Saturday, March 10, 2012

वीर सावरकर, गाँधी जी एवम् आर.एस.एस.


(भारत विभाजन के संदर्भ में) 

भाग-1

 टी.डी. चाँदना  

अनेक लोग आश्चर्य करते हैं कि भारत में हिन्दुओं के इतने बहुमत के पश्चात्, वीर सावरकर एवम् गाँधी जी जैसे सशक्त नेताओं के रहते और आर.एस.एस. जैसे विशाल हिन्दू संगठन की उपस्थिति के उपरान्त भी 1947 0 में हिन्दुओं ने मुस्लिम लीग की विभाजन की माँग को बिना किसी युद्ध व संघर्ष के कैसे स्वीकार कर लिया। इन सबका कारण जानने के लिए मैंने अनेक पुस्तकों एवं प्रख्यात लेखकों के लेखों का अध्ययन किया जैसे कि श्री जोगलेकर, श्री विद्यासागर आनंद, वरिष्ठ प्रवक्ता विक्रम गणेश ओक, श्री भगवानशरण अवस्थी एवं श्री गंगाधर इन्दुलकर। इस प्रकार मेरा निष्कर्ष उनके दृष्टिकोण एवं मेरे स्व अनुभव पर आधारित है। सर्वप्रथम मैं नीचे वीर सावरकर व गाँधी जी की विशेषताओं और नैतिक गुणों का विवरण देता हूँ जो विभाजन के समय भारतीय राजनीति के पतवार थे, उस समय के आर.एस.एस के नेताओं का विवरण दूँगा तत्पश्चात् मैं उन घटनाओं को उद्धृत करूँगा जो उन दिनों घटी जिनके फलस्वरूप विभाजन की दुर्भाग्यपूर्ण घटना घटी। वीर सावरकर एक युगद्रष्टा थे। बचपन से ही प्रज्वलित शूरवीरता के भाव रखते थे। 

अन्यायी अधिकारियों के विरोध के लिये सदैव तत्पर रहते थे। वह कार्य-शैली से भी उतने ही वीर थे जितने कि विचारों से। अपनी मातृभूमि को अंग्रेजों की गुलामी की बेड़ियों से छुड़ाने के लिए उन्होंने एवं उनके परिवार के सभी सदस्यों ने परम त्याग किये। उन्होंने अपनी पार्टी हिन्दू महासभा के कार्यकर्ताओं के साथ मुस्लिम लीग की भारत विभाजन की नीति का पुरजोर विरोध किया और उनके डायरेक्ट एक्शन का सामना किया। वीर सावरकर जी ने अपनी पार्टी के साथ भारत को अविभाजित रखने के लिये अभियान चलाया। बड़ी संख्या में भारत एवं विदेशों में बुद्धिजीवी वर्ग ने वीर सावरकर के दृष्टिकोण हिन्दू राष्ट्रवाद को सराहा जो उन्होंने अपनी पुस्तक हिन्दुत्व में प्रकाशित किया था। उन लोगों ने कहा कि वीर सावरकर का यह दृष्टिकोण साम्प्रदायिक न होकर वैज्ञानिक है और यह भारत को साम्प्रादायिकता, जातिवाद और क्षेत्रवाद से बचा सकता है। हिन्दू महासभा ने एवं आर.एस.एस. संस्थापकों ने वीर सावरकर द्वारा प्रतिपादित हिन्दू राष्ट्रवाद को अपनी पार्टी के बुनियाद विचारधारा के अंतर्गत अपनाया, परन्तु कांग्रेस ने सदैव यही प्रचार किया कि वीर सावरकर एवं हिन्दू महासभा साम्प्रदायिक एवं मुस्लिम विरोधी हैं। सन् 1940 के पश्चात डाॅ0 हेडगेवार के मृत्यु के बाद आर.एस.एस. ने भी सावरकर एवं हिन्दू महासभा को कलंकित करने का अभियान चलाया। 

वे वीर सावरकर के अद्भुत एवं ओजस्वी व्यक्तित्व को तो हानि नहीं पहुँचा पाये पर इस प्रकार के कारण बड़ी संख्या मंे हिन्दुओं को हिन्दू महासभा से दूर करने में सफल रहे। दूसरी ओर गांधी जी बिना संशय के एक राजनेता थे। 25 वर्ष के दीर्घ अन्तराल तक वे स्वतन्त्रता के लिये प्रयत्नशील रहे। जबकि वे आॅल इण्डिया कांग्रेस के प्रारम्भिक सदस्य भी नहीं थे फिर भी वे पार्टी के सर्वे-सर्वा रहे। उन्होंने कभी भी उस व्यक्ति को कांग्रेस के उच्च पद पर सहन नहीं किया जो उनसे विपरीत दृष्टिकोण रखता था या उनके वर्चस्व के लिये संकट हो सकता था। उदाहरण के लिए सुभाष चन्द्र बोस आॅल इण्डिया कांग्रेस के अध्यक्ष चयनित हुए जो गांधी जी कि अभिलाषाओं के विरूद्ध थे। अतः गांधी एवं उनके अनुयायियों ने इतना विरोध किया कि उनके समक्ष झुकते हुये बोस को अपना पद त्याग करना पड़ा। समस्या यह थी कि गांधी जी का चरखा उनका कम वस्त्रों में साधुओं जैसे बाना उनकी महात्मा होने की छवि सामान्यतः धर्म भीरू हिन्दुओं को अधिक प्रभावित कर रही थी। उनका यह स्वरूप हिन्दू जनता को उनके नेतृत्व को स्वीकार करने के लिए प्रेरित करता था। इसी के रहते गांधी जी की राजनीति में बड़ी से बड़ी गलती भी हिन्दू समाज नजरअन्दाज करता रहा। गांधी जी के अनेंक अनुयायी उन्हें एक संत और राजनैतिक मानते हैं। वास्तव में वह दूरदर्शी न होने के कारण राजनीतिज्ञ नहीं थे और आध्यात्म से सरोकार न होने के कारण संत भी नहीं थे। 

यह कहा जा सकता है कि सन्तों में वे राजनीतिज्ञ थे और राजनीतिज्ञ में संत। उनकी स्वीकार्यता का दूसरा कारण ब्रिटिश सरकार की ओर से मिलेने वाला प्रतिरोधात्मक सहयोग और भारत की आम जनता में उनके भ्रम उत्पन्न करने वाले स्वरूप की पैठ। यही कारण था अंग्रेज सरकार गांधी जी को जेल में डालती थी(जहां उन्हें हर तरह की सुविधायें उपलब्ध रहती थी।) और उसके उपरान्त हर बात के लिये गांधी जी को ही पहले पूंछती भी थी। यह सहयोग उन्हें बड़ा व स्वीकार्य नेता बनाने में सहायक रहा। दूसरी ओर गांधी जी का अंग्रेजों को सहयोग भी कम नहीं रहा। भगत सिंह को फांसी के मामले में गांधी जी का मौन व नकारात्मक रूख इसका ज्वलंत उदाहरण है परन्तु उनकी संतरूपी छवि व अंग्रेजों का सहयोग एवं हिन्दुओं के बीच उनकी भ्रामक संतई की छवि गांधीजी की स्वीकार्यता बनाती रही। गांधी जी कभी भी दृढ़ विचारों के व्यक्ति नहीं रहे। उदाहरणार्थ एक समय में वह मुस्लिम लीग की विभाजन की मांग को ठुकराते हुये बोले थे कि भारत को चीरने से पहले मुझे चीरो।
 वह अपने विचारों में कितने गंभीर थे यह उनके शब्द ही उनके लिये बोलेंगे। कुछ ही महीनों के पश्चात 1940 में उन्होंने अपने समाचार पत्रों में लिखा कि मुसलमानों को संयुक्त रहने या न रहने के उतने ही अधिकार होने चाहिये जितने की शेष भारत को है। इस समय हम एक संयुक्त परिवार के सदस्य हैं और परिवार का कोई भी सदस्य पृथक रहने के अधिकार की मांग कर सकता है। दुर्भाग्य से जून 1947 में गांधी जी ने आॅल इण्डिया कांग्रेस के सदस्यों को मुस्लिम लीग की मांग के लिये समहत कराया तब पाकिस्तान की रचना हुई। इस प्रकार पाकिस्तान की सृष्टि के फाॅर्मूला (माउण्टबेटन फाॅर्मूला) को कांग्रेस ने अपना ठप्पा लगाया और पाकिस्तान अस्तित्व में आया। 28 वर्षों के लम्बे समय में आजादी के आंदोलन में मुसलमानों की कोई भी सकारात्मक भूमिका न होने के पश्चात भी (जिनका स्वतंत्रता आन्दोलन में नगण्य सहयोग रहा)। गाँधी जी उन्हें रिझाने में लगे रहे। अपनी हताशा के चलते एक बार तो गांधी जी ने अंग्रेजों को भारत छोड़ते समय, भारत का राज्य मुसलमानों को सौंपने तक का सुझाव दे डाला। 1942 में मुहम्मद अली जिन्ना जो मुस्लिम लीग के अध्यक्ष थे, को लिखे पत्र में गांधी जी ने कहा सभी भारतीयों की ओर से अंग्रेजों द्वारा मुस्लिम लीग को राज्य सौंपने पर हमें कोई भी आपत्ति नहीं है। कांग्रेस मुस्लिम लीग द्वारा सरकार बनाये जाने पर कोई विरोध नहीं करेगी एवं उसमें भागीदारी भी करेगी। उन्होंने कहा कि वह पूरी तरह से गंभीर है और यह बात पूरी निष्ठा एवं सच्चाई से कह रहे हैं। परन्तु मुस्लिम लीग ने आग्रह किया कि वह पाकिस्तान चाहती है (मुसलमानों के लिये एक अलग देश) और इससे कम कुछ भी नहीं। मुस्लिम लीग ने स्वतंत्रता आंदोलन में कुछ भी सहयोग नहीं किया उल्टे अवरोध लगाये और मुसलमानों के लिये पृथक देश की मांग करती रही। उसने कहा कि हिन्दुओं और मुसलमानों में कुछ भी समानता नहीं है और वे कभी परस्पर शांतिपूर्वक नहीं रह सकते। मुसलमान एक पृथक राष्ट्र है अर्थात उनके लिये पृथक पाकिस्तान चाहिये। मुस्लिम लीग ने अंग्रेजों से कहा कि वे भारत तब तक न छोड़ें जब तक कि भारत का विभाजन न हो जाये और मुसलमानों के लिए पृथक देश पाकिस्तान  का सृजन कर जायें। मुस्लिम नेतृत्व की इस मांग पर मुस्लिम लीग के डायरेक्ट एक्शन के कारण भारत में विस्त्रृत रूप से दंगे हुये, जिसमें हजारों-लाखों हिन्दू मारे गये और स्त्रियां अपमानित हुईं, परन्तु कांग्रेस व गांधी जी की मुस्लिम तुष्टीकरण व अहिंसा की नीति के अंर्तगत चुप ही रहे और किसी प्रकार की कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखाई।

 इस प्रकार नेहरू जी व गांधी जी ने पाकिस्तान की मांग के समक्ष अपने घुटने टेक दिये और कांग्रेस पार्टी के अन्य नेताओं को भारत विभाजन अर्थात पाकिस्तान सृजन के लिये मना लिया। विभाजन के समय पूरे देश में भयंकर निराशा और डरावनी व्यवस्था छा गयी, कांग्रेस के भीतर एक कड़वी अनुभूति आ गयी। पूरे देश में एक विश्वासघात, घोर निराशा व भ्रामकता का बोध छा गया। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के भावी अध्यक्ष श्री पुरूषोत्तम दास टण्डन के शब्दों में गांधी जी की पूर्ण अहिंसा की नीति ही भारत विभाजन के लिये उत्तरदायी थी। एक कांग्रेसी समाचार-पत्र ने लिखा-आज गांधी जी अपने ही जीवन के उद्देश्य (हिन्दू-मुस्लिम एकता) की विफलता के मूक दर्शक हैं। इस प्रकार गांधी जी की तुष्टीकरण वाली नीतियों एवं जिन्ना की जिद्द व डायरेक्ट एक्शन का कोई विरोध न करने के कारण गांधी जी एवं उनकी कांग्रेस को ही भारत विभाजन के लिये उत्तरदायी माना जाना चाहिये। यह था दोनों राजनीतिक पार्टी- हिन्दू महासभा (सावरकर के नेतृत्व में) व कांग्रेस (गांधी जी के नेतृत्व में) का एक संक्षिप्त वर्णन कि कैसे उन्होंने मुस्लिम लीग की पाकिस्तान सृजन की मांग का सामना किया। पाकिस्तान सृजन के अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिये मुस्लिम लीग ने 1946 से ही डायरेक्ट एक्शन शुरू किया, जिसका उद्देश्य हिन्दुओं को भयभीत करना व कांग्रेस एवं गांधी जी को पाकिस्तान की मांग को मानने के लिये विवश करना था जिससे लाखों निर्दोष हिन्दुओं की हत्यायें हुईं और हजारों हिन्दू औरतों का अपहरण हुआ।
 
अनेक लोग कहते हैं कि ये सब कैसे हुआ जबकि भारत में इतना बहुमत हिन्दुओं का था और आर.एस.एस. जैसा विशाल हिन्दू युवक संगठन था जिसमें लाखों अनुशासित स्वयंसेवी युवक थे। जो प्रतिदिन शाखा में प्रार्थना करते थे एवं सुरक्षा के लिए कटिबद्ध थे-उनके लिए अपने प्राण न्यौछावर का संकल्प लिया करते थे। वे हिन्दुस्तान व हिन्दू राष्ट्र स्थापना के लिये प्रतिज्ञा करते थे। साधारण हिन्दू को आरएसएस से बहुत आशायें थी पर यह संगठन अपने उद्देश्य में पूर्णतः विफल रहा और हिन्दू हित के लिये कोई प्रयास नहीं किया। हिन्दुओं की आरएसएस के प्रति निराशा स्वाभाविक है क्योंकि आरएसएस उस बुरे समय में उदासीन व मूकदर्शक रही। आज तक इस बात का वे कोई भी संतोषजनक उत्तर नहीं बता पाये कि क्यों उस समय वह इन सब घटनाओं/वारदातों की अनदेखी करती रही। उनकी चुप्पी का कारण ढूँढ़ने के लिये हमें यह विदित होना आवश्यक है कि आरएसएस का जन्म कैसे हुआ और नेतृत्व बदलने पर उसकी नीतियों में क्यों बदलाव आये। 1922 में भारत के राजनीतिक पटल पर गांधी जी के आने के पश्चात ही मुस्लिम सांप्रदायिकता ने अपना सिर उठाना प्रारंभ कर दिया। खिलाफत आंदोलन को गांधी जी का सहयोग प्राप्त था- तत्पश्चात नागपुर व अन्य कई स्थानों पर हिन्दू, मुस्लिम दंगे प्रारंभ हो गये तथा नागपुर के कुछ हिन्दू नेताओं ने समझ लिया कि हिन्दू एकता ही उनकी सुरक्षा कर सकती है। इस प्रकार 28/9/1925 (विजयदशमी दिवस) को डाॅ0 मुंजे, डाॅ0 हेडगेवार, श्री परांजपे और बापू साहिब सोनी ने एक हिन्दू युवक क्लब की नींव डाली। डाॅ0 हेडगेवार को उसका प्रमुख बनाया गया। बाद में इस संगठन को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का नाम दिया गया जिसे साधारणतः आरएसएस के नाम से जाना जाता है। इन स्वयंसेवकों को शारीरिक श्रम, व्यायाम, हिन्दू राष्ट्रवाद की शिक्षा एवं सैन्य शिक्षा आदि भी दी जाती थी। जब वीर सावरकर रत्नागिरी में दृष्टि बन्द थे तब डाॅ0 हेडगेवार वहां उनसे मिलने गये । तब तक वह वीर सावरकर रचित पुस्तक हिन्दुत्व भी पढ़ चुके थे।

 डाॅ0 हेडगेवार उस पुस्तक के विचारों से बहुत प्रभावित हुये और उसकी सराहना करते हुये बोले कि वीर सावरकर एक आदर्श व्यक्ति हैं। दोनोें ही सावरकर एवं हेडगेवार का विश्वास था कि जब तक हिन्दू अंधविश्वास, पुरानी रूढ़िवादी सोच, धार्मिक आडंबरों को नहीं छोड़ेंगे और हिन्दू जाति, छूत-अछूत, अगड़ा-पिछड़ा और क्षेत्रवाद इत्यादि में बंटा रहेगा, वह संगठित एवं एक नहीं होगा तब तक वह संसार में अपना उचित स्थान नहीं ले पायेगा। 1937 में वीर सावरकर की दृष्टिबंदी समाप्त हो गई और वे राजनीति में भाग ले सकते थे। उसी वर्ष वे हिन्दू महासभा के अध्यक्ष चुने गये जिसके उपाध्यक्ष डाॅ0 हेडगेवार थे। 1937 में हिन्दू महासभा का भव्य अधिवेशन में वीर सावरकर के भाषण को हिन्दू राष्ट्र दर्शन के नाम से जाना जाता है। 1938 में वीर सावरकर द्वितीय बार हिन्दू महासभा के अध्यक्ष चुने गये और यह अधिवेशन नागपुर में रखा गया। इस अधिवेशन का उत्तरदायित्व पूरी तरह से आरएसएस के स्वयंसेवकों द्वारा उठाया गया। इसका नेतृत्व उनके मुखिया डाॅ0 हेडगेवार ने किया था। उन्होंने वीर सावरकर के लिये असीम श्रद्धा जताई। पूरे नागपुर शहर में एक विशाल जुलूस निकाला गया, जिसमें आगे-आगे श्री भाउराव देवरस जो आरएसएस के उच्चतम श्रेणी के स्वयंसेवक थे, वे हाथी पर अपने हाथ में भगवा ध्वज लेकर चल रहे थे। हिन्दू महासभा व आर.एस.एस. के मध्य कड़वाहट 1939 के अधिवेशन के लिए भी वीर सावरकर तीसरी बार हिन्दू महासभा के अध्यक्ष चुने गये थे।

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