Monday, April 30, 2012

राजनीतिक चेतना के लिये भी आ‍ध्‍यात्मिक उद्भव आवश्‍यक है


अखिल भारत  हिन्‍दू महासभा

49वां अधिवेशन पा‍टलिपुत्र-भाग:20

 
(दिनांक 24 अप्रैल,1965)


अध्‍यक्ष बैरिस्‍टर श्री नित्‍यनारायण बनर्जी का अध्‍यक्षीय भाषण 

प्रस्‍तुति: बाबा पं0 नंद किशोर मिश्र


अतीत का इतिहास इस तथ्‍य  की साक्षी प्रस्‍तुत करता  है कि भारत की राजनीतिक समृद्धि की उप‍लब्धि, आध्‍यात्मिक नेताओं के आर्विभाव के साथ ही साथ होती आई है। श्री शंकराचार्य के अद्वैतवाद की पृष्‍ठभूमि पर ही शुंग, आंध्र, गुप्‍त, केशरी तथा अन्‍य अनेक शक्तिशाली हिंदू साम्राज्‍यों की स्‍थापना हुई थी। दक्षिण के पल्‍लवों, पौण्‍ड्रों, चौल तथा चालुक्‍यों को रामानुज तिरूमंगल अथवा सायण, अपर स्‍वामी एवं अन्‍य संतों का ही आशीर्वाद प्राप्‍त था। अशोक ने भी अपने महान साम्राज्‍य का विस्‍तार भगवान बुद्ध की पावन पताका को हाथों में थामकर ही किया था। छत्रपति शिवाजी एवं गुरू गोविंद सिंह भी अपने आध्‍यात्मिक गुरूओं- समर्थ स्‍वामी रामदास तथा गुरू  नानक देव से ही प्रेरणा पाते थे। 


मित्रों, यदि हमें राष्‍ट्र निर्माण करना है तो इसके लिये हमें आध्‍यात्‍मवाद का भी पुनरूद्धार करना होगा। केवल हिंदू धर्म के माध्‍यम से ही भारत में प्रेम और ऐक्‍य की भावना से परस्‍पर संवद्ध और चरित्र बल के धनी नर नारियों का उद्भव होगा।
धर्म ही इस हिंदू राष्‍ट्र को बद्रीनाथ से कन्‍या कुमारी तक और नेफा से हिंगलाज तक एकता के सूत्र में आबद्ध करने वाला आधार है। 


आज राष्‍ट्रों में विद्यमान पारस्‍परिक कलह तथा खुली घृणा के प्रदर्शन और प्रकृति के रहस्‍यों पर पाई गई विजय के फलस्‍वरूप विश्‍व के समक्ष जो भयावह और दिग्‍भ्रांत स्थिति निर्मित हो गई है हिंदू धर्म के सिद्धांत ही उसका निराकरण कर विश्‍व को सच्‍ची शांति का सुअवसर प्रदान कर सकते है।
वीर और बलवान बनो
हमें यह स्‍मरण रखना है कि यद्यपि अहिंसा हमारे धर्म का सर्वोच्‍च आदर्श है किन्‍तु वह सत्‍व गुण का ही सर्वश्रेष्‍ठ स्‍वरूप है। जब तक हम उस स्थिति को प्राप्‍त न कर लें हमें ''रजोगुण'' का व्‍यवहार करना होगा अर्थात हमें जीवन में सक्रिय होना होगा। स्‍वरक्षा और राष्‍ट्र रक्षार्थ हिंसा को भी सार्वभौमिक दृष्टि से मान्‍यता प्राप्‍त है। 


हमारे वेद, पुराण तथा अन्‍य सभी धर्म ग्रंथ हमें यह सिखाते हैं कि हम अग्रगामी बनें सक्रिय हों तथा यदि आवश्‍यकता आ पड़े तो आसुरी शक्तियों के विरूद्ध संग्राम करने हेतु हिंसा के भी मार्गका अवलंबन करें। हमारे अधिकांश देवताओं के हाथों में शांति के प्रतीक कमल तथा अन्‍य चिह्नों के अतिरिक्‍त शस्‍त्रास्‍त्र भी हैं। आओ हम उनके सच्‍चे अनुगामी बनें। कायरता का परित्‍याग कर वीरत्‍व को ग्रहण करें और शौर्यवान हों। चरित्र ही सब शक्तियों की आधार शिला है। हमारे उपनिषद भी ''चरैवेति चरैवेति'' अर्थात अग्रगामी होने का ही आदेश दे रहे हैं। सक्रियता ही जीवन है और निष्क्रियता ही मृत्‍यु। 


आदर्श के लिये ही जियो


हमें दूसरे राष्‍ट्रों का अंधानुकरण करने वाले समूह के रूप में नहीं अपितु कतिपय आदर्शों के लिये निर्मित हुये एक राष्‍ट्र के रूप में जीवित रहना होगा हमें एक ऐसे शासन की स्‍थापना करनी होगी जो जनता की अर्थात हिंदू राष्‍ट्र की आकांक्षाओं की पूर्ति करे। हिंदुत्‍व पर आधारित समाजवाद ही इस शासन की आर्थिक नीति का निर्देशक होगा। हमें अपने देश के उन भू-खण्‍डों को पुन: प्राप्‍त करने का उद्योग करना होगा जो हमारे पूर्वजों की कायरता अथवा विश्‍वासघात के कारण शत्रुओं द्वारा हड़प लिया गया है। 


इसके साथ ही साथ हमें विश्‍व के हिंदू राज्‍यों का एक सुदृढ़ संघ बनाने की दिशा में प्रवृत्‍त होना होगा जिसके द्वारा विश्‍व को प्रेम और आध्‍यात्मिकता का संदेश प्राप्‍त हो सकेगा। यह भारत को प्राप्‍त हुआ पावन दायित्‍व है और हम जो इस भारत माता के पुत्र हैं उन्‍हें इस कार्य के लिये सक्रिय होना पड़ेगा। हम किसी राजनैतिक साम्राज्‍य की स्‍थापना के आकांक्षी नहीं हैं किंतु उस दिन की हम निश्चित रूप से ही बाट जोह रहे हैं जब जापान, कंबोडिया, थाई देश, वियतनाम(हिंदू-चीन), हिंदू एशिया(इण्‍डो-नेशिया), मलय, ब्रह्मदेश, श्रीलंका, फिजी, मॉरिशस, तिब्‍बत, सिक्किम, भूटान आदि सभी राज्‍यों का एक भ्रातृभावना पर आधारित संघ गठित होगा। जो उनमें से किसी भी  एक पर इस्‍लाम, ईसाईयत अथवा नास्तिकवाद किसी के द्वारा भी राजनैतिक अथवा धार्मिक या आर्थिक प्रहार होने पर संगठित होकर उस आक्रमण का मुंह तोड़ उत्‍तर दे सकेगा।


 हमारा यह सुदृढ़ हिंदू संघ स्‍थापित होगा तो इन देशों के वे हिंदूजन तथा अन्‍य पड़ोसी देश भी अपने पूर्वजों के पुनीत हिंदू धर्म को पुन: अंगीकार कर लेंगे जिन्‍होंने इस पावन धर्म का परित्‍याग कर दिया है। वे सभी इस एक हिन्‍दू राष्‍ट्र मण्‍डल में सम्मिलित हो जाएंगे ऐसी हमारी मान्‍यता है। हम भी उनके द्वारा हिंदुत्‍व की पुनीत गंगा में अवगाहन करने के सुकृत्‍य का हार्दिक अभिनंदन करेंगे। 


विश्‍व हिंदू धर्म सम्‍मेलन 


इसी महान आदर्श को दृष्टिगत रखकर हिंदू महासभा ने विश्‍व हिंदू धर्म सम्‍मेलन का आयोजन किया है, जो इसी वर्ष नई दिल्‍ली में संपन्‍न हो रहा है। सम्‍मेलन कोई दलीय प्रश्‍न नही है। किसी भी राजनैतिक मतवाद के अनुगामी वे हिंदूजन इस सम्‍मेलन में भाग ले सकेंगे जिनकी उपरोक्‍त आदर्श में आस्‍था है। मुझे आपको यह सूचित करते हुये प्रसन्‍नता हो रही है कि उपरोक्‍त  सभी देशों  तथा अफ्रीका, त्रिनिदाद, जंजीबार, फिजी, अमरीका, फिलिपिंस, पाकिस्‍तान और ब्रिटिश गियानाके हिंदुओं ने हमारे आह्वान पर इस सम्‍मेलन में भाग लेना स्‍वीकार किया है। सम्‍मेलन की स्‍वागत समिति‍ द्वारा इसकी निश्चित  तिथियों की घोषणा निकट भविष्‍य में  ही कर दी जायेगी।

हिन्‍दू धर्म


अखिल भारत  हिन्‍दू महासभा

49वां अधिवेशन पा‍टलिपुत्र-भाग:19 

(दिनांक 24 अप्रैल,1965)

अध्‍यक्ष बैरिस्‍टर श्री नित्‍यनारायण बनर्जी  का अध्‍यक्षीय भाषण 

प्रस्‍तुति: बाबा पं0 नंद किशोर मिश्र


कई लोग यह प्रश्‍न करते हैं कि हिंदुओं के विभिन्‍न  संप्रदायों में एकता का समान आधार क्‍या है और शाक्‍त, शैव, गाणपत्‍य, लिंगायत, बुद्ध मत, जैन मत तथा सिख मत इनमें से कौन सा मत हिंदुस्‍थान का राज्‍य धर्म बनेगा? भारत में जितने भी धर्मों का उद्भव हुआ है उन सभी में मृत्‍यु  के अनंतर जीवन, पुर्नजन्‍म एवं कर्मवाद तथा गौ माता  और वेदों का आदर ये सामान आधार हैं। शुचिता, धैर्य एवं  अक्रोध और इन सब से भी उपर प्रेम ये चार ही भारत में उद्भूत हुये सभी धर्मों  के समान और आवश्‍यक सिद्धांत हैं। परम पिता परमात्‍मा को सर्वव्‍यापक मानना तथा जगत की रचना को उसी की कलाकृति समझना एवं अपनी आत्‍मा में भी परमात्‍मा की अनुभूति कर, दुखों और सभी बंधनों से मुक्त्‍िा  प्राप्‍त करना ही हिंदू धर्म का लक्ष्‍य रहा है। सभी को परमपिता परमात्‍मा का अंश मानकर उनसे प्रेम करना ही हिंदू धर्म सिखाता है। 


हिंदू धर्म के अंर्तगत आने वाला प्रत्‍येक मत ही अपनी भावनाओं पर नियंत्रण तथा भौतिक सुखों से विरक्ति का ही पाठ पढ़ाता है। हिंदू धर्म में द्वैत से लेकर अद्वैत तक को स्‍थान प्राप्‍त हुआ है तथा उपरोक्‍त लक्ष्‍य की प्राप्ति हेतु किसी भी मार्ग का अवलंबन करने की स्‍वतंत्रता प्रदान की गई है। हिन्‍दू धर्म विभिन्‍न पूजा-पद्धतियों का एक सुंदर पुष्‍पकुंज है। वस्‍तुत: हिंदू नाम का तो कोई धर्म ही नहीं है। अपितु वे सभी धार्मिक विश्‍वास और पद्धतियां तथा प्रणालियां हिंदुत्‍व के अंर्तगत आ जाती हैं जिन्होंने अपने आपको इस देश के राष्‍ट्र जीवन के साथ आत्‍मसात कर देने के पथ का अनुगमन किया है। 


वे सभी व्‍यक्ति जो एक परमात्‍मा अथवा उसके अनेक रूपोंमें विश्‍वास ही नहीं करते अपितु जो उसके अस्तित्‍व को भी नही मानते किंतु यदि वे इस देश के प्राचीन हिंदू गौरव से अपने आपको पृथक नही करते तो इस हिंदू नाम के अंर्तगत आ जाते हैं। उन्‍हीं के द्वारा हिंदू राष्‍ट्र निर्मित होता है। हिंदू धर्म संसार का सबसे महान लोकतांत्रिक धर्म है। यह प्रत्‍येक व्‍यक्ति को अपनी पूजा-पद्धति का चयन करने की अनुमति देता है। इतना ही नहीं यह दूसरों के मत का  दमन ही नहीं विरोध करने से भी रोकता है।


 हमारा किसी विदेशी धर्म के साथ कोई वैर अथवा विरोध-भावना नहीं है जब तक कि वह हमारे धार्मिक विश्‍वास पर चोट नहीं करते फिर चाहे वह इस्‍लाम हो अथवा ईसाई मत। जिस भांति विज्ञान भौतिक जगत के सत्‍यों से संबद्ध है, उसी भांति हिंदू धर्म का आध्‍यात्मिक जगत के सत्‍यों से संबद्ध है, उसी भांति हिंदू धर्म का आध्‍यात्मिक जगत से संबंध है। गीता के दर्शन को सामान्‍यत: सभी हिंदू जन स्‍वीकार करते हैं। अत: वही राज्‍य धर्म का आधार हो सकता है।  

जातिवाद

अखिल भारत  हिन्‍दू महासभा

49वां अधिवेशन पा‍टलिपुत्र-भाग:18  

(दिनांक 24 अप्रैल,1965)

अध्‍यक्ष बैरिस्‍टर श्री नित्‍यनारायण बनर्जी  का अध्‍यक्षीय भाषण 

प्रस्‍तुति: बाबा पं0 नंद किशोर मिश्र


कांग्रेस सरकार द्वारा ''परिगणित जातियों'' और ''पिछड़े वर्गों'' को विशेष सुविधाएं देने के आवरण  में हिंदू जनता में जांति-पांति  की भवनाओं को उभार कर उनमें फूट का बीजारोपड़  करने के घातक प्रयास के संबंध  में भी मैं हिंदू जाति को सचेत कर देना चाहता हूं। मेरा यह अभिमत है कि इस प्रकार संरक्षण अथवा सुविधाएं जो जातिगत आधार पर दी जाती हैं वे संविधान के विपरीत हैं। इस प्रकार की योजना से निश्चित रूप से ही शिक्षा तथा प्रशासन  के स्‍तर में गिरावट ही आयेगी। इस प्रकार की सुविधाएं प्रदान करने में केवल आर्थिक स्थिति को ही दृष्टिगत रखना अभीष्‍ट है। कांग्रेस तथा भारत की कम्‍युनिस्‍ट पार्टी ने देश में एक नवीन जातिवाद का सृजन कर दिया है और यह है रा‍जनीतिक जातिवाद। यह राजनीतिक जातिवाद देश को सामाजिक जातिवाद की अपेक्षा इस राजनीतिक जातिवाद से अधिक पिसती जा रही है। 

हिन्‍दू राष्‍ट्र 


बंधुओं, हिन्‍दू राष्‍ट्र में किसी भी व्‍यक्ति को ऐसा व्‍यवहार करने की अनुमति प्राप्‍त न होगी जो हिंदू मान्‍यताओं के विपरीत हो। जिस प्रकार कि यूरोप, अमरीका तथा एशिया के ईसाई अथवा इस्‍लामी राज्‍य में किसी  भी व्‍यक्ति को राज्‍य के धार्मिक सिद्धांतों के विरूद्ध कार्य करने की अनुमति नहीं है। हिंदुओं का इस देश में बहुमत है, अत: हिंदू हितों को ही राष्‍ट्र हित के रूप में मान्‍यता प्राप्‍त होगी। स्‍वामी विवकानंद ने भी कहा है कि ''भारत में उन्‍ही लोगों के संगठित रूप को राष्‍ट्र की संज्ञा दी जा सकती है जिनके हृदय एक ही आध्‍यात्मिक वीणा के तार के स्‍वरों से झंकृत है।''


अल्‍पसंख्‍यकों को संपूर्ण देश के राष्‍ट्रहित के साथ ही अपने हितों को समन्वित करना चाहिये। आज ''राष्‍ट्रीय एकता'' के लिये सबसे बड़ा संकट 10 प्रतिशत मुस्लिम अल्‍पसंखकों को 90 प्रतिशत हिंदुओं के बराबर करने का प्रयास ही है। विभाजन के पश्‍चात भी हिंदुस्‍तान की विभिन्‍न जातियों, वर्गों, भाषाओं और क्षेत्रीय इकाइयों में संयोग का सृजन ही वास्‍तविक राष्‍ट्रीय एकता के लिये आवश्‍यक है। अल्‍पसंख्‍यकों को अपने आपको पृथक तत्‍वों के रूप में न समझकर राष्‍ट्र जीवन की पुनीत गंगा में अवगाहन करना ही होगा। हिंदुओं की सद्भावना की प्राप्ति ही भारत के अल्‍पसंख्‍यकों के जीवन और संपत्ति की सुरक्षा की वास्‍तविक प्रतिश्रुति है।

राष्‍ट्रभाषा

अखिल भारत  हिन्‍दू महासभा

49वां अधिवेशन पा‍टलिपुत्र-भाग:17  


(दिनांक 24 अप्रैल,1965)

अध्‍यक्ष बैरिस्‍टर श्री नित्‍यनारायण बनर्जी  का अध्‍यक्षीय भाषण 

प्रस्‍तुति: बाबा पं0 नंद किशोर मिश्र 

हमारा यह सुदृढ़ विश्‍वास है कि संस्‍कृत निष्‍ठ हिंदी ही भारत की राजभाषा होनी चाहिये। आज राजभाषा के रूप में अंग्रेजी को रखने की मांग की जा रही है, उसका मुख्‍य कारण यह है कि केंद्रीय सेवाओं में अहिंदी भाषा-भाषियों को कम स्‍थान प्राप्‍त होंगे ऐसी चिंता अहिंदी भाषा-भाषियों के मन में विद्यमान हैं। उनके हृदय में यह आशंका घर कर गई है कि हिंदी के राजभाषा पर पर अधिष्ठित होने से हिंदी भाषा-भाषी ही संपूर्ण देश के प्रशासन को अपने हांथों में ले लेंगे।

 अंग्रेजी को राष्‍ट्रभाषा अथवा राजभाषा के रूप में बनाये रखने के लिये जो अन्‍य तर्क प्रस्‍तुत किये जाते हैं वे उपहासास्‍पद और असद् उद्देश्‍यों से प्रेरित हैं। यह तथ्‍य तो असंदिग्‍ध है कि हिंदी ही भारत के अधिकांश प्रदेशों में बोली और समझी जाती है और इसी भाषा को यह एकमात्र लाभ उपलब्‍ध है कि अहिंदी भाषा-भाषी अंचलों में यह समझी जाती है। किंतु भारत सरीखे विशाल देश में जहां 14 क्षेत्रीय भाषाएं हैं (जिनमें से अनेक में अन्‍य उपभाषाएं भी हैं) यह आवश्‍यक है कि एक से अधिक भाषा को राष्‍ट्र और राजभाषा के रूप में उस समय तक स्‍थान दिया जाये जब तक कि संपूर्ण राष्‍ट्र अपनी सहमति से एक भाषा को प्रशासन कार्य के लिये स्‍वीकार न कर ले। 


आधुनिक विज्ञान और शिल्‍प-विज्ञान के माध्‍यम तथा एक भाषा के रूप में अंग्रेजी की स्थिति को बहुत अधिक बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्‍तुत किया जाना निरर्थक है। वैज्ञानिक और शिल्‍प-विज्ञान में लगे लोगों को अंग्रेजी को अपने कार्यों में उपयोग करने दिया जाये, किंतु जनसाधारण पर इसे नहीं थोपा जाना चाहिये। जर्मनी, फ्रांस, सोवियत रूस,चीन, जापान ही नहीं अपितु सभी अंग्रेजी न बोलने वाले प्रगतिशील देशों ने अंग्रेजी न सिखते हुये भी विज्ञान और शिल्‍प-विज्ञान के क्षेत्र में  महत्‍वपूर्ण योगदान दिया है। यदि भारत में अंग्रेजी को जारी रहने दिया गया तो अंग्रेजों के  राजनैतिक शासन का अंत हो जाने पर भी भारत पर उनकी सांस्‍कृतिक विजय का कार्य पूर्ण हो जायेगा। स्‍वतंत्र भारत को अंग्रेजी भाषा को जारी जारी रखने तथा उससे हिंदुओं पर पड़ने वाले प्रभावों के संबंध में भी पुनर्विचार  करना होगा। 


वेदों का अनुवाद करने वाले मैक्‍समूलर तथ लॉर्ड मैकाले के दो पत्रों से यह तथ्‍य स्‍पष्‍ट हो जायेगा कि भारत में अंग्रेजी शिक्षा को प्र‍चलित  करने वालों की वास्‍तविक आकांक्षाएं क्‍या थीं।
मैक्‍समूलर ने 1866 में अपनी पत्‍नी को लिखा था-''.........फिर भी मेरा यह संस्‍करण और ऋग्वेद का अनुवाद एक बड़ी सीमा तक इस देश के भाग्‍य और लाखों लोगों के उत्‍थान को प्रभावित करेगा। यही उनके धर्म का मूल है और यह बताने के लिये कि वह मूल क्‍या है, मैं यह सुनिश्चित मानता हूं कि इस कार्य का एकमात्र मार्ग उस सब को निर्मूल कर देना है जो कुछ इससे विगत 3000 वर्ष में उद्भूत हुआ है।''(मैक्‍समूलर का जीवन और उसके पत्र)


ईस्‍ट इंडिया कम्‍पनी तथा भारत की नवीन परिषद ने बड़ी उदारता सहित मैक्‍समूलर को ऋग्‍वेद तथा अन्‍य वेदों का अनुवाद करने में सहायता प्रदान की। जिससे हिंदुओं का धार्मिक विश्‍वास लड़खड़ा सके और उनको ईसाई मत में दीक्षित करने में सुगमता हो सके।


''बहुत वर्षों से भारत के प्रबुद्ध वर्ग के हिंदुओं के धर्मांतरण में प्राध्‍यापक बहुत अधिक रूचि ले रहे हैं। विगत कुछ मास से जबसे कि वे रूग्‍ण हैं ऐसा प्रतीत होता  है कि उनके मस्तिष्‍क में यही विचार बद्धमूल  होता जा रहा है।''(मैक्‍समूलर का जीवन तथा पत्र खण्‍ड 2 पृष्‍ठ 418)
उपरोक्‍त पुस्‍तक के अन्‍य उद्धरण से यह स्‍पष्‍ट हो जाएगा कि मैक्‍समूलर सरीखे प्रमुख विद्वानों द्वारा हमारी धर्म-पुस्‍तकों का अंग्रेजी में अनुवाद कराने के पीछे ब्रिटिश लोगों की कौन-सी आकांक्षाएं क्रियाशील थीं।''


''आपका कार्य भारत में धर्मांतरण के प्रयासों में नवयुग का सृजन करेगा और ऑक्‍सफोर्ड उचित रूप से ही आपका आभारी रहेगा। आपको एक स्‍थान देकर इसने एक मूल एवं चिरस्‍थायी महत्‍व के कार्य को प्रश्रय दिया है और वह है भारत का धर्मांतरण। जिससे कि हमको पुराने किंतु मिथ्‍याधर्म के साथ वास्‍तविक धार्मिक स्‍वरूप की तुलना करने का अवसर उपलब्‍ध हो सकेगा जो इस शुभाशीष से भी बड़ा वरदान सिद्ध  होगा जो आप हमें प्राप्‍त है।(पृष्‍ठ 430)


बोल्‍डन पीठ के संस्‍थापक श्री बोल्‍डन  द्वारा 1814 ई0 में 15 अगस्‍त को जो वसीयत लिखी गई थी उसमें सुस्‍पष्‍ट रूप से यह उल्‍लेख है कि संस्‍कृत ग्रंथों के अनुवाद को प्रोत्‍साहन देने के लिये इतनी विपुल राशि दान स्‍वरूप देने का उद्देश्‍य यही है कि उनके देशवासी भारत की जनता को ईसाई धर्म में दीक्षित करने की दिशा में प्रवृत्‍त हो सके। (सर विलियम जोन द्वारा लिखित अंग्रेजी-संस्‍कृत शब्‍दकोष की प्रस्‍तावना)
लार्ड टी0 बी0 मैकाले ने कलकत्‍ता से 12 अक्‍टूबर 1836 ई0 को अपने पिता को कलकत्‍ता से पत्र लिखा था। जिसमें उन्‍होंने कहा था: ''......इस शिक्षा का हिंदुओं पर पर विलक्षण  प्रभाव हुआ है। कोई भी हिंदू जिसने अंग्रेजी शिक्षा ग्रहण की है वह अपने धर्म के प्रति हृदय से निष्‍ठावान नही रह पाता। कुछ लोग केवल नीतिमात्र के कारण इसका दम भले ही भरते रहे हों किंतु बहुत से लोग अपने आपको विशुद्ध ईश्‍वरवादी कहने लग जाते हैं, तथा अनेक ईसाईयत को स्‍वीकार ही कर लेते हैं। 


मेरा यह सुनिश्चित मत है कि यदि हमारी शिक्षा-संबंधी नीति क्रियान्वित की गई तो  30 वर्ष में  बंगाल के संभ्रांत परिवारों में एक भी मूर्तिपूजक नही रह जायेगा। और यह संपूर्ण  कार्य बिना धर्मांतरण धार्मिक स्‍वतंत्रता  में तनिक सा भी हस्‍तक्षेप न करते हुए केवल स्‍वाभिवक रूप से ज्ञान के  प्रवाह मात्र से ही संपन्‍न हो जायेगा। मुझे अब तक जो सफलता प्राप्‍त हुई है, उस पर मुझे हार्दिक प्रसन्‍नता है। (लार्ड मैकाले का जीवन चरित्र पत्र पृष्‍ठ 329-330)
मेरा यह मत है कि भारत की शिक्षित  और प्रबुद्ध जनता में संस्‍कृत के गत गौरव का पुनरूद्धार किया जाना चाहिये। व्‍यावहारिक दृष्टि  से तो भारत की लगभग सभी क्षेत्रीय भाषाओं का प्रेरणा-स्रोत संस्‍कृत ही है। इसके साथ ही हिंदू धर्म, हिंदू दर्शन तथा संस्‍कृति संबंधी साहित्‍य संस्‍कृत में ही उपलब्‍ध है। आज भी  भारत के एक छोर  से दूसरे छोर तक निवास  वाला प्रत्‍येक हिंदू चाहे वह उत्‍तर में निवास करता हो या दक्षिण भारत में और चाहे पश्चिम में रहता हो अथवा पूर्वी  भारत में अपने संपूर्ण धार्मिक कार्य एवं पूजा-पाठ संस्‍कृत  स्‍त्रोतों द्वारा ही संपन्‍न करता है। मैं तो उस शुभ दिवस को देखने के  लिये लालायित हूं जब भारत भर में सभी दीक्षांत समारोह तथा अन्‍य समारोह उस संस्‍कृत भाषा के माध्‍यम से ही संपन्‍न हुआ करेंगे जो युग-युग से भारत की एकता की महान् शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित रही है। 


किंतु मित्रों, जब हमारी पावन मातृभूमि की सभी सीमाओं पर शत्रुओं द्वारा गोली वर्षा की जा रही है तथा हमारी स्‍वतंत्रता के लिये ही संकट उत्‍पन्‍न कर दिया गया है तो इन प्रश्‍नों पर अधिक विचार करना अपेक्षित नहीं है।