२६ फरवरी, वीर सावरकर की पुण्यतिथि पर जयंती पर विशेष उपलक्ष्य में
- अरविन्द सीसौदिया प्रस्तुति: डॉ0 संतोष राय
नामर्दी के बुतों को चौराहों से उतार फैंकना होगा,
देश को दिशा दे सकें, वें तस्वीरें लगानी होगी।
उन विचारों को खाक पढ़े, जो कायरता में डूबे हों,
पढें वह,जो ज्वालामुखी सा तेज हर ललाट पर लाये।
स्वतंत्रता संग्राम में क्रांतिकारियों की भूमिका न केवल महत्वपूर्ण थी, अपितु अंग्रेजों की असल नींद हराम इसी रास्ते पर चले महान योद्धाओं ने की थी। स्वातंत्र्यवीर विनायक दामोदर सावरकर इस यशस्वी श्रृंखला की एक प्रमुख कडी थे। उनके ओजस्वी लेखन से ब्रिटिश सरकार कांपती थी। उन्हंे राजद्रोह के अपराध में, दो जन्मों की कैद की सजा सुनाई गई थी, अर्थात कम से कम 50 वर्ष उन्हें काले पानी की जेल में कोल्हू फेरते-फेरते और नारियल की रस्सी बनाते-बनाते बिताने थे।
महाराष्ट्र के नासिक जनपद में एक छोटा सा स्थान भगूर है। इसी में दामोदर पंत सावरकर एवं उनकी धर्मपत्नि राधादेवी के चार संताने थीं। बडे पुत्र का नाम गणेश, दूसरे का नाम विनायक तीसरा के नाम नारायण था एवं पुत्री थी मैना। ये तीनों पुत्र महान स्वतंत्रता सैनानी हुये। माता-पिता का निधन बचपन में ही प्लेग की महामारी में हो गया था, विनायक 28 मई 1883 को जन्में तथा विवाह यमुना के साथ हुआ था। उनके एक पुत्री प्रभात एवं एक पुत्र विश्वास था।
सावरकर में विलक्षण तर्क शक्ति थी, उन्हें महाभारत के योगेश्वर कृष्ण अत्यधिक प्रिय थे। गीता को उन्होंने अपना आर्दश माना था, उनकी स्पष्ट मान्यता थी कि यदि हिन्दुओं ने गीता के ज्ञान को विस्मृत नहीं किया होता और शत्रु के प्रति अपने कर्तव्य को ईमानदारी से निभाया होता,तो हम शत्रु संहार में प्रभावी रूप से सफल रहे होते..!
ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया के शासन का स्वर्ण - जयंति महोत्सव मनाया जा रहा था, वहीं महाराष्ट्र अकाल एवं भंयकर प्लेग की चपेट में था,मक्खी-मच्छरों की तरह 1 लाख 73 हजार भारतवासी प्लेग से मौत के मुँह में समा चुके थे, प्लेग कमिश्नर रेण्ड और उनके सहायक आर्मस्ट जनता के ऊपर प्लेग के बहाने अत्याचार ढहा रहे थे, महिलाओं के शीलभंग किये जा रहे थे।
लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक का अखबार केसरी अंग्रेज अत्याचारों के विरूद्ध आग उगल रहा था। अंग्रेज शासन इनकी चिन्ता के बजाये खुशियां मनाने में व्यस्त था, देशभक्तों का खून खौल उठा, व्यायाम मंडल ने प्लेग कमिश्नर रेण्ड और उनके सहायक आर्मस्ट को गोली से उड़ा दिया। फलस्वरूप व्यायाम मंडल संचालक दामोदर हरि चाफेकर और बालकृष्ण हरि चाफेकर बंधुओं को फांसी पर लटका दिया गया, इसी संघर्ष में वासुदेव हरि चाफेकर और महादेव विनायक रानाडे को भी फांसी दे दी तथा तिलक जी को 18 माह की सजा लोगों को भड़काने का आरोप लगा कर दी गई। इस संघर्ष में चाफेकर परिवार का दीपक ही बुझ गया था....तीनों भाई राष्ट्र के लिये बलिदान हो गये..! इस घटना ने सावरकर सहित महाराष्ट्र के युवाओं की दिशा ही बदल दी, विनायक ने मात्र 15 वर्ष की आयु में संकल्प लिया कि वे चाफेकर बंधुओं के राष्ट्र धर्म के मार्ग को आगे बढ़ायेंगे और सावरकर परिवार के भी तीनों भाईयों ने राष्ट्र के लिये जेलें भोगीं।
उन्होंने किशोरवय में व्यायाम मंडल की तरह ”मित्र-मैला“ के नाम से राष्ट्रभक्ति की साप्ताहिक गोष्ठियां कीं, जो क्रांतिकारियों का प्रमुख केन्द्र बन गयीं थीं। युवा होेते ही ”अभिनव भारत“ नामक गुप्त क्रांतिकारी संगठन खड़ा किया, जिसका काम महाराष्ट्र, कर्नाटक, मध्यप्रदेश और लंदन तथा पैरिस में प्रमुख रूप से फैला।
रौलट कमेटी की रिर्पोट के अनुसार भारत में संगठित आतंकवादी आंदोलन ;राष्ट्रवादी क्रांतिकारीद्ध का आरम्भ महाराष्ट्र से हुआ, जिसके आरम्भ का श्रेय चाफेकर बंधुओं के बलिदान को जाता है। जिसे देश एवं विदेश में विनायक दामोदर सावरकर के कारण विस्तार मिला....!
दशहरे पर होली....
वे 1905 में पुणे के फर्ग्युसन कालेज के छात्रावास में रहते हुए अध्ययनरत थे, उन्होंने अपने साथियों के साथ बंगभंग के विरोध में, दशहरे पर विदेशी कपड़ों की होली जलाई, जिसमें लोकमान्य बालगंगाधर तिलक भी सम्मिलित हुए थे। कालेज प्रशासन ने उनकी बी.ए. की उपाधी छीन ली। इसी तरह विलायत में भी देशभक्ति के जुर्म के कारण, उन्हें बेरिस्टरी की सनद नहीं दी गईं।
स्वतंत्रता का पहला आगाज: स्टुटगार्ड में तिरंगा
1906 में सावरकर जी लंदन में बैरिस्टरी की शिक्षा प्राप्त करने गये थे, वहां वे प्रसिद्ध क्रांतिकारी श्यामकृष्ण वर्मा, मादाम भीखाजी रुस्तम कामा, मदनलाल धींगड़ा के सम्पर्क में आये। वे इण्डिया हाऊस छात्रावास में रहते थे। सावरकर ओजस्वी विचारों एवं लेखन क्षमता के बल पर लंदन के क्रांतिकारियों के नेता हो गये थे। उन्होंने छात्रों को एकत्र कर विक्टोरिया राज की छाती पर भारतीय स्वतंत्रता की आवाज बुलंद करने का निर्णय लिया और ‘‘फ्री इण्डिया सोसायटी’’ की स्थापना की। उन्हीं की सलाह पर मैडम कामा ने स्टुटगार्ड में हुए अन्तर्राष्ट्रीय समाजवादी सम्मेलन में भारत का अलग तिरंगा ध्वज फहरा कर विक्टोरिया साम्राज्य से अलग अस्तित्व का आगाज किया था...! इस तिरंगे की ऊपरी पट्टी में पांच तारे, बीच की पट्टी में वन्दे मातरम् और नीचे की तीसरी पट्टी के एक ओर सूर्य और दूसरी ओर चन्द्रमा था।
ओजस्विता का ज्वालामुखी
सावरकर पर इटली के एकीकरण की घटना का गहरा प्रभाव पड़ा, इस क्रांति के महानायक जोसेफ मैजिनी और गेरीबाल्डी ने भारतीय राष्ट्रभक्ति को उत्साहित किया, उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता समर का धधकाने के लिये, इंग्लैण्ड में मैजिनी चरित्र लिखा, इसे छपवाने के लिए भारत भेजा, अप्रकाशित पाण्डुलिपी को लोकमान्य बालगंगाधर तिलक जी ने पढ़ा। वे इस पुस्तक की औजस्विता और तेजस्वितापूर्ण शैली से बहुत प्रभावित हुए, उन्होंने कहा था ”यह पुस्तक भारत के किसी भी युवक को स्वातंत्र्यवीर बना सकती है। यदि ब्रिटिश सरकार के हाथ यह पाण्डुलिपि पड़ गई तो वह इसे अवश्य ही जब्त कर लेगी।“ उनकी भविष्यवाणी सच साबित हुई, ”जोसेफ मैजिनी“ पर लिखी इस पुस्तक को जब्त कर लिया गया।
इसी तरह उन्होंने सिखों का इतिहास पुस्तक लिखी थी, जिसे प्रकाशित होने से पूर्व ही ब्रिटिश सरकार ने भनक मिलते ही डाक से गड़बड़ करके जब्त कर लिया गया।
उन्हीं दिनों 1857 के गदर के 50 वर्ष पूर्ण होने जा रहे थे, उस समय तक ब्रिटिश सरकार 1857 की घटना को सिपाहियों का मामूली सा विद्रोह कह कर महत्वहीन बनाने पर तुली थी तो, सावरकर जी की क्रांतिकारी संस्था अभिनव भारत ने इस अवसर को वर्तमान में चल रहे स्वतंत्रता समर में उर्जा प्रदान करने के अवसर के रुप में उपयोग की ठानी। लंदन में भारतीय छात्रों ने जोर शोर से 10 मई 1907 को स्वर्ण जयन्ति मनाई। सावरकर जी ने इस अवसर पर ‘ओ शहीदों’ नामक पर्चा निकाला। 1857 के बलिदानी महारानी लक्ष्मीबाई, मंगल पाण्डे, तांत्या टोपे, कुंवर सिंह आदी को श्रद्धांजली दी गई और स्वातंत्र्य शपथ ली। सावरकर के विचारों से प्ररित होकर उनके साथी मदनलाल धींगरा ने भारत सचिव ए.डी.सी.कर्नल सर वाईली की गोली मार कर हत्या कर दी, उन्हें मृत्यु दण्ड दिया गया। दुर्भाग्यवश इस घटना की निंदा आगा खां की अध्यक्षता में हुई शोक सभा में की गई जिसमें अंग्रेजों की जी हजूरी करने वाले भारतीय पहुंचे, मगर सावरकर के विरोध से शोकसभा में शोक प्रस्ताव पारित नहीं हो पाया।
उनके बड़े भाई गणेश सावरकर जो बाबा के नाम से जाने जाते थे, के कंधों पर परिवार की जिम्मेवारी होने से, वे सीधे क्रांतिकारी गतिविधियों में भाग न लेकर गुप्त रूप से भारत में अभिनव भारत के क्रांतिकारियों की भरपूर मदद करते थे। मूलतः माना जाता है कि महाराष्ट्र के क्रांतिकारियों की बागडोर उनके हाथ में थी। अभिनव भारत सशस्त्र क्रांति के अलावा वैचारिक क्रांति पर भी अधिक जोर देता था।
पुस्तक ‘1857 का प्रथम स्वातंत्र्य समर’ का प्रकाशन इग्लैंड में संभव नहीं था, पांडुलिपि बड़े भाई बाबा को भारत भेजी गई, बाबा ने काफी कोशिशों के बाद महसूस किया कि यह पांडुलिपी भारत में अंग्रेजों के हाथ पड़ सकती है तथा इसको अंग्रेजी में अनुवाद करवा कर छपवाया जाये तो यह पुस्तक सम्पूर्ण विश्व में भारतीय पक्ष में जनमत तैयार करने का काम करेगी, अंततः इसको फ्रांस में अंग्रेजी अनुवाद कर छपवाया गया।
धीरे-धीरे प्रकाशित प्रतियाँ भारत में आने लगी। अंग्रेजों ने पुस्तक प्रतिबंधित कर दी, विनायक सावरकर के बड़े भाई गणेश सावरकर उर्फ बाबा को भारत में गिरफ्तार कर लिया। पुस्तक के प्रकाशन की जिम्मेवारी उनके ऊपर डालते हुए राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया और आजीवन कारावास की सजा सुना कर काले पानी भेज दिया।
जिस अंग्रेज अधिकारी जैक्सन ने यह सजा सुनाई थी, उसे अभिनव भारत के क्रांतिकारी अनंत लक्ष्मण कन्हारे ने गोली मारकर हत्या कर दी थी। विनायक सावरकर को भी लंदन में गिरफ्तार कर उन पर अवैद्य रूप से भारत में पिस्तोलें एवं कारतूस भेजने का आरोप लगाया, वे जिस जहाज से भारत भेजे गये, उसके टोयलेट होल से समुद्र में कूद गये और तैर कर फ्रांस तट पहुँचे, दीवार फांद कर फ्रंास में प्रवेश कर गए, मगर फांसीसी सैनिकों की नासमझी से उन्हें फिर गिरफ्तार कर लिया गया। उन पर नासिक षड़यंत्र के आरोप में आजीवन निर्वासन की सजा दी गई, उन पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया तथा विश्व में वे पहले ऐसे सजायाफ्ता थे जिन्हें दो जन्मों की कैद की सजा सुनाई गई हो अर्थात कम से कम 50 वर्ष उन्हें काले पानी की जेल! अंग्रेज की हेग न्यायालय ने सजा देते हुए कहा था कि मौत की सजा देने से उतना दंड नहीं मिल सकता जितना बड़ा राजद्रोह का अपराध सावरकर ने किया है । इसलिए दो जन्मों का सश्रम कारावास की सजा दी जाती है । उनके तीसरे भाई डॉ. नारायण सावरकर को भी लार्ड मिण्टो बम कांड में सजा हो गई थी।
आजादी का र्तीथ: कालापानी
कलकत्ता से 1400 किलोमीटर और चैन्नई से 1300 किलोमीटर सुदुर हिन्द महासागर का एक छोटी सी टापू श्रंखला अंडमान निकोबार द्वीप समूह स्थित है। भारत से इतनी अधिक दूर स्थित यह स्थान भारतीय स्वतंत्रता की तीर्थस्थली है, हाल ही में इसके हवाई अड्डे का नाम वीर सावरकर हवाई अड्डा रखा गया है। इससे पहले इसे राष्ट्रीय स्मारक का दर्जा भी दिया जा चुका है। खूंखार और अंग्रेजों पर भारी पड़ने वाले विद्रोहियों को यहाँ की सैलूलर जेल में रखा जाता था। इसका निर्माण 1896 में प्रारम्भ होकर 1906 में पूरा हुआ था, इसमें 10 गुणा 7 की 696 कोठरियां है, यहां कैदियों से 12 से 18 घंटे तक कोल्हू चलवा कर तेल निकलवाया जाता था तथा नारियल के रेशे कुटवा कर रस्सी बनवाई जाती थी। हालांकि इस जेल में राष्ट्रभक्तों के जत्थे सजा पाकर पहुँचते ही रहे, मगर तीन दौर अत्यंत महत्वपूर्ण थे, 1906 से 1914, 1916 से 1920 और 1932 से 1938 जब जेलों की कोठरियों में “वंदेमातरम्“ और ”सरफरोशी की तमन्ना“ की लहरियां गूंजती थी। उष्ण कटिबंधीय इस भूमि के तपते पत्थरों पर 44-45 डिग्री का तापमान भी राष्ट्रभक्ति की आग के आगे फीका लगता था। इसमें विनायक दामोदर सावरकर और उनके बड़े भाई गणेश दामोदर सावरकर ने लगभग 10 वर्ष बिताये। इस जेल में अलीपुर षड़यंत्र, चटगांव डकैती, काकोरी कांड, लाहौर बम कांड, मोपला विद्रोह, नासिक षडयंत्र अनगिनित विद्रोह अनगिनत क्रांतिवीर... आते ही रहे।
अंडमान की सेलूलर जेल में भी उन्हें अत्यंत घातक श्रेणी ”डी“ का मुजरिम घोषित किया गया था, उन्होंने कालापानी से मुक्त होने के लिए ये 6 प्रयास किये, तत्कालीन गृहसचिवों ने उनके खिलाफ रिर्पोटे देकर उनकी मुक्ति में बाधा खड़ी की, गृहसचिव क्रेडोक ने लिखा है ”मैं उनसे अंडमान मिलने गया, उन्हें अपने किये का कोई पछतावा नहीं है, अंडमान से उन्हें आजादी देना संभव नहीं है, वह भारत की किसी भी जेल से भाग निकलेगा।’’ इसी तरह एक अन्य गृहसचिव मेक्फर्सन ने लिखा “ विनायक ही असली खतरनाक व्यक्ति है, उसके पास दिमाग है और जन्मजात नेता का स्वभाव है। उसकी रिहाई पर आपत्ति का कारण यह नहीं है कि उसका अपराध गंभीर है। बल्कि यह उसका स्वभाव है।’’ वे 1910 से 1921 तक कालापानी की जेल में रहे तथा 1921 से 1937 तक प्रतिबंधित निगरानी में रत्नागिरी (महाराष्ट) में रहे।
स्वतंत्रता का प्रथम दर्शन कालापानी
यदि अंग्रेजों ने इस जेल से सावरकर जी को मुक्त नहीं किया होता, तो भी इस द्वीप समूह पर जापान ने कब्जा कर लिया था तथा इसे भारतीय की प्रथम स्वतंत्र अस्थायी सरकार को दे दिया था, इसी क्रम में इस सरकार के प्रधानमंत्री नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने 29 दिसम्बर 1943 को अंडमान यात्रा की और वे कुछ दिन वहां रहे। इसलिए यह कालापानी का टापू भारत की स्वतंत्रता के क्रांतिकारी आंदोलन का एक अद्वितीय तीर्थस्थल है।
मार्ग चलता रहा...
काल कोठारी वाली लोह सलाखें गर्माई होंगी,
फांसी के तख्ते पर लटकी रस्सी चिल्लाई होगी।
सावरकर की आंखों से तब, खारा जल छलका होगा,
कोल्हू से उस वक्त, तेल की जगह लहू टपका होगा।।
- विनीत चौहान
निग्रोस्तान स्वीकार क्यों नहीं करते.........
सावरकर भारत विभाजन का डटकर विरोध कर रहे थे। इसी दौरान प्रख्यात अमरीकी पत्रकार व लेखक ‘‘लुई फिशर’’ भारत में बड़े नेताओं से भेंटकर उनके विचार जान रहे थे। वे जिन्ना के विचार जानने के बाद सावरकर से मिले और प्रश्न किया ‘‘ आपको मुसलमानों को अलग देश ‘पाकिस्तान’ देने में आपत्ति क्या है?’’ सावरकर ने उलट उनसे प्रश्न कर डाला ‘‘आप लोग भारी मांग के बाद भी मूल निवासी निग्रो लोगों के लिए आपकी सरकार ‘निग्रोस्तान’ क्यों नहीं स्वीकार कर लेते ?’’ सहज ही लुई फिशर के मुंह से निकल गया ‘‘देश का विभाजन राष्ट्रीय अपराध है।’’
देशहित का अनोखा चिन्तक
सावरकर लिखते है, ”पारकीय लोग शस्त्र प्रयोग से हिन्दुओं का जितना विनाश नहीं कर सके, उतना विनाश स्वयं हिन्दुओं ने ही अपनी सद्गुणी विकृति से कर लिया है, काश, गीता की ”देशकाल पात्र“ के विवेक की सावचेतना न भुलाई गई होती, हिन्दुओं को गीता के इस सापेक्ष उपदेश की विस्मृति हुई, इसीलिए उनका घात ;पतनद्ध हुआ।
उन्होंने पृथ्वीराज चौहान द्वारा यु(बंदी बनाये गये शत्रु को प्राणदान देने और छोड़े जाने को एक भयंकरतम महान भूल कहा। उनका मत था जिनका धर्म काफिरों का विच्छेद हो उनसे ”जैसे को वैसा“ व्यवहार करना ही न्याय की नैतिकता होती...।
वीर सावरकर आधुनिक विश्व से, वैज्ञानिकता में सब कुछ सीखकर उनसे भी आगे निकलने की आवश्यकता महसूस करते थे। उनका स्पष्ट मानना था कि विश्व में शान्ति और प्रभुत्व की स्थापना में सर्वाधिक योगदान शक्ति का ही रहता है। वीर ही वसंुधरा का भोग करते हैं! एक अन्य लेख में उन्होंने लिखा है कि इस विज्ञान के युग में समाज संस्था का पुर्नगठन करना, वह भी प्रत्यक्ष, ऐहिक तथा विज्ञाननिष्ठ सि(ांतों पर करना चाहिये। वह मार्ग अपनाते समय इंगलैंड, रूस, जापान ये राष्ट्र बलवान हुए है। ठीक वैसे ही भारत भी बलवान होकर रहेगा।
वे हिन्दुत्व के कट्टर समर्थक थे, उन्होंने वामपंथी भटकाव पर चेतावनी देते हुए कहा कि पहले परधर्मी ही विरोधी थे, किन्तु अब स्वधर्मी भी विरोध कर रहे हैं, जो बहुत ही गंभीर एंव चिंतन का विषय है। वे स्पष्ट घोषणा करते थे ‘‘तुम शपथ लो, इन्द्र पद यदि मुझे मिल रहा हो, तो भी प्रथम अहिन्दू होकर जीने से, अंतिम हिन्दू होकर मरना मैं श्रेयकर मानूगाँ। माता पिता भी भले ही हिन्दुत्व को भूल जाये, किन्तु तुम हिन्दुत्व को मत छोड़ो। उनका बहुत स्पष्ट कहना था राजनीति के लिए धर्म और धर्म के लिए राजनीति है। इसी तरह वे ये भी हमेशा ही कहते थे कि सबल समाज से अच्छे-अच्छे उद्दण्ड कांपते हैं, इसलिए सबल समाज का निर्माण करो। ’’
1937 में ब्रिटिश सरकार ने उन पर से सारे प्रतिबंध उठा लिये थे। उन्होंने हिन्दू महासभा के अखिल भारतीय अध्यक्ष का पद संभाला तथा उसे सक्रीयता दी। इसी का परिणाम था कि भारत की प्रथम राष्ट्रीय सरकार में हिन्दू महासभा के कोटे से उनके सहयोगी डॉ. श्याम प्रसाद मुखर्जी उद्योग मंत्री बनाये गये। दुर्भाग्यवश महात्मा गांधी पाकिस्तान को सहयोग देने की नीति के शिकार हुए। उनकी हत्या के जुर्म में सावरकर जी को भी गिरफ्तार कर लिया गया मगर वे न्यायालय द्वारा बाईज्जत बरी किये गये।
उन्होंने हिन्दुत्व नामक पुस्तक के द्वारा सांस्कृतिक राष्ट्वाद की दिशा दी एवं ‘भारतीय इतिहास के छः स्वर्णिम पृष्ठ’ नामक महान गं्रथ की रचना की जो भारतवासियों के स्वाभिमान को गौरवान्वित एवं उत्थान के लिए प्रेरित करता है। उन्हांेने असंख्य लेख एवं पुस्तकें लिखीं। नागपुर विश्वविद्यालय ने उन्हें ऐतिहासिक साहित्य सृजन के लिए ‘‘डॉक्टरेट’’ की उपाधी से अलंकृत किया था।
सतत सतर्कता के प्रहरी..
वे आजाद भारत को हमेशा आगाह करते रहे कि ‘‘हिन्दुस्तानी शासन सेना की ओर से लापरवाही बरत रहा है, जब तक हिन्दुस्तान सैनिक शक्ति के रूप में शक्तिशाली नहीं बन जाता, तब तक उसके शब्दों को मूल्य नहीं मिल सकेगा।’’ यह तथ्य सत्य भी हुआ चीन ने भारत के कान पकड़ी छेरी ;बकरीद्ध की तरह व्यवहार किया। अमेरिका- ब्रिटेन ने भारत से निरंतर कुटनीति खेली। विश्व में भारत की आवाज को मा. अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा किये गये परमाणु परीक्षण के बाद आज महत्व मिल पाया है।
1947 में जम्मू और कश्मीर के महाराजा हरिसिंह की फौज के अधिकांश मुस्लिम सैनिकों ने महाराजा के विरू( विद्रोह कर पाकिस्तानी आक्रमणकारियों का स्वागत किया था और साथ दिया था। महाराजा को अपनी जान बचाकर रातों रात श्रीनगर से जम्मू पहुँचना पड़ा था। यदि भारत में ब्रिटिश फौज में हिन्दू नवयुवक अच्छी संख्या में न होते तो यह दृश्य अन्य जगह भी उपस्थित होता।
आखिर में इस बात का खंडन भी करना चाहता हूँ कि सावरकर ने हिन्दू और मुसलमानों को अलग अलग किया। हिन्दू और मुसलमान को बांटकर भारत पर राज्य बनाये रखने की साजिश में विक्टोरिया ताज 1857 के बाद भी सक्रिय हो गया था। 1870-90 के दशकों में अंग्रेजों से मुसलमान को जोड़ने की कोशिशें प्रारम्भ हो गई थी। तत्पश्चात अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी हिन्दूओं के विरू( मुसलमान को खड़ा करने के ट्रेनिंग सेंटर के रूप में विकसित हो गया था। इसके प्राचार्य इसाई धर्मावलम्बी प्रिंसीपल बेक और प्रिंसीपल आर्चबोल्ड प्रमुख कर्ताधर्ता थे। जहाँ तक सावरकर के जीवनकाल में हिन्दु मुस्लिम एकता का प्रश्न है, इस दौर में मुस्लिम लीग ने और पाकिस्तान ने भारतीय हितों पर कुठाराघात ही किया और हिन्दू मुस्लिम एकता कभी नहीं होने दी।
सावरकर की कुशल कुटनीति ने अंग्रेजों को भगाया:
वे कई वर्षो तक हिन्दू महासभा के अध्यक्ष रहे। उन्हांेने जब 1942 में हिन्दू नवयुवकों को भारतीय फौज में भर्ती होेने का आव्हान किया, तब कांग्रेस ने उनकी आलोचना की मगर यह बहुत ही महत्वपूर्ण एवं राष्ट्रहित से जुड़ी गहरी सूझबूझ का कार्य था। जिसका इतिहास में सही मूल्यांकन नहीं किया जा सका..। देश की आजादी की स्थितियाँ बन रही थी, विश्व के तमाम राष्ट्र एक दूसरे के विरु( शस्त्र लिये खड़े थे। भारतीय ब्रिटिश फौज में अधिकतम हिन्दू युवक पहँुचकर, भारतीय फौज की मुख्य मारक क्षमता को अपने कब्जे में करलंे और उपयुक्त समय पर शस्त्र के बल पर तख्ता पलट कर देश को स्वतंत्र करा ले। इस तरह की महान राष्ट्रभक्त गुप्त योजना का ही यह परिणाम है कि जब नेताजी सुभाष चंद्र बौस की आजाद हिन्द फौज के बंदी सिपाहियों पर अंग्रेजों ने सजा सुनाने की कोशिश की तो देश में जनविद्रोह खडा हुआ, इसी क्रम में नेवी विद्रोह से सैनिक विद्रोह खड़ा हुआ, जो पुलिस तक में फैल गया, तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री एटली ने हाउस आफ कामन्स में पूर्व प्रधानमंत्री चर्चिल को बताया था कि ‘....अब भारत में फौज हमारे साथ नहीं है, इसलिए भारत अब तुरंत छोड़ना होगा’ और प्रधानमंत्री एटली ने भारत की स्वतंत्रता की पूर्व घोषणा जून 1948 को भी कम कर दिया और यह निर्णय लिया कि 15 अगस्त, 1947 तक भारत को छोेड़ देंगे। अंग्रेजों को बोरिया बिस्तर बांधकर भागने की स्थिती बन गई थी,यदि इस अवसर पर कांग्रेस विद्रोही सैनिकों के सामने नहीं खड़ी होती तो, अखंड भारत ही स्वतंत्र होता।
जैसे जिये, वैसे ही स्वर्ग पधारे...
वे अपने जीवन के अंतिम दौर में अस्वस्थ रहते थे। उन्होंने स्वयं की मृत्यु के लिए आत्मार्पण किया तथा भोजन त्याग कर मृत्यु को आमंत्रित किया, 26 फरवरी 1966 को उनकी आत्मा परमात्मा में लीन हो गई। उन्होंने जीवन के अंतिम दौर में राष्ट्र चिंता नहीं छोड़ी थी। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा था कि ‘‘लाल बहादुर शास्त्री को ताशकंद नहीं जाना चाहिऐ, वहां उन पर दबाव डाला जायेगा और रण में जो जूझ कर पाया वह उसे खो देंगे और हुआ भी वही, शास्त्री जी ने जीती हुई चौकियां ही नहीं खोई, बल्कि अपने प्राण भी खो दिये।’’
अंत में डॉ. बृजेन्द्र अवस्थी की कविता की दो पंक्तियों से इस आलेख का समापन करते हैं:-
‘‘ले बढ़ा देश का स्वाभिमान, तोड़ता कड़ी व्यवधानों की,
गद्दार ‘महत्ता’ क्या जानें, सावरकर के बलिदानों की।’’
छुटभैया कांग्रेसी क्या जाने........!
1. परतंत्र भारत में, 1923 में कांग्रेस के काकीनाड़ा अधिवेशन में सावरकर की रिहाई का सर्वसम्मत प्रस्ताव पारित हुआ।
2. 1937 में बम्बई प्रांत में कांग्रेस की सरकार निर्वाचित हुई, उसने सबसे पहले ‘रत्नागिरी’ में नजरबन्द सावरकर की नजरबन्दी समाप्त की..!
3. सावरकर के देहावसान पर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उन्हें भारत की महान विभूति बताते हुए कहा था ‘‘साहस और देशभक्ति के पर्याय सावरकर आदर्श क्रांतिकारी के सांचे में ढ़ले थे। अनगिनत लोगों ने उनके जीवन से प्रेरणा ली।’’
4. इंदिरा गांधी के कार्यकाल में ही सूचना एवं प्रसारण मंत्री बसंतराव साठे की देखरेख में एक वृत्तचित्र भी सावरकर जी पर बना था।
1 comment:
KINDLY CHANGE THE BACKGROUND COLOUR RED>GREEN ,WHITE OR LIGHT YELLOW
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