अखिल भारत हिन्दू महासभा
49वां अधिवेशन पाटलिपुत्र-भाग:8
(दिनांक 24 अप्रैल,1965)
अध्यक्ष बैरिस्टर श्री नित्यनारायण बनर्जी का अध्यक्षीय भाषण
प्रस्तुति: बाबा पं0 नंद किशोर मिश्र
अभी भी देश की जनता का एक बड़ा भाग इतना स्वार्थी नहीं हो पाया है कि राष्ट्रहित की पूर्णत:उपेक्षा कर दे। यह प्रचण्ड जनसमुदाय आज भी राष्ट्र और देश की अखण्डता की पावन वेदी पर अपना सर्वस्व समर्पित कर देने का उद्यत है। वस्तुत: ऐसे लोग ही सही अर्थों में राष्ट्रवादी हैं। वे ही देश में तृतीय शक्ति हैं, वे न तो पूंजीवादी हैं न साम्यवादी। वे जनसाधारण हैं, जनता हैं और मध्यमवर्गीय लोग हैं जो भलीभांति संगठित नही हो पाये हैं। मैं यह भी मानता हूं कि भारत के कुछ मुसलमान भी इनके साथ हैं। किन्तु लोकतंत्र में बहुमत का ही महत्व है। 97 प्रतिशत मुस्लिम मतदाताओं ने पाकिस्तान के पक्ष में मतदान किया था और 1945 में मुस्लिमलीग के मांग का समर्थन किया था। अत: उन्हें निश्चित रूप से ही कल्पना लोग में जाना चाहिये और तीन प्रतिशत राष्ट्रवादी मुसलमानों को भी बहुमत का अनुकरण करना चाहिये। इस राष्ट्रवादी शक्ति के संगठन का महत्वपूर्ण कार्य हो हिंदू महासभा का पावन दायित्व है।
जनसंख्या विनिमय
1952 ई0 से अब तक 1 करोड़ 80 लाख हिंदुओं में से विगत 12 वर्ष के कालखण्ड में एक करोड़ हिंदू पाकिस्तान से भारत आ चुके है। हिंदू महासभा चाहती है कि पाकिस्तान में जो हिंदू अभी भी रह गये हैं उन्हें भी सकुशल भारत ले आया जाये और उनके बदले भारत से 5 करोड़ मुसलमानों का विनिमय शांतिपूर्ण ढंग से, बिना किसी प्रकार के रक्तपात के सरकारी स्तर पर कर दिया जाये, अर्थात् उन्हें पाकिस्तान भेज दिया जाये। यह मांग किसी दुर्भावना पर आधारित नहीं अपितु वास्तविकता और आंकड़ों तथा तथ्यों पर आधारित है। इस प्रकार देश की सुरक्षा तो होगी ही साथ ही स्थायी शांति की स्थापना भी हो सकेगी।
अब भारत के मुसलमानों ने पुन: हिंदुओं के प्रभुत्व की चीख-पुकार आरम्भ कर दी है और वे सेवाओं, विधानमण्डलों, व्यापार तथा उद्योगों आदि में कोटा दिये जाने की मांग के गड़े मुर्दे उखाड़ रहे हैं। उन्होंने अब उर्दू को देश की राष्ट्रभाषा बनाये जाने के राग भी अलापने आरंभ कर दिये हैं। इतना ही नहीं अपितु अब भारत में केवल दो मुस्लिम लीग ही क्रियाशील नही हैं अपितु अन्य कई पाकिस्तान समर्थक संगठन भी इन मांगो का समर्थन कर रहे हैं।
कतिपय प्रमुख कांग्रेसी और कम्युनिस्ट नेता भी मुसलमानों की इन मांगों पर उनकी पीठ थपथपा रहे हैं। पिछने दिनों दुर्गापुर में कांग्रेस का जो अधिवेशन हुआ, उसमें 9 जनवरी,1965 को मुस्लिम कांग्रेसी नेताओं ने अपनी पृथक बैठक का अयोजन किया, जिसमें उन्होंने अपने अधिकारों और विशेषाधिकारों के संबंध में चर्चा और विचार-विमर्श किया। गतवर्ष नवंबर मास में एक कांग्रेसी सदस्य डॉक्टर सैयद महमूद के नेतृत्व में दिल्ली में जो मुस्लिम सम्मेलन आयोजित हुआ उसे प्रधानमंत्री, गृहमंत्री तथा कतिपय राज्यपालों ने भी अपना आर्शीवाद प्रदान किया। इस सम्मेलन में भी उपरोक्त मांगों के ही स्वर गुंजित हुये।
वस्तुत: आज भी तथाकथित धर्म-धर्मनिरपेक्ष नेताओं और दलों के मस्तिष्क में द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत की भावना हिलोरे ले रही हैं। विधायकों की नामजदगियां, न्यायपालिका और कार्यपालिका में अधिकारियों की नियुक्तियां करते समय भी कांग्रेस सरकार द्वारा सांप्रदायिक मनोभावनाओं के साथ काम लिया जाता है, जब कि वह दूसरों पर सांप्रदायिकता का मिथ्या दोषारोपण करने का कोई भी अवसर हाथ से नहीं जाने देती।
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