अरुण जेटली
प्रस्तुतिःडॉ0 संतोष राय
"साम्प्रदायिक एवं लक्षित हिंसा विधेयक" पर अपने त्वरित विचार हमें दें.
शुरू में तो मुझे ये विधेयक समझ में नहीं आया, पर जब राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (National Advisory Council) के द्वारा तैयार मसौदे की प्रमुख बिंदु पढ़े तो लगा कि अब भी कुछ कमी है. मैं यहाँ मसौदे के प्रमुख बिन्दुओं तथा उन पर अपने विचार आपके समक्ष प्रस्तुत करूँगा. हो सकता है कि हमारे विचारों में मतभेद हो सकते हैं अतः आप सभी से गुजारिश है कि इन बातों को बस मेरे विचार समझ के बेवजह के वैचारिक मतभेद से खुद को बचायें.
नेशनल एडवायज़री काउंसिल (NAC) द्वारा सांप्रदायिक एवं लक्षित हिंसा विधेयक का मसौदा तैयार किया गया है जिसके प्रमुख बिन्दु इस प्रकार हैं-
1) कानून-व्यवस्था का मामला राज्य सरकार का है, लेकिन इस बिल के अनुसार यदि केन्द्र को “महसूस” होता है तो वह साम्प्रदायिक दंगों की तीव्रता के अनुसार राज्य सरकार के कामकाज में हस्तक्षेप कर सकता है और उसे बर्खास्त कर सकता है…
2) इस प्रस्तावित विधेयक के अनुसार दंगा हमेशा “बहुसंख्यकों” द्वारा ही फ़ैलाया जाता है, जबकि “अल्पसंख्यक” हमेशा हिंसा का लक्ष्य होते हैं…
3) यदि दंगों के दौरान किसी “अल्पसंख्यक” महिला से बलात्कार होता है तो इस बिल में कड़े प्रावधान हैं, जबकि “बहुसंख्यक” वर्ग की महिला का बलात्कार होने की दशा में इस कानून में कुछ नहीं है…
4) किसी विशेष समुदाय (यानी अल्पसंख्यकों) के खिलाफ़ “घृणा अभियान” चलाना भी दण्डनीय अपराध है (फ़ेसबुक, ट्वीट और ब्लॉग भी शामिल)…
5) “अल्पसंख्यक समुदाय” के किसी सदस्य को इस कानून के तहत सजा नहीं दी जा सकती यदि उसने बहुसंख्यक समुदाय के व्यक्ति के खिलाफ़ दंगा अपराध किया है (क्योंकि कानून में पहले ही मान लिया गया है कि सिर्फ़ “बहुसंख्यक समुदाय” ही हिंसक और आक्रामक होता है, जबकि अल्पसंख्यक तो अपनी आत्मरक्षा
कर रहा है)…
6) न्याय के लिए गठित होने वाली सात सदस्यीय समिति में से चार सदस्य अल्पसंख्यक समुदाय से होंगे. इनमें चेयरमैन और वाइस चेयरमैन शामिल हैं. ऐसी ही संस्था राज्य में बनाए जाने का प्रस्ताव है. इस तरह संस्था की सदस्यता धार्मिक और जातीय आधार पर तय होगी.
अब मेरे विचार भी जान लें -
· नेशनल एडवायज़री काउंसिल (NAC) द्वारा तैयार किये गए मसौदे के पहले, दुसरे व चौथे बिंदु पर मेरे कोई विचार नहीं क्योंकि ये मेरे हिसाब से सही हैं.
· अब बारी आती है तीसरे प्रमुख मसौदे की, इसमें उन्होंने सुझाव दिया है कि अगर किसी अल्प संख्यक महिला के साथ दंगे के वक्त बलात्कार होता है तो उन लोगों के लिए दंड के कड़े प्रावधान होंगे, पर अगर किसी बहुसंख्यक वर्ग की महिला के साथ बलात्कार होगा तो उसके लिए कोई कानून न होगा. अब मैं नेशनल एडवायज़री काउंसिल (NAC) से पूछना चाहूँगा कि क्या बहुसंख्यक वर्ग की महिला की कोई इज्ज़त नहीं होती क्या ? भारत वो देश है जहां सदा से ही महिलाओं को मान सम्मान की नज़रों से देखा गया है. आज भारत की महिला पुरुषों के साथ कंधे से कन्धा मिला कर चल रही है. तो क्या ऐसे में महिलाओं को किसी वर्ग विशेष की होने पर ही दंगों के वक्त विशेष क़ानूनी सहायता मिलेगी ? अरे ! कोई इनको बताये कि महिला महिला होती है, कोई सामाजिक मान्यता नहीं कि मन किया तो मान दिया नहीं तो अपमान कर लिया. नेशनल एडवायज़री काउंसिल (NAC) से दरख्वास्त है कि महिला चाहे किसी भी वर्ग की हो (बहुसंख्यक या अल्पसंख्यक) बलात्कार जैसे घिनौने अपराध के लिए सांप्रदायिक या लक्षित दंगों की स्तिथि में किसी को भी न छोड़ा जाए.
· पांचवे प्रमुख बिंदु के बारे में कुछ सूझ ही नहीं रहा कि इसके पक्ष में बोलूं या विपक्ष में इसी लिए मैं क्षमा चाहूँगा.
· छठवें बिंदु में इन्होने सात सदस्यीय समिति के गठन का विचार दिया है जिसमे से चार अल्प संख्यक समुदाय के होंगे. इस बात पर भी एक सुझाव है, क्यों न दोनों वर्गों को पूरा-पूरा व बराबरी का अधिकार दिया जाए. और जो भी इस समिति का चेयरमेन व वाइस चेयरमेन हों वो पूरी तरह से किसी भी वर्ग से सम्बंधित न हो ताकि वे किसी वर्ग विशेष को महत्व न दें. बल्कि निरपेक्ष न्याय करे. और हर दंगे के वक्त एक नयी समिति का गठन हो वह भी तुरंत ताकि अल्प व बहु संख्यक समुदाय दोनों की बात सरकार तक पहुँच सके तथा कुछ विशेष सदस्य भी हों क्योंकि हर बार दंगे जरूरी नहीं कि किन्ही दो विशेष धर्मो या जाति के लोगों के बीच हों.
आशा है, मेरी बात सब तक जरूर पहुंचेगी. मुझे नहीं पता कि ये सुझाव सीधे ही नेशनल एडवायज़री काउंसिल (NAC) के पास पहुँच जाएगी या प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति जी के पास पहुंचेगी, पर मुझे विश्वास है कि जनता के लिए बनाये जाने वाले विधेयक में जनता का योगदान होना जरूरी है ताकि किसी के विचारों या अधिकारों का हनन न हो सके
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सांप्रदायिक हिंसा रोकथाम (न्याय एवं क्षतिपूर्ति) विधेयक 2011 के मसौदे को सार्वजनिक कर दिया गया है। प्रकट रूप में बिल का प्रारूप देश में सांप्रदायिक हिंसा को रोकने के प्रयास के तौर पर नजर आता है, किंतु इसका असल मंतव्य इसके उलट है। अगर यह बिल पारित होकर कानून बन जाता है तो यह भारत के संघीय ढांचे को नष्ट कर देगा और भारत में अंतर-सामुदायिक संबंधों में असंतुलन पैदा कर देगा। बिल का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है 'समूह' की परिभाषा। समूह से तात्पर्य पंथिक या भाषायी अल्पसंख्यकों से है, जिसमें आज की स्थितियों के अनुरूप अनुसूचित जाति व जनजाति को भी शामिल किया जा सकता है। मसौदे के तहत दूसरे चैप्टर में नए अपराधों का एक पूरा सेट दिया गया है। सांप्रदायिक हिंसा के दौरान किए गए अपराध कानून एवं व्यवस्था की समस्या होते हैं। यह राज्यों के कार्यक्षेत्र में आता है। केंद्र को कानून एवं व्यवस्था के सवाल पर राज्य सरकार के कामकाज में दखलंदाजी का कोई अधिकार नहीं है। केंद्र सरकार का न्यायाधिकरण इसे सलाह, निर्देश देने और धारा 356 के तहत यह राय प्रकट करने तक सीमित करता है कि राज्य सरकार संविधान के अनुसार काम रही है या नहीं। यदि प्रस्तावित बिल कानून बन जाता है तो केंद्र सरकार राज्य सरकारों के अधिकारों को हड़प लेगी।
नि:संदेह, सांप्रदायिक तनाव या हिंसा भड़काने वालों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए, किंतु इस मसौदे में यह मान लिया गया है कि सांप्रदायिक समस्या केवल बहुसंख्यक समुदाय के सदस्य ही पैदा करते है। अल्पसंख्यक समुदाय का कोई व्यक्ति इसके लिए जिम्मेदार नहीं है। इस प्रकार बहुसंख्यक समुदाय के सदस्यों द्वारा अल्पसंख्यक समुदाय के सदस्यों के खिलाफ किए गए सांप्रदायिक अपराध तो दंडनीय है, किंतु अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों द्वारा बहुसंख्यकों के खिलाफ किए गए सांप्रदायिक अपराध दंडनीय नहीं है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि समूह की परिभाषा में बहुसंख्यक समुदाय के व्यक्तियों को शामिल नहीं किया गया है। इसके अनुसार बहुसंख्यक समुदाय का कोई व्यक्ति सांप्रदायिक हिंसा का शिकार नहीं हो सकता है। विधेयक का यह प्रारूप अपराधों को मनमाने ढंग से पुनर्परिभाषित करता है। इस प्रस्तावित विधेयक के तहत बहुसंख्यक समुदाय के खिलाफ सांप्रदायिक अपराध करने वाले अल्पसंख्यक समुदाय के सदस्य दोषी नहीं ठहराए जा सकते।
विधेयक के अनुसार सांप्रदायिक सौहार्द, न्याय और क्षतिपूर्ति के लिए एक सात सदस्यीय राष्ट्रीय प्राधिकरण होगा। सात सदस्यों में से चार समूह अर्थात अल्पसंख्यक समुदाय से होंगे। इसी तरह का प्राधिकरण राज्यों के स्तर पर भी गठित होगा। स्पष्ट है कि इस प्राधिकरण की सदस्यता धार्मिक और जातीय पहचान पर आधारित होगी। इस कानून के तहत अभियुक्त बहुसंख्यक समुदाय के ही होंगे। अधिनियम का अनुपालन एक ऐसी संस्था द्वारा किया जाएगा जिसमें निश्चित ही बहुसंख्यक समुदाय के सदस्य अल्पमत में होंगे। सरकारों को इस प्राधिकरण को पुलिस और दूसरी जांच एजेंसियां उपलब्ध करानी होंगी। इस प्राधिकरण को किसी शिकायत पर जांच करने, किसी इमारत में घुसने, छापा मारने और खोजबीन करने का अधिकार होगा और वह कार्रवाई की शुरुआत करने, अभियोजन के लिए कार्यवाही रिकार्ड करने के साथ-साथ सरकारों से सिफारिशें करने में भी सक्षम होगा। उसके पास सक्षस्त्र बलों से निपटने की शक्ति होगी। वह केंद्र और राज्य सरकारों को परामर्श जारी कर सकेगा। इस प्राधिकरण के सदस्यों की नियुक्ति केंद्रीय स्तर पर एक कोलेजियम के जरिए होगी, जिसमें प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और दोनों सदनों में विपक्ष के नेता और प्रत्येक राजनीतिक दल का एक नेता शामिल होगा। राज्यों के स्तर पर भी ऐसी ही व्यवस्था होगी।
इस अधिनियम के तहत जांच के लिए जो प्रक्रिया अपनाई जानी है वह असाधारण है। सीआरपीसी की धारा 161 के तहत कोई बयान दर्ज नहीं किया जाएगा। पीड़ित के बयान केवल धारा 164 के तहत होंगे अर्थात अदालतों के सामने। सरकार को इसके तहत संदेशों और टेली कम्युनिकेशन को बाधित करने तथा रोकने का अधिकार होगा। अधिनियम के उपबंध 74 के तहत यदि किसी व्यक्ति के ऊपर घृणा संबंधी प्रचार का आरोप लगता है तो उसे तब तक एक पूर्वधारणा के अनुसार दोषी माना जाएगा जब तक वह निर्दोष नहीं सिद्ध हो जाता। साफ है कि आरोप सबूत के समान होगा। उपबंध 67 के तहत किसी लोकसेवक के खिलाफ मामला चलाने के लिए सरकार के अनुमति चलाने की जरूरत नहीं होगी। इस अधिनियम के तहत मुकदमे की कार्यवाही चलवाने वाले विशेष लोक अभियोजक सत्य की सहायता के लिए नहीं, बल्कि पीड़ित के हित में काम करेंगे। शिकायतकर्ता पीडि़त का नाम और पहचान गुप्त रखी जाएगी। केस की प्रगति की रपट पुलिस शिकायतकर्ता को बताएगी। संगठित सांप्रदायिक और किसी समुदाय को लक्ष्य बनाकर की जाने वाली हिंसा इस कानून के तहत राज्य के भीतर आंतरिक उपद्रव के रूप में देखी जाएगी। इसका अर्थ है कि केंद्र सरकार ऐसी दशा में अनुच्छेद 355 का इस्तेमाल कर संबंधित राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने में सक्षम होगी।
इस मसौदे को जिस तरह अंतिम रूप दिया गया है उससे साफ है कि यह कुछ उन कथित सामाजिक कार्यकर्ताओं का काम है जिन्होंने गुजरात के अनुभव से यह सीखा है कि वरिष्ठ नेताओं को किसी ऐसे अपराध के लिए कैसे घेरा जाना चाहिए जो उन्होंने नहीं किया। कानून के तहत जो अपराध बताए गए हैं वे कुछ सवाल खड़े करते हैं। सांप्रदायिक और किसी वर्ग को लक्ष्य बनाकर की जाने वाली हिंसा का तात्पर्य है राष्ट्र के पंथनिरपेक्ष ताने-बाने को नष्ट करना। इस मसले पर कुछ उचित राजनीतिक मतभेद हो सकते हैं कि पंथनिरपेक्षता आखिर क्या है? यह एक ऐसा जुमला है जिसका अर्थ अलग-अलग लोगों द्वारा अलग-अलग बताया जाता है। आखिर किस परिभाषा के आधार पर अपराध का निर्धारण किया जाएगा? इसी तरह सवाल यह भी है कि शत्रुतापूर्ण माहौल बनाने से क्या आशय है? प्रस्तावित कानून का परिणाम यह होगा कि किसी भी तरह के सांप्रदायिक संघर्ष में बहुसंख्यक समुदाय को ही दोषी के रूप में देखा जाएगा। मुझे कोई संदेह नहीं कि जो कानून तैयार किया गया है उसे लागू करते ही भारत में संप्रदायों के बीच आपसी रिश्तों में कटुता-वैमनस्यता फैल जाएगी। यह एक ऐसा कानून है जिसके खतरनाक दुष्परिणाम होंगे। यह तय है कि इसका दुरुपयोग किया जाएगा और शायद इस कानून का ऐसा मसौदा तैयार करने के पीछे यही उद्देश्य भी है।
[अरुण जेटली: लेखक पूर्व केंद्रीय मंत्री हैं]
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