अखिल भारत
हिन्दू महासभा
49वां अधिवेशन पाटलिपुत्र-भाग:17
(दिनांक 24 अप्रैल,1965)
अध्यक्ष बैरिस्टर श्री नित्यनारायण
बनर्जी का अध्यक्षीय भाषण
प्रस्तुति: बाबा पं0 नंद किशोर मिश्र
हमारा यह सुदृढ़ विश्वास है कि संस्कृत निष्ठ हिंदी ही
भारत की राजभाषा होनी चाहिये। आज राजभाषा के रूप में अंग्रेजी को रखने की मांग की
जा रही है, उसका
मुख्य कारण यह है कि केंद्रीय सेवाओं में अहिंदी भाषा-भाषियों
को कम स्थान प्राप्त होंगे ऐसी चिंता अहिंदी भाषा-भाषियों के मन में विद्यमान
हैं। उनके हृदय में यह आशंका घर कर गई है कि हिंदी के राजभाषा पर पर अधिष्ठित होने
से हिंदी भाषा-भाषी ही संपूर्ण देश के प्रशासन को अपने हांथों में ले लेंगे।
अंग्रेजी को राष्ट्रभाषा अथवा राजभाषा के रूप में बनाये रखने के लिये जो अन्य
तर्क प्रस्तुत किये जाते हैं वे उपहासास्पद और असद् उद्देश्यों से प्रेरित हैं।
यह तथ्य तो असंदिग्ध है कि हिंदी ही भारत के अधिकांश प्रदेशों में बोली और समझी
जाती है और इसी भाषा को यह एकमात्र लाभ उपलब्ध है कि अहिंदी भाषा-भाषी अंचलों में
यह समझी जाती है। किंतु भारत सरीखे विशाल देश में जहां 14 क्षेत्रीय भाषाएं हैं
(जिनमें से अनेक में अन्य उपभाषाएं भी हैं) यह आवश्यक है कि एक से अधिक भाषा को
राष्ट्र और राजभाषा के रूप में उस समय तक स्थान दिया जाये जब तक कि संपूर्ण राष्ट्र
अपनी सहमति से एक भाषा को प्रशासन कार्य के लिये स्वीकार न कर ले।
आधुनिक विज्ञान और शिल्प-विज्ञान के माध्यम तथा एक भाषा
के रूप में अंग्रेजी की स्थिति को बहुत अधिक बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत किया जाना
निरर्थक है। वैज्ञानिक और शिल्प-विज्ञान में लगे लोगों को अंग्रेजी को अपने
कार्यों में उपयोग करने दिया जाये, किंतु जनसाधारण पर इसे नहीं थोपा जाना चाहिये। जर्मनी, फ्रांस, सोवियत रूस,चीन, जापान ही नहीं अपितु सभी अंग्रेजी न बोलने वाले प्रगतिशील देशों ने
अंग्रेजी न सिखते हुये भी विज्ञान और शिल्प-विज्ञान के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। यदि भारत में
अंग्रेजी को जारी रहने दिया गया तो अंग्रेजों के
राजनैतिक शासन का अंत हो जाने पर भी भारत पर उनकी सांस्कृतिक विजय का
कार्य पूर्ण हो जायेगा। स्वतंत्र भारत को अंग्रेजी भाषा को जारी जारी रखने तथा
उससे हिंदुओं पर पड़ने वाले प्रभावों के संबंध में भी पुनर्विचार करना होगा।
वेदों का अनुवाद करने वाले मैक्समूलर तथ लॉर्ड मैकाले के
दो पत्रों से यह तथ्य स्पष्ट हो जायेगा कि भारत में अंग्रेजी शिक्षा को प्रचलित करने वालों की वास्तविक आकांक्षाएं क्या थीं।
मैक्समूलर ने 1866 में अपनी पत्नी को लिखा था-''.........फिर भी मेरा यह संस्करण
और ऋग्वेद का अनुवाद एक बड़ी सीमा तक इस देश के भाग्य और लाखों लोगों के उत्थान
को प्रभावित करेगा। यही उनके धर्म का मूल है और यह बताने के लिये कि वह मूल क्या
है, मैं यह सुनिश्चित मानता हूं कि इस कार्य का एकमात्र मार्ग
उस सब को निर्मूल कर देना है जो कुछ इससे विगत 3000 वर्ष में उद्भूत हुआ है।''(मैक्समूलर का जीवन और उसके पत्र)
ईस्ट इंडिया कम्पनी तथा भारत की नवीन परिषद ने बड़ी
उदारता सहित मैक्समूलर को ऋग्वेद तथा अन्य वेदों का अनुवाद करने में सहायता
प्रदान की। जिससे हिंदुओं का धार्मिक विश्वास लड़खड़ा सके और उनको ईसाई मत में
दीक्षित करने में सुगमता हो सके।
''बहुत वर्षों से भारत के प्रबुद्ध वर्ग के हिंदुओं के
धर्मांतरण में प्राध्यापक बहुत अधिक रूचि ले रहे हैं। विगत कुछ मास से जबसे कि वे
रूग्ण हैं ऐसा प्रतीत होता है कि उनके
मस्तिष्क में यही विचार बद्धमूल होता जा
रहा है।''(मैक्समूलर का जीवन तथा पत्र खण्ड 2 पृष्ठ 418)
उपरोक्त पुस्तक के अन्य उद्धरण से यह स्पष्ट हो जाएगा
कि मैक्समूलर सरीखे प्रमुख विद्वानों द्वारा हमारी धर्म-पुस्तकों का अंग्रेजी
में अनुवाद कराने के पीछे ब्रिटिश लोगों की कौन-सी आकांक्षाएं क्रियाशील थीं।''
''आपका कार्य भारत में धर्मांतरण के प्रयासों में नवयुग का सृजन
करेगा और ऑक्सफोर्ड उचित रूप से ही आपका आभारी रहेगा। आपको एक स्थान देकर इसने
एक मूल एवं चिरस्थायी महत्व के कार्य को प्रश्रय दिया है और वह है भारत का
धर्मांतरण। जिससे कि हमको पुराने किंतु मिथ्याधर्म के साथ वास्तविक धार्मिक स्वरूप
की तुलना करने का अवसर उपलब्ध हो सकेगा जो इस शुभाशीष से भी बड़ा वरदान
सिद्ध होगा जो आप हमें प्राप्त है।(पृष्ठ
430)
बोल्डन पीठ के संस्थापक श्री बोल्डन द्वारा 1814 ई0 में 15 अगस्त को जो वसीयत लिखी
गई थी उसमें सुस्पष्ट रूप से यह उल्लेख है कि संस्कृत ग्रंथों के अनुवाद को
प्रोत्साहन देने के लिये इतनी विपुल राशि दान स्वरूप देने का उद्देश्य यही है
कि उनके देशवासी भारत की जनता को ईसाई धर्म में दीक्षित करने की दिशा में प्रवृत्त
हो सके। (सर विलियम जोन द्वारा लिखित अंग्रेजी-संस्कृत शब्दकोष की प्रस्तावना)
लार्ड टी0 बी0 मैकाले ने कलकत्ता से 12 अक्टूबर 1836 ई0
को अपने पिता को कलकत्ता से पत्र लिखा था। जिसमें उन्होंने कहा था: ''......इस शिक्षा का हिंदुओं पर पर
विलक्षण प्रभाव हुआ है। कोई भी हिंदू जिसने
अंग्रेजी शिक्षा ग्रहण की है वह अपने धर्म के प्रति हृदय से निष्ठावान नही रह
पाता। कुछ लोग केवल नीतिमात्र के कारण इसका दम भले ही भरते रहे हों किंतु बहुत से
लोग अपने आपको विशुद्ध ईश्वरवादी कहने लग जाते हैं, तथा
अनेक ईसाईयत को स्वीकार ही कर लेते हैं।
मेरा यह सुनिश्चित मत है कि यदि हमारी शिक्षा-संबंधी नीति
क्रियान्वित की गई तो 30 वर्ष में बंगाल के संभ्रांत परिवारों में एक भी
मूर्तिपूजक नही रह जायेगा। और यह संपूर्ण
कार्य बिना धर्मांतरण धार्मिक स्वतंत्रता
में तनिक सा भी हस्तक्षेप न करते हुए केवल स्वाभिवक रूप से ज्ञान के प्रवाह मात्र से ही संपन्न हो जायेगा। मुझे अब
तक जो सफलता प्राप्त हुई है, उस पर मुझे हार्दिक प्रसन्नता है। (लार्ड मैकाले का जीवन चरित्र पत्र
पृष्ठ 329-330)
मेरा यह मत है कि भारत की शिक्षित और प्रबुद्ध जनता में संस्कृत के गत गौरव का पुनरूद्धार
किया जाना चाहिये। व्यावहारिक दृष्टि से
तो भारत की लगभग सभी क्षेत्रीय भाषाओं का प्रेरणा-स्रोत संस्कृत ही है। इसके साथ
ही हिंदू धर्म, हिंदू
दर्शन तथा संस्कृति संबंधी साहित्य संस्कृत में ही उपलब्ध है। आज भी भारत के एक छोर से दूसरे छोर तक निवास वाला प्रत्येक हिंदू चाहे वह उत्तर में निवास
करता हो या दक्षिण भारत में और चाहे पश्चिम में रहता हो अथवा पूर्वी भारत में अपने संपूर्ण धार्मिक कार्य एवं
पूजा-पाठ संस्कृत स्त्रोतों द्वारा ही
संपन्न करता है। मैं तो उस शुभ दिवस को देखने के
लिये लालायित हूं जब भारत भर में सभी दीक्षांत समारोह तथा अन्य समारोह उस
संस्कृत भाषा के माध्यम से ही संपन्न हुआ करेंगे जो युग-युग से भारत की एकता की
महान् शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित रही है।
किंतु मित्रों, जब हमारी पावन मातृभूमि की सभी सीमाओं पर शत्रुओं द्वारा गोली
वर्षा की जा रही है तथा हमारी स्वतंत्रता के लिये ही संकट उत्पन्न कर दिया गया
है तो इन प्रश्नों पर अधिक विचार करना अपेक्षित नहीं है।
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