Monday, April 30, 2012

आर्थिक कार्यक्रम


अखिल भारत  हिन्‍दू महासभा

भारत हिन्‍दू राष्‍ट्र क्‍यों नहीं 

49वां अधिवेशन पा‍टलिपुत्र-भाग:13  

(दिनांक 24 अप्रैल,1965)

अध्‍यक्ष बैरिस्‍टर श्री नित्‍यनारायण बनर्जी  का अध्‍यक्षीय भाषण 

प्रस्‍तुति: बाबा पं0 नंद किशोर मिश्र

जब हम राष्‍ट्रीय अर्थव्‍यवस्‍था  की बात करते हैं तो हमें मनमोहक नारों और  पश्चिम की आर्थिक वाक्‍यावलियों के मोहक जाल में न जकड़े रहना चाहिये। आज कांग्रेस ''लोकतांत्रिक समाजवाद'' का नारा लगा जनता को बुद्धू बना रही है। यद्यपि उसे यह भलीभांति विदित है कि समाजवाद अर्थात राजकीय पूंजीवाद लोकतंत्र  के साथ नही चल सकता। भारत की कम्‍युनिस्‍ट पार्टी अंधी होकर मार्क्‍स  के समाजवाद को स्‍वीकार करती है जिसका आधार ही क्रांति और तानाशाही है। इस दल के पंथानुयायी अन्‍य दल व व्‍यक्ति भी थोड़े बहुत परिवर्तन के साथ  इसी पथ का अनुकरण करते हैं। स्‍वतंत्र पार्टी तथा जनसंघ आदि उन्‍मुक्‍त व्‍यापार के नारे के अंर्तगत अमरीकी ढंग के पूंजीवाद की बात करते हैं। 


मित्रों! इस तथ्‍य को विस्‍मृत न करो कि इतिहास इस बात की साक्षी प्रस्‍तुत कर रहा है कि हजारों वर्षों के इस परीक्षण काल में भी  हिंदू अर्थव्‍यवस्‍था और राजनीति युग की कसौटी पर खरी उतरी है। हिन्‍दू भारत में सर्वश्रेष्‍ठ राज्‍यतंत्र  तथा प्रजातंत्र दोनों ही फले-फूले हैं। मिश्र के इतिहासकार मेगस्‍थनीज (चतुर्थ शताब्‍दी) ने  जो विवरण दिया है उसमें भारत के सैकड़ों गणतंत्रों अथवा गणों का उल्‍लेख है। वेदों, महाभारत, पालि साहित्‍य तथा पाणिनी के व्‍याकरण में भी हम समिति, सभा गणों और संघों का उल्‍लेख पाते हैं जो राजनों और राजन्‍यों की तुलना में लोकतंत्रवादी राज्‍यों के परिचायक थे। सभ्‍यता की प्रगति तथा सा‍माजिक ढांचे के साथ-साथ निश्चित रूप से ही अनेक वर्षों के इस काल खण्‍ड में आर्थिक और राजनैतिक प्रणालियों में परिवर्तन होते रहे हैं। किंतु हिंदू नीति के मूल सिद्धांत  प्रणालियों में इन परिवर्तनों के होने पर भी अपरिवर्तित ही रहे हैं। 


वस्‍तुत: हिंदू सिद्धांतों के अनुसार जातियों और वर्गों में प्रतिद्वन्दिता के  स्‍थान पर समन्‍वय और संघर्ष नही अपितु सहयोग को ही आधार बनाया गया है। हिंदू दर्शन का संपूर्ण बल इसी सिद्धांत पर रहा है कि व्‍यक्ति समाज के लिये है अपने लिये नहीं। अत: सा‍माजिक हितों को ही सर्वोच्‍च स्‍थान दिया जाना  चाहिये। अतीत में भारत के सभ्‍यता का आधार समाज था राजनीति नहीं। यह अनिवार्य था कि व्‍यक्ति के कार्य समाज के अनुरूप ही होने चाहिये। जीवन का एकमात्र लक्ष्‍य अर्थपरक नही था अपितु धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चारों ही व्‍यक्तिगत और सामाजिक जीवन के चार स्‍तम्‍भ थे। आज सभी राजनैतिक दल जनता से आर्थिक संपदा और समृद्धि की अभिवृद्धि  की आह्वान करते हैं। आज के समाज में भौतिक भौतिक प्रगति को ही मात्र व्‍यक्तिगत और राष्‍ट्रीय जीवन का केन्‍द्र बिंदु बना दिया गया है। आज समाजवाद और वर्ग चेतना के नाम पर समाज विरोधी घृणा का ही जनार्दन को विषपान कराया जा रहा है।


हिन्‍दू जीवन पद्धति ने भौतिक समृद्धि की उपेक्षा नहीं की है किंतु इस बात पर अवश्‍य बल दिया है कि इसकी प्राप्ति के लिये न्‍याय पक्ष का अवलंबन करना ही अनिवार्य है। इस न्‍याय पक्ष के अवलंबन का नाम ही रहा है धर्म। किसी हिन्‍दू की दृष्टि में धर्म का अर्थ है जीवन की एक संहिता, केवल कर्मकाण्‍ड में नहीं, अपितु नैतिक अनुशासन। आध्‍यात्मिकता ही इस संहिता और अनुशासन की प्राणवायु  है। कोई भी सच्‍चा हिंदू धन संपत्ति की प्राप्ति का स्‍वागत करेगा किंतु उसकी यह आकांक्षा अवश्‍य ही होगी कि उसकी उप‍लब्धि अनैतिक अथवा अध्‍यात्‍म विहीन साधनों से नहीं होनी  चाहिये। यही हिंदू समाजवाद की मूलभूत सिद्धांत  है। हिंदुओं  में तो भोजन में पशुओं का भी न्‍यायपूर्ण भाग स्‍वीकार किया गया है। हिंदू जीवन में दूसरों को खिलाना, दूसरों को देना कर्तव्‍य ही नहीं अपितु पावन दायित्‍व के रूप में मान्‍य है। 


इस प्रकार की जीवन पद्धति किसी भी प्रकार के स्‍वार्थ, स्‍वार्थपरता, भ्रष्‍टाचार, चोरबाजारी आदि को स्‍वाभाविक रूप में ही उत्‍पन्‍न नहीं होने देती। आज के इन आर्थिक जयघोषों से केवल  धन की लिप्‍सा ही जाग्रत हो पाती है। आधुनिक राजनैति पंडितों की दृष्टि में  साधन कोई भी हो और कैसा भी हो सफलता ही लक्ष्‍य होना चाहिये। इसका परिणाम यह हुआ है कि अनेक कानूनों का निर्माण किया गया है और उनको लागू कराने के लिये विशाल मशीनरी का गठन हुआ है। वही सरकार अच्‍छी सरकार है जो कम से कम कानूनों के आधार पर शासन चलाती है और उसे जनता का वांछित सहयोग भी प्राप्‍त होता है। क्‍या वर्तमान सरकार उपरोक्‍त योग्‍यताओं पर खरी उतरती है ?

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