: सोनिया गांधी का सच
एस गुरूमूर्ति
भाग-3
२.२ अरब डॉलर से ११ अरब डॉलर, केजीबी दस्तावेज एवं भारतीय मीडिया : सोनिया गांधी का सच से आगे | संदेह का घेरा : सवाल यह उठता है कि इन दोनों खुलासों पर सोनिया गांधी और 1988 में बालिग हुए राहुल गांधी ने क्या जवाब दिया? जवाब है कुछ नहीं। सच कहा जाए तो इन खुलासों से ज्यादा गांधी परिवार की चुप्पी ने उनकी छवि को नुकसान पहुंचाने का काम किया है। जब श्वेजर इलस्ट्रेटे ने यह आरोप लगाया कि सोनिया गांधी ने राजीव गांधी द्वारा घूस में लिए गए पैसे को राहुल गांधी के खाते में रखा है, तो मां-बेटे में से किसी ने न तो इसका विरोध किया और न ही इस पत्रिका के खिलाफ कोई कानूनी कार्रवाई की। मां-बेटे ने न ही 1998 में इस मामले पर लेख लिखने वाले एजी नूरानी के खिलाफ कोई कदम उठाया और न ही संबंधित दस्तावेज 2002 में अपनी वेबसाइट पर डालने वाले सुब्रमण्यम स्वामी के खिलाफ कुछ किया। न ही उन्होंने मेरे या एक्सप्रेस के खिलाफ 2009 के अप्रैल में इन तथ्यों पर आधारित लेख छापने के लिए कोई कानूनी कार्रवाई की। जब 1992 में रूस में केजीबी से संबंधित खुलासे की खबर दि हिंदू और टाइम्स आफ इंडिया ने प्रकाशित की, उस वक्त भी किसी गांधी ने कोई शिकायत नहीं की। न ही किसी गांधी ने येवगेनिया अलबतस के खिलाफ कोई कानूनी कार्रवाई की जिन्होंने 1994 में केजीबी और राजीव गांधी के बीच पैसे के लेनदेन के बारे में लिखा। न ही इन लोगों ने 15 अगस्त, 2006 को ऐसा लेख लिखने वाले राजिंदर पुरी के खिलाफ कोई कदम उठाया। हालांकि, 2007 में सोनिया के कुछ वफादार लोगों ने उनकी प्रतिष्ठा बचाने के लिए अमेरिका में बड़े अनमने ढंग से एक मुकद्दमा जरूर दर्ज कराया था। ऐसा तब हुआ जब वहां के कुछ प्रवासी भारतीयों ने अलबतस के खुलासों के आधार पर पूरे पन्ने का विज्ञापन न्यूयार्क टाइम्स में छपवाया। वे सोनिया गांधी की सच्चाई को अमेरिका वालों के सामने रखना चाहते थे। अमेरिकी अदालत ने इस मुकद्दमे को तुरंत खारिज कर दिया क्योंकि सोनिया गांधी खुद अपने नाम से मुकद्दमा दर्ज कराने की हिम्मत नहीं जुटा सकीं। आश्चर्य की बात यह है कि इस मुकद्दमें में भी स्विस बैंक में 2.2 अरब डालर होने की बात को चुनौती नहीं दी गई थी।
अगर मान लिया जाए कि ये दोनों खुलासे आधारहीन हैं और गांधी परिवार ईमानदार है तो ऐसे में उनकी ओर से कैसी प्रतिक्रिया होनी चाहिए थी? ईमानदार आदमी की प्रतिक्रिया वैसी ही होती है जैसी मोरारजी देसाई ने दी थी। जब पुलित्जर पुरस्कार विजेता खोजी पत्रकार सेमोर हेर्स ने अपनी किताब में यह आरोप लगाया कि भारतीय कैबिनेट में मोरारजी सीआईए एजेंट थे तो 87 साल के बूढ़े और रिटायर्ड मोरारजी देसाई ने न सिर्फ गुस्से का इजहार किया बल्कि एक मानहानि का मुकद्दमा भी दर्ज कराया। मोरारजी देसाई के मरने के पांच साल बाद अमेरिकन स्पेक्टेटर में रेल जेन आइजैक ने लिखा कि हेर्स चरित्र हनन करने में माहिर थे और हेनरी किसिंजर को नीचा दिखाने के लिए उन्होंने मोरारजी को निशाना बना लिया। जब मोरारजी के मानहानि मुकद्दमे पर सुनवाई शुरू हुई तो 93 साल की उम्र वाले मोरारजी अमेरिका जाने में सक्षम नहीं थे और उनकी जगह पर किसिंजर ने जाकर हेर्स के दावों को खारिज किया। कहने का मतलब है कि अगर कोई ईमादार होता है तो अपनी उम्र का ख्याल न करते हुए खुद पर लगाए जा रहे आरोपों पर प्रतिक्रिया देता है। संप्रग की अध्यक्ष सोनिया गांधी ने अब तक इस मसले पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है। यह तब जब वे पूरी तरह से सक्रिय हैं, न कि मोरारजी देसाई की तरह सेवानिवृत्त और बुजुर्ग। जब स्विस पत्रिका में यह मामला उजागर हुआ था तो उनकी उम्र महज 41 साल थी। अगर सोनिया और राहुल के बजाए इन दोनों खुलासों में भाजपा के लालकृष्ण आडवाणी और नरेंद्र मोदी का नाम होता तो भारतीय मीडिया और सोनिया गांधी की सरकार उन्हें सलाखों के पीछे भेजने के लिए क्या नहीं करती।
20.80 लाख करोड़ रुपए की लूट : स्विस बैंक में गांधी परिवार के अरबों रुपए का मामला विदेशी गुमनाम खातों में जमा भारतीय पैसे को वापस लाने से जुड़ा हुआ है। भारत को छोड़कर दुनिया के सभी देशों ने स्विस बैंक और इसकी तरह अन्य बैंकों में जमा काले धन को वापस लाने में दिलचस्पी दिखाई है। पर भारत ने इस काम में कोई खास दिलचस्पी नहीं दिखाई। आखिर ऐसा क्यों?
2009 में हुए लोकसभा चुनावों के दौरान भाजपा नेता लाल कृष्ण आडवाणी ने यह कहा था कि अगर वे सत्ता में आते हैं तो विदेशों में जमा काले धन को वापस लाएंगे। विदेशों में भारत का 500 अरब डालर से लेकर 1400 अरब डालर के बीच काला धन जमा होने का अनुमान है। कांग्रेस ने इतनी रकम होने की बात को शुरुआत में नकार दिया था। पर जब यह मामला तूल पकड़ने लगा तो मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी ने भी यह कहा कि वे इस काले धन को वापस लाएंगे। वैश्विक स्तर पर काले धन के मसले पर काम करने वाली संस्था ग्लोबल फायनैंशियल इंटीग्रिटी (जीएफआई) ने भारत में हुई लूट के बारे में कहा है, ”1948 से लेकर 2008 के बीच भारत ने 213 अरब डालर काले धन के रूप में गंवाए हैं। यह कर चोरी, भ्रष्टाचार, घूसखोरी और आपराधिक गतिविधियों के जरिए किया गया है।” ऐसे में क्या किसी को यह बताने में बहुत मुश्किल होगी कि आखिर कैसे सोनिया के परिवार के गुप्त खाते में 2.2 अरब डॉलर आए? जीएफआई के आंकड़े में 2जी और राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन के नाम पर हुई लूट तो शामिल ही नहीं है। अब ऐसे में इस बात पर विचार करना जरूरी हो जाता है कि सोनिया गांधी के गुप्त खाते की वजह से भारत का विदेशों में जमा काला धन वापस लाने की कोशिशों पर किस तरह का असर पड़ेगा?
लूटने वाले सुरक्षित : कुछ उदाहरणों से यह बात साफ हो जाएगी कि भारत सरकार किस तरह विदेशों में जमा भारत के काले धन को वापस लाने में दिलचस्पी नहीं ले रही है। 2008 के फरवरी में जर्मनी के सरकारी अधिकारियों ने यह जानकारी जुटाई की लिशेंस्टीन बैंक में दुनिया के कई देशों के नागरिकों ने कितना काला धन जमा किया है। जर्मनी के वित्त मंत्री ने उस वक्त कहा कि अगर दुनिया की कोई और सरकार काला धन जमा करने वाले अपने नागरिकों का नाम जानना चाहती है तो वे उसे ये नाम दे देंगे। मीडिया में कुछ ऐसी खबरें आईं जिनमें कहा गया कि लिशेंस्टीन बैंक से जिन खाताधारियों के नाम मिले हैं उनमें 250 भारतीय भी हैं। जर्मनी के खुले प्रस्ताव के बावजूद संप्रग सरकार ने इन नामों को जानने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। टाइम्स आफ इंडिया में भी उस समय एक खबर प्रकाशित हुई जिसमें बताया गया कि वित्त मंत्रालय और प्रधनमंत्री कार्यालय लिशेंस्टीन के खाताधारियों के नाम जानने में दिलचस्पी नहीं दिखा रहे हैं। इस बीच दबाव बढ़ने पर भारत सरकार ने नाम के लिए अनुरोध तो किया लेकिन खुले प्रस्ताव के बजाए जर्मनी के साथ हुए कर समझौते के तहत। आखिर दोनों में फर्क क्या है? फर्क यह है कि कर समझौते के तहत मिलने वाले नामों को गोपनीय रखा जाता है लेकिन खुले प्रस्ताव के तहत मिलने वाले नाम को सार्वजनिक किया जा सकता है। इससे साफ हो जाता है कि सरकार वैसे लोगों का नाम नहीं उजागर करना चाहती है जिन्होंने काला धन विदेशी बैंकों में जमा कर रखा है।
दूसरा सनसनीखेज मामला है हसन अली का। पुणे के इस कारोबारी के बारे में यह पाया गया कि वह 1.5 लाख करोड़ रुपए के स्विस खाते का संचालन कर रहा था। आयकर विभाग ने उस पर भारत का पैसा गलत ढंग से विदेशी खाते में रखने के लिए 71,848 करोड़ रुपए का कर लगाया। इस मामले में जानकारी हासिल करने के लिए स्विस सरकार को जो अनुरोध भेजा गया उसे इस तरह से तैयार किया गया कि सूचनाएं नहीं मिल सकें। हसन अली के साथ कई बड़े नामों के जुड़े होने की बात की जा रही है। सरकार आखिर क्यों नहीं इस मामले की गहराई से जांच करना चाहती है। हसन अली जैसे लोग ही भारत के भ्रष्ट लोगों का पैसा विदेशों में हवाला के जरिए पहुंचाते हैं। अगर हसन अली से जुड़ी सच्चाई सामने आ जाती है तो कई भ्रष्ट लोग नंगे हो जाएंगे। हमें यह भी समझना होगा कि सोनिया गांधी के अरबों डालर स्विस बैंक में होते हुए भारत के 462 अरब डालर की लूट की स्वतंत्र जांच नहीं हो सकती। सोनिया गांधी और राहुल गांधी ने चुनाव लड़ते वक्त जो हलफनामा दिया था उसके मुताबिक दोनों की संयुक्त संपत्ति सिर्फ 363 लाख रुपए है। सोनिया के पास कोई कार नहीं है। 19 नवंबर 2010 को सोनिया ने कहा कि भ्रष्टाचार और लोभ भारत में बढ़ रहा है। 19 दिसंबर 2010 को राहुल गांधी ने कहा कि भ्रष्ट लोगों को कठोर सजा दी जानी चाहिए।
अगर मान लिया जाए कि ये दोनों खुलासे आधारहीन हैं और गांधी परिवार ईमानदार है तो ऐसे में उनकी ओर से कैसी प्रतिक्रिया होनी चाहिए थी? ईमानदार आदमी की प्रतिक्रिया वैसी ही होती है जैसी मोरारजी देसाई ने दी थी। जब पुलित्जर पुरस्कार विजेता खोजी पत्रकार सेमोर हेर्स ने अपनी किताब में यह आरोप लगाया कि भारतीय कैबिनेट में मोरारजी सीआईए एजेंट थे तो 87 साल के बूढ़े और रिटायर्ड मोरारजी देसाई ने न सिर्फ गुस्से का इजहार किया बल्कि एक मानहानि का मुकद्दमा भी दर्ज कराया। मोरारजी देसाई के मरने के पांच साल बाद अमेरिकन स्पेक्टेटर में रेल जेन आइजैक ने लिखा कि हेर्स चरित्र हनन करने में माहिर थे और हेनरी किसिंजर को नीचा दिखाने के लिए उन्होंने मोरारजी को निशाना बना लिया। जब मोरारजी के मानहानि मुकद्दमे पर सुनवाई शुरू हुई तो 93 साल की उम्र वाले मोरारजी अमेरिका जाने में सक्षम नहीं थे और उनकी जगह पर किसिंजर ने जाकर हेर्स के दावों को खारिज किया। कहने का मतलब है कि अगर कोई ईमादार होता है तो अपनी उम्र का ख्याल न करते हुए खुद पर लगाए जा रहे आरोपों पर प्रतिक्रिया देता है। संप्रग की अध्यक्ष सोनिया गांधी ने अब तक इस मसले पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है। यह तब जब वे पूरी तरह से सक्रिय हैं, न कि मोरारजी देसाई की तरह सेवानिवृत्त और बुजुर्ग। जब स्विस पत्रिका में यह मामला उजागर हुआ था तो उनकी उम्र महज 41 साल थी। अगर सोनिया और राहुल के बजाए इन दोनों खुलासों में भाजपा के लालकृष्ण आडवाणी और नरेंद्र मोदी का नाम होता तो भारतीय मीडिया और सोनिया गांधी की सरकार उन्हें सलाखों के पीछे भेजने के लिए क्या नहीं करती।
20.80 लाख करोड़ रुपए की लूट : स्विस बैंक में गांधी परिवार के अरबों रुपए का मामला विदेशी गुमनाम खातों में जमा भारतीय पैसे को वापस लाने से जुड़ा हुआ है। भारत को छोड़कर दुनिया के सभी देशों ने स्विस बैंक और इसकी तरह अन्य बैंकों में जमा काले धन को वापस लाने में दिलचस्पी दिखाई है। पर भारत ने इस काम में कोई खास दिलचस्पी नहीं दिखाई। आखिर ऐसा क्यों?
2009 में हुए लोकसभा चुनावों के दौरान भाजपा नेता लाल कृष्ण आडवाणी ने यह कहा था कि अगर वे सत्ता में आते हैं तो विदेशों में जमा काले धन को वापस लाएंगे। विदेशों में भारत का 500 अरब डालर से लेकर 1400 अरब डालर के बीच काला धन जमा होने का अनुमान है। कांग्रेस ने इतनी रकम होने की बात को शुरुआत में नकार दिया था। पर जब यह मामला तूल पकड़ने लगा तो मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी ने भी यह कहा कि वे इस काले धन को वापस लाएंगे। वैश्विक स्तर पर काले धन के मसले पर काम करने वाली संस्था ग्लोबल फायनैंशियल इंटीग्रिटी (जीएफआई) ने भारत में हुई लूट के बारे में कहा है, ”1948 से लेकर 2008 के बीच भारत ने 213 अरब डालर काले धन के रूप में गंवाए हैं। यह कर चोरी, भ्रष्टाचार, घूसखोरी और आपराधिक गतिविधियों के जरिए किया गया है।” ऐसे में क्या किसी को यह बताने में बहुत मुश्किल होगी कि आखिर कैसे सोनिया के परिवार के गुप्त खाते में 2.2 अरब डॉलर आए? जीएफआई के आंकड़े में 2जी और राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन के नाम पर हुई लूट तो शामिल ही नहीं है। अब ऐसे में इस बात पर विचार करना जरूरी हो जाता है कि सोनिया गांधी के गुप्त खाते की वजह से भारत का विदेशों में जमा काला धन वापस लाने की कोशिशों पर किस तरह का असर पड़ेगा?
लूटने वाले सुरक्षित : कुछ उदाहरणों से यह बात साफ हो जाएगी कि भारत सरकार किस तरह विदेशों में जमा भारत के काले धन को वापस लाने में दिलचस्पी नहीं ले रही है। 2008 के फरवरी में जर्मनी के सरकारी अधिकारियों ने यह जानकारी जुटाई की लिशेंस्टीन बैंक में दुनिया के कई देशों के नागरिकों ने कितना काला धन जमा किया है। जर्मनी के वित्त मंत्री ने उस वक्त कहा कि अगर दुनिया की कोई और सरकार काला धन जमा करने वाले अपने नागरिकों का नाम जानना चाहती है तो वे उसे ये नाम दे देंगे। मीडिया में कुछ ऐसी खबरें आईं जिनमें कहा गया कि लिशेंस्टीन बैंक से जिन खाताधारियों के नाम मिले हैं उनमें 250 भारतीय भी हैं। जर्मनी के खुले प्रस्ताव के बावजूद संप्रग सरकार ने इन नामों को जानने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। टाइम्स आफ इंडिया में भी उस समय एक खबर प्रकाशित हुई जिसमें बताया गया कि वित्त मंत्रालय और प्रधनमंत्री कार्यालय लिशेंस्टीन के खाताधारियों के नाम जानने में दिलचस्पी नहीं दिखा रहे हैं। इस बीच दबाव बढ़ने पर भारत सरकार ने नाम के लिए अनुरोध तो किया लेकिन खुले प्रस्ताव के बजाए जर्मनी के साथ हुए कर समझौते के तहत। आखिर दोनों में फर्क क्या है? फर्क यह है कि कर समझौते के तहत मिलने वाले नामों को गोपनीय रखा जाता है लेकिन खुले प्रस्ताव के तहत मिलने वाले नाम को सार्वजनिक किया जा सकता है। इससे साफ हो जाता है कि सरकार वैसे लोगों का नाम नहीं उजागर करना चाहती है जिन्होंने काला धन विदेशी बैंकों में जमा कर रखा है।
दूसरा सनसनीखेज मामला है हसन अली का। पुणे के इस कारोबारी के बारे में यह पाया गया कि वह 1.5 लाख करोड़ रुपए के स्विस खाते का संचालन कर रहा था। आयकर विभाग ने उस पर भारत का पैसा गलत ढंग से विदेशी खाते में रखने के लिए 71,848 करोड़ रुपए का कर लगाया। इस मामले में जानकारी हासिल करने के लिए स्विस सरकार को जो अनुरोध भेजा गया उसे इस तरह से तैयार किया गया कि सूचनाएं नहीं मिल सकें। हसन अली के साथ कई बड़े नामों के जुड़े होने की बात की जा रही है। सरकार आखिर क्यों नहीं इस मामले की गहराई से जांच करना चाहती है। हसन अली जैसे लोग ही भारत के भ्रष्ट लोगों का पैसा विदेशों में हवाला के जरिए पहुंचाते हैं। अगर हसन अली से जुड़ी सच्चाई सामने आ जाती है तो कई भ्रष्ट लोग नंगे हो जाएंगे। हमें यह भी समझना होगा कि सोनिया गांधी के अरबों डालर स्विस बैंक में होते हुए भारत के 462 अरब डालर की लूट की स्वतंत्र जांच नहीं हो सकती। सोनिया गांधी और राहुल गांधी ने चुनाव लड़ते वक्त जो हलफनामा दिया था उसके मुताबिक दोनों की संयुक्त संपत्ति सिर्फ 363 लाख रुपए है। सोनिया के पास कोई कार नहीं है। 19 नवंबर 2010 को सोनिया ने कहा कि भ्रष्टाचार और लोभ भारत में बढ़ रहा है। 19 दिसंबर 2010 को राहुल गांधी ने कहा कि भ्रष्ट लोगों को कठोर सजा दी जानी चाहिए।
स्रोत: hindi.ibtl.in/
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