Wednesday, June 22, 2011

अपारदर्शिता की आड़

भ्रष्टाचार से लड़ने और पारदर्शिता के प्रति प्रतिबद्ध होने का दावा करने वाली केंद्र सरकार के इरादे पाक-साफ नहीं, इसका एक और प्रमाण है केंद्रीय जांच ब्यूरो को सूचना अधिकार कानून से बाहर करने का निर्णय। यह निर्णय केंद्र सरकार के सचिवों की उस समिति की पहल पर हुआ जिसके अध्यक्ष कैबिनेट सचिव थे। आश्चर्यजनक यह है कि इधर इस समिति ने अपनी सिफारिश दी और उधर सरकार ने बिना किसी देरी के अधिसूचना जारी कर दी। सरकारी कामकाज में ऐसी तत्परता कम ही देखने को मिलती है। केंद्र सरकार ने अपने सचिवों की सिफारिश के समक्ष नतमस्तक होकर यह साबित कर दिया कि उसे उनकी परवाह अधिक है जो अपारदर्शिता के पक्ष में हैं। केंद्र सरकार इससे अच्छी तरह परिचित है कि यदि नौकरशाहों का वश चलता तो सूचना अधिकार कानून लागू ही नहीं हो पाता, लेकिन बावजूद इसके उसने उनकी सिफारिश पर मुहर लगाने में देर नहीं की। सीबीआइ को सूचना अधिकार कानून से इस आधार पर बाहर किया गया कि सूचनाएं देने से जांच में प्रतिकूल असर पड़ता है। हो सकता है कि किसी खास मामले में ऐसा होने का अंदेशा हो, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि इस संस्था को गोपनीयता के आवरण में छिपने की सहूलियत दे दी जाए। कोई भी समझ सकता है कि सीबीआइ को फिर से गोपनीयता के दायरे में इसलिए ले जाया गया ताकि जनता को उसके कामकाज के बारे में सामान्य सूचनाएं भी हासिल न हो सकें और साथ ही सत्ता में बैठे लोग उसका मनमाना इस्तेमाल कर सकें। आखिर यह किसी से छिपा नहीं कि सीबीआइ किस तरह कभी कुछ नेताओं के खिलाफ सक्रिय हो उठती है और कभी निष्क्रियता के शर्मनाक प्रमाण पेश करती है?
सीबीआइ को सूचना अधिकार कानून से बाहर करने का निर्णय यह बताता है कि केंद्र सरकार को न तो इस संस्था की साख की परवाह है और न ही अपनी छवि की। सीबीआइ हत्या-हिंसा के गंभीर मामलों के अतिरिक्त नेताओं और नौकरशाहों के भ्रष्टाचार के मामलों की जांच करती है। इनमें से अवपादस्वरूप ही कोई मामला राष्ट्रीय सुरक्षा से संबंधित होता है और इसीलिए उसे सूचना अधिकार कानून के दायरे में लाया गया था। क्या सरकार यह बताएगी कि सीबीआइ से ऐसी कौन सी जानकारी मांगी गई जिससे वह इस नतीजे पर पहुंची कि उसके सार्वजनिक होने से इस एजेंसी का कामकाज


बाधित हो जाएगा? आखिर सीबीआइ को किसी भ्रष्ट नेता या अधिकारी के खिलाफ लगाए गए आरोपों का विवरण देने में क्या कष्ट है? नि:संदेह कोई भी उससे यह नहीं पूछने जा रहा कि उसने किसी के खिलाफ क्या और कितने सबूत इकट्ठा किए हैं? सरकार जिस तरह सीबीआइ की भ्रष्टाचार निरोधक शाखा को भी सूचना अधिकार कानून में बनाए रखने के लिए तैयार नहीं हुई उससे भ्रष्टाचार से लड़ने के उसके दावे पर यकीन करना एक तरह से खुद को धोखा देना है। केंद्र सरकार के ताजा निर्णय से यह भी स्पष्ट है कि वह सीबीआइ को अपने नियंत्रण में बनाए रखने पर आमादा है। सरकार के इस निर्णय के बाद किसी को भी यह उम्मीद नहीं करनी चाहिए कि सीबीआइ वास्तव में स्वायत्त हो सकेगी। लज्जाजनक यह भी है कि सीबीआइ अधिकारी भी स्वायत्त होने और अपनी प्रतिष्ठा की रक्षा के प्रति सजग नहीं दिखते।

Courtsey:Dainikjagran
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1 comment:

आशुतोष की कलम said...

केंद्र सरकार इटली और CIA के हाथों में बिकी हुई है