आरएसएस की नाक तले जिन्ना से आगे की बिसात बिछा दी गडकरी ने
पुण्य प्रसून वाजपेयी
या तो राष्ट्रीय स्वयसेवक संघ ने खुद को बदल लिया है या फिर बीजेपी अध्यक्ष नीतिन गडकरी की चुनावी बिसात ने सत्ता के लिये पहली बार संघ की विचारधारा को ही रिज कर दिया है। हो जो भी लेकिन आरएसएस के गढ़ नागपुर में ही नगरपालिका में अपनी सत्ता के लिये जो मास्टरस्ट्रोक नीतिन गडकरी ने खेला है, उसने कांग्रेस तक की हवा निकाल दी है। बीजेपी और मुस्लिम लीग एक साथ कैसे खड़े हो सकते हैं और संघ की विचारधारा ही नहीं बल्कि संघ के स्वयंसेवकों की जमात के साथ मुस्लिम लीग के पार्षद भी सत्ता में एक साथ भागीदारी कर सकते है, इसका नजारा नागपुर नगरपालिका में देखा जा सकता है। असल में 145 सदस्यों वाले नगर पालिका में बहुमत के लिये बीजेपी [ 62 ] और शिवसेना [6] पार्षद को जोड़ भी बहुमत से 5 सीट पीछे था। तो सत्ता के लिये गडकरी ने शिवसेना को दरकिनार कर दस निर्दलीय पार्षद और मुस्लिम लीग के दो पार्षदों के साथ मिलकर 74 की संख्या के जरीये सत्ता पर दावेदारी ठोंक दी।
खास बात यह भी है गडकरी ने यह समूची बिसात ही कुछ इस तरह बिछायी, जिससे संघ परिवार के भीतर पहला संकेत यही जाये कि संघ की सोच को नागपुर में जब तक मान्यता नहीं मिलेगी तबतक देश का रास्ता नापने की सोचना सपने से आगे का किस्सा नहीं है। इसलिये मुस्लिम लीग के पार्षदों के समर्थन पर आरएसएस के भीतर जबतक सवाल उठते तबतक सरसंघचालक मोहन भागवत ने इस पर खामोशी बरतने के संकेत दे दिये। ऐसे में नागपुर में संघ मुख्यालय के भीतर बैठा वह तबका, जिसने कभी जिन्ना को लेकर लालकृष्ण आडवाणी को बाहर का रास्ता दिखाने की कवायद की थी, वह भी गडकरी के इस कदम पर कदमताल नहीं कर सका। जबकि बीजेपी के 62 पार्षदों में 27 पार्षद तो खांटी संघ के स्वयंसेवक हैं और जिन्ना के सवाल पर आडवाणी के खिलाफ खुले तौर पर यह कहते हुये विरोध कर रहे थे कि संघ ने जब हिन्दुत्व का सवाल ही जिन्ना विरोध का साथ खड़ा किया तो आडवाणी के जिन्ना प्रेम को कैसे मान्यता दी जा सकती है।
दरअसल, आरएसएस के भीतर आज भी इस बात को लेकर कही ज्यादा गुस्सा है कि दिल्ली में बैठे स्वयसेवक जो बीजेपी के मंच से राजनीति करते हैं, वह संघ को कोई महत्व ही नहीं देते हैं। ऐसे में गडकरी की बिसात के पीछे संघ का वह धड़ा भी चल पड़ा है जो बीजेपी की राजनीति को तो संघ के लिये घातक मानता है लेकिन गडकरी के जरीये राजनीति की अपनी परिभाषा गढने में मजा ले रहा है। क्योंकि इससे नागपुर के स्वयंसेवक का कद बढ़ रहा है। लेकिन संघ के भीतर की इस कवायद के साथ साथ नागपुर के जमीनी हालात संघ की विचारधारा तले मुस्लिम लीग के साथ खड़े होने से कैसे बदल रहे हैं, यह गडकरी की 2014 के लिये खुद के लोकसभा चुनाव का रास्ता बनाने की कवायद से समझा जा सकता है। 6 दिसबंर 1992 में जब अयोध्या में संघ के स्वयंसेवक जुटे और बाबरी मस्जिद ढहायी गई तब संघ मुख्यालय में तब के सरसंघचालक देवरस ने अयोध्या के जरीये संघ परिवार में एकजुटता देखी। और इस रास्ते को सही करार दिया। जिसका पहला विरोध नागपुर में संघ मुख्यालय से महज दो किलोमीटर दूर मुस्लिम बहुल इलाके मोमिनपुरा में शुरु हुआ। 6 दिसंबर को मोमिनपुरा के मुस्लिम सिर्फ विरोध प्रदर्शन करते हुये मुख्य सड़क तक आना चाहते थे। लेकिन तब के पुलिस कमिश्नर ईनामदार ने फायरिंग के आदेश दे दिये। इस हादसे में 13 मुस्लिम मारे गये और उस घटना के बाद से कभी बीजेपी के किसी भी उम्मीदवार [पार्षद से लेकर विधायक और सांसद तक] ने मोमिनपुरा जाने की हिम्मत नहीं दिखायी।
लेकिन बीस बरस बाद 2012 में पहली बार नीतिन गडकरी ने मोमिनपुरा के मुस्लिम चेहरे जैतुन बी अंसारी को बीजेपी के साथ जोड़ा और चुनाव में बतौर बीजेपी पार्षद जीत दिला दी। जैतुन बी मुस्लिम लीग छोडकर बीजेपी में शामिल हुईं। अगली कवायद में गडकरी ने मोमिनपुरा-गांधीबाग से जीते मुस्लिम लीग के इशरत अंसारी और जनगर टेका से जीते असलम खान को सत्ता के लिये बीजेपी गठबंधन का हिस्सा बना लिया। यानी जो संघ कभी सोच भी नहीं सकता है कि उसकी अपनी जमीन जिस विरोध के उपर बनी उसी जमीन के साथ उसे सत्ता में भागेदारी भी करनी पड़ेगी। क्या यह संघ की विचारधारा के खत्म होने की शुरुआत है या फिर संघ की नयी राजनीतिक धारा बनने की शुरुआत। क्योंकि नागपुर आरएसएस को बनाने वाले हेडगेवार की जमीन होने के बावजूद यहा पर कभी जनसंघ या बीजेपी का वर्चस्व नहीं रहा। लोकसभा में बीजेपी की हार के पीछे नागपुर के वोटरों का गणित है जो संघ समर्थित किसी उम्मीदवार को जीतने दे नहीं सकता। क्योंकि 18 लाख वोटरों में करीब साढ़े चार लाख दलित तो चार लाख मुस्लिम वोटर है। और यह गणित बीजेपी को यहा से जीत दिला नहीं सकता है। ऐसे में पहली बार नागपुर के नीतिन गडकरी का कद भी दिल्ली में तभी बढ़ सकता है जब नागपुर से वह लोकसभा चुनाव जीत लें। गडकरी इस हकीकत को समझते हैं कि वह नागपुर में विधानसभा चुनाव भी नहीं जीत पाये हैं। इसलिये संघ के उपर यह दाग भी है कि जो शखस विधानसभा चुनाव नहीं जीत सकता उसे बीजेपी का अध्यक्ष बनाकर संघ ने अपनी हेकड़ी ही दिखायी है।
ऐसे में 2014 के चुनाव में लोकसभा का चुनाव जीतकर गडकरी अपने कद को बढ़ाना भी चाहते है और दिल्ली की सियासत में मान्यता भी चाहते हैं। इसलिये नागपुर के तमाम मुस्लिम बहुल इलाके मोमिनपुरा से लेकर हसनबाग और सक्करधरा से लेकर जाफरनगर तक में बीजेपी पार्षदों की जीत के साथ मुस्लिम वोटबेंक को साथ लेने की नयी बिसात गडकरी ने बिछायी है। यह बिसात आने वाले वक्त में कांग्रेस के लिये कितनी घातक साबित हो सकती है संयोग से इसके संकेत भी नगरपालिका चुनाव में कांग्रेस के एकमात्र मुस्लिम उम्मीदवार की हार ने दे दिये। यानी पहली बार मुस्लिम बहुल इलाके में कांग्रेस का मुस्लिम उम्मीदवार हारा और बीजेपी का मुस्लिम उम्मीदवार जीत गया ।
जिसे नागपुर में संघ के स्वयंसेवकों ने अयोध्या पर मुस्लिमों के बदलते रुख से तौला वही मुस्लिमों मे यह सवाल खड़ा हुआ कि आने वाले वक्त में अपने अनुकुल रास्ता उन्हें खुद ही बनाना होगा और नगरपालिका की सत्ता में बीजेपी के साथ खड़े होकर नागपुर के पिछड़े मुस्लिम बहुल इलाकों का विकास करना होगा। इसलिये गडकरी से मुस्लिम लीग ने सौदेबाजी यही की नगरपालिका की स्टेडिंग कमेटी में उनका पार्षद भी सदस्य होगा। और जिस पर गडकरी ने मोहर भी लगा दी। ऐसे में दिल्ली से संघ को राजनीति का आइना दिखाने वाले बीजेपी के कद्दावर नेता हो संघ के पुराने कट्टर हिन्दुवादी स्वयंसेवक उन्हें संघ की यह नयी राजनीतिक परिभाषा रास नही आ रही है।
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