त्रिलोचन सिंह
आज के हालात देखकर और कई वर्गों से उठे इस नारे कि सिखों की स्वतंत्र एवं विशिष्ट पहचान के लिये कुछ किया जाये, को सुनकर बहुत से प्रश्न पैदा होते हैं। मैंने अनेक बार इस विषय पर लिखा है कि सिख कौम का हिन्दू समाज से अटूट संबंध है- कोई भी सिख विद्वान तब तक पूरी विद्वता की थाह नही पा सकता जब तक उसे वैदिक दर्शन का ज्ञान न हो। हमारे कई अति उत्साही बंधु नए-नए पंगे ढूंढ कर इस मसले को उलझाने में लगे हुये हैं। वे इतिहास को पढ़ने की जहमत नही उठाते।
कुछ दिन पूर्व गुरू नानक देव विश्वविद्यालय में एक सेमीनार का का आयोजन हुआ जो निर्मल सिख समाज के बारे में था। उसमें भी मुझे भी बोलने का अवसर दिया गया। मैंने कहा कि यदि आज हिन्दू और सिख समाज में मिलाप की कोई मजबूत कड़ी है तो वह है निर्मला सिख समाज। ये लोग आज भी भगवे कपड़े पहनते हैं। जबकि आम हिन्दू भगवे कपड़े पहनना छोड़ दिये हैं जबकि निर्मला समाज 300 वर्षों से भगवा वेश को संजोए हुए हैं।
उस दिन गुरू नानक भवन भगवा वेशधारियों से खचाखच भरा हुआ था। यह देखकर आश्चर्य होता था कि यह कैसे हो रहा है। मेरा मत है कि निर्मला समाज एक महान सेवा को निभाने के लिये अपने प्रण पर कायम है। श्रीगुरू गोविंद सिंह जी ने 1699 में सिख समाज को 'सिंह' का रूप दिया, केशधारी बना दिया। उस समय शस्त्र की शिक्षा दी गई। उन्होंने महसूस किया कि शस्त्र की शिक्षा के साथ-साथ शास्त्र की भी शिक्षा आवश्यक है।
उन्होंने पंडित रघुनाथ जी को संस्कृत की विद्या देने का अनुरोध किया तो उन्होंने विनम्रतापूर्वक मना कर दिया और कहा कि यह देवभाषा शूद्रों को नही पढ़ाई जा सकती। गुरू महाराज ने उसी समय 5 सिख विद्वानों कर्म सिंह, वीर सिंह, गंडा सिंह, सुरैण सिंह एवं राम सिंह को बढि़या वस्त्र पहनाकर वाराणसी भेज दिया ताकि वे हिन्दू दर्शन में पारंगत हो सकें एवं संस्कृत सीखकर वेद ज्ञान अर्जित कर सकें।
कई वर्षों की मेहनत से वे निपुण होकर आनंदपुर साहिब लौटे। गुरू साहिब ने प्रसन्न होकर उनका नाम निर्मले अर्थात पवित्र एवं शुद्ध हृदय वाले रखा। गुरू साहिब ने अलग से निर्मल परम्परा स्थापित करके उन्हें अन्य लोगों को शिक्षित करने का आदेश दिया। उसी दिन से ये सेवा में लगे हुये हैं।
धीरे-धीरे निर्मले संपूर्ण भारत में फैल गये, जगह-जगह अपने डेरे स्थापित करके शिक्षा के विस्तार एवं सिख धर्म के प्रचार में लग गये। 1708 में गुरू गोविंद जी के देवलोक गमन के बाद इन महंतो ने समस्त गुरू-स्थान संभालकर रखे और श्री गुरू नानक देव जी के नाम की ज्योति प्रचंड रखी। इन्होंने प्रत्येक हिन्दू समागम में अपना दीवान लगाने एवं गुरू ग्रंथ साहिब का प्रकाश करके प्रचार करने का कार्य जारी रखा।
हरिद्वार में निर्मल अखाड़ा, वाराणसी में चेतन मठ व छोटी संगत एवं इलाहाबाद में पक्की संगत कायम करके हिन्दू धर्मस्थानों पर स्थायी बस्तियां लीं।
1855 में हरिद्वार कुंभ के अवसर पर समस्त निर्मले संत इकट्ठे हुए। वहां उन्होंने अपनी संस्था बनाकर एक प्रमुख श्री महंत का चयन किया। संत महताब सिंह जी प्रथम श्री महंत बने। आज उनके स्थान पर एक दर्शनीय एवं विद्वान श्री महंत स्वामी ज्ञान देव सिंह जी महाराज हैं।
सिख जनसाधारण में निर्मले संतों के बारे में भ्रांतियां पैदा करने के लिये अनेकों लोग प्रचार करते हैं कि ये तो हिंदू संत हैं- हाथ में कमण्डल भी है, भगवे कपड़े भी पहनते हैं, संस्कृत के श्लोक पढ़ते हैं, हर हिन्दू मेले में जाते हैं, इनके अखाड़ो में श्री राम कृष्ण की तस्वीरें लगी हैं और कुंभ के अवसर पर ये शाही जुलूस भी निकालते हैं।
परन्तु ऐसे लोग यह भूल जाते हैं ये संत-महंत वास्तव में सिखों की सेवा कर रहे हैं। सिख कहां से आये? केवल हिन्दू ही सिख बन सकते हैं। आज भी लाखों हिन्दू श्री गुरू नानक देव जी के उपासक हैं। करोड़ों हिन्दू निर्मल अखाड़ो में जाते हैं तो वहां गुरू ग्रंथ साहिब जी के आगे नतमस्तक होते हैं। सिख धर्म का साहित्य सर्वप्रथम निर्मल संतों ने ही लिखा।
पंडित सदा सिंह ने 'संयम सागर चंद्रिका' ग्रंथ अद्वैत दर्शन के बारे में लिखा। पंडित तारासिंह नरोत्तम जी (1822-91) ने 'गुरूमति नारायण सागर' एवं 'गुरू ग्रंथ कोश' की रचना की। पंडित साधू सिंह ने भी कोश लिखे। ज्ञानी ज्ञान सिंह जी ने प्रसिद्ध 'पंथ प्रकाश' की रखना की जिसकी आजकल कथा होती है। उन्होंने 'तवारीख खालसा' भी लिखी। श्री गुरूग्रंथ साहिब का प्रथम अनुवाद भी निर्मले संतों ने फरीदकोट में किये।
सिख समाज के सबसे बड़े कथाकार ज्ञानी संत सिंह मस्कीन भी निर्मल परम्परा की पैदावार हैं। मुझे ऋषिकेश जाने का मौका मिला। वहां निर्मल आश्रम अद्वितीय सेवा कर रहा है। पूरे शहर में अस्पताल केवल उन्हीं का है। अब आंखों का एक आलीशान अस्पताल भी बना दिया है और 2 स्कूल भी उनके द्वारा चलाये जा रहे हैं। हजारों यात्री उनके पास लंगर छकते हैं।
संत जोध सिंह जी ने कुछ समय पूर्व संतों एवं सिख विद्वानों का सम्मेलन करवाकर निर्मल समाज के बारे में बढ़ती भ्रांतियां एवं अज्ञानता और सनातनी दार्शनिक परंपराओं से बढ़ती दूरी को कम करने के प्रयास किये थे। डॉ0 जसपाल सिंह उपकुलपति पंजाबी विश्वविद्यालय पटियाला ने बहुत बड़ा प्रयास करके निर्मल समाज के योगदान के बारे में शोध पत्र तैयार किये हैं। निर्मले महंत केवल सिखों की सेवा ही नहीं कर रहे हैं बल्कि भारत की हजारों वर्ष पुरानी धरोहर 'वेदांत' को पढ़कर एवं उसके अनुवाद करके लोगों को वैदिक ज्ञान दे रहे हैं। वे श्री गुरू नानक के उपदेश को वास्तविक रूप में अपना रहे हैं।
(लेखक पूर्व सांसद, पूर्व अध्यक्ष राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के रह चुके हैं)
Courtsey: Punjab Kesri
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