवाल है कई हजार इसके शिकार हो चुके हैं। अरबों की सम्पत्ति का विनाश हुआ है। अभी हाल में 5 राज्यों के बंद में अकेले झारखण्ड को कोयले की आपूर्ति के मामले में अरबों रुपए का नुकसान हुआ। इनकी गतिविधियांे से जानमाल का नुकसान तो हैं ही यह विकास की गति को भी घटाती हैं। कहीं कहीं तो विकास होने ही नहीं देती।

अब थोड़ा बाह्य चुनौतियों की तरफ नजर डालें। चीन ने अरूणाचल की सीमा तक सड़कों और रेलवे लाइन का जाल बिछा दिया है। वह माउंट एवरेस्ट तल (बेस कैम्प) पर सड़क बनाने की योजना बना रहा है। बलूचिस्तान के ग्वाडर, बांग्लादेश, म्यांमार और श्रीलंका के साथ अपने सम्बंधों को घनिष्ट कर भारत की घेरेबंदी को चाक चौबंद कर दिया है। अरूणाचल पर दावा उन्होंने कर ही दिया है। अरब सागर, हिन्द महासागर और बंगाल की खाड़ी यानि करीब-करीब पूरे एशिया पैसेफिक क्षेत्र की एकक्षत्र शक्ति बनने की दिशा में लगा है।

भारत सैनिक रूप से चीन का मुकाबला नहीं कर सकता। विशेष रूप से तब, जब चीन ने पाकिस्तान के साथ बहुआयामी सामरिक सम्बंध बना लिया हो। इधर पाकिस्तान ने भारत में सिर्फ कश्मीर में ही नहीं, बल्कि भारत के अनेक हिस्सों में आईएसआई एजेंट स्लीपिंग सेल का गठन कर रखा है। भारत पाकिस्तान और बांग्लादेश के आतंकी जेहादी संगठनों मंे तालमेल चल रहा है। आईएसआई का भारत स्थित एक एक ठिकाना क्या कर सकता है, इसका अंदाज मुम्बई लोकल के फर्स्ट क्लास के डिब्बों में विस्फोट करके और 200 से अधिक नागरिकों की हत्या करके बता दिया है। उत्तर प्रदेश के आधे से ज्यादा जिलों में आईएसआई ने सजीव तंत्र विकसित किया है।

सुरक्षा के सवाल पर स्थिति कितनी गम्भीर और खतरनाक है, और पिछले तीन वर्षों में और कितनी बढ़ी है, इसका आकलन भयावह है। सवाल है कि मौजूदा पीढ़ी अपने आने वाली पीढ़ियों को कैसा भारत सौंप जाएगी? क्या भारत ऐसा रहेगा या इसका भूगोल बदल जाएगा? मौजूदा नीतियां चलती रहीं तो अगले दस-बीस वर्षों में भारत का भूगोल बदल जाएगा। यह नहीं भूलना चाहिए कि नेपाल में माओवादी, नेपाल और सरकार पर कितना हॉवी हो गए हैं? कितना खून-खराबा हुआ है? चाहे माओवादी हों या आईएसआई का नेटवर्क, अथवा अलगाववादी संगठन, उनके पास हथियारों की कमी नहीं है। क्या भारत के भविष्य के नक्शे के बारे में आशंकाग्रस्त होने की आवश्यकता नहीं है ? क्या इस स्थिति को पलटने के लिए आम लोगों की ओर से राजनैतिक कार्रवाई को और टाला जा सकता है?


साभार- प्रभासाक्षी डॉट कॉम

No comments: