Saturday, June 4, 2011

आस्था पर ठेस पहुंचाने का अधिकार किसी को नहीं

निर्मलरानी

प्रस्‍तुति-डॉ0 संतोष राय
                                धार्मिक भावनाएं तथा विश्वास किसी भी मनुष्य के मस्तिष्क में अपना सबसे गहरा स्थान बना लेते हैं। किसी भी धर्म एवं विश्वास से जुड़ा व्यक्ति अपने विश्वास के प्रति गहन आस्थावान रहता है। आमतौर पर यह भी देखा जाता है कि एक धर्म या विश्वास विशेष से प्रेम करने वाला तथा उसके प्रति गहन आस्था रखने वाला व्यक्ति अपने इन्हीं विश्वासों के प्रति सबसे अधिक समर्पित व श्रद्धावान रहता है। कई बार तो यह श्रद्धा व प्रेम दीवानगीकी उन हदों को पार कर जाता है जहां कभी यही श्रद्धावान व्यक्ति अपनी जीभ काटने को तैयार हो जाता है तो कभी अपने बच्चे की बलि देने तक को तैयार हो जाता है। धार्मिक यात्राओं के दौरान यदि आप वैष्णोंदेवी,बद्रीनाथ, केदारनाथ,अमरनाथ, गंगोत्री अथवा यमनोत्री जैसे प्रसिद्ध व प्रतिष्ठित धार्मिक स्थलों की ओर जाएं तो आप देख सकते हंै कि ऐसे ही श्रद्धालू प्रवृति के तमाम भक्तजन दूर-दराज़ से चलकर इन तीर्थस्थलों पर कभी साईकल से पहुंचते हैं तो कभी पैदल और कभी-कभी तो कई भक्तजन दंडवत करने जैसी अति कष्टदायक मुद्रा में ही सैकड़ों किलोमीटर की दूरी तय कर अपने परम ईष्ट के समक्ष शीर्ष झुकाने यहां पहुंचते हैं।
                                आस्था एवं विश्वास के प्रति इस प्रकार के समर्पण का हाल केवल हमारे ही देश की संस्कृति व परंपरा से जुड़ा हुआ नहीं बल्कि यदि दूसरे देशों में अन्य कई धर्मों व समुदायों के लोगों के धार्मिक रीति-रिवाजों, उनकी आस्थाओं व विश्वासों को देखें तो संभवत: वे लोग भारतीय लोगों से भी अधिक समर्पित व आस्थावान नज़र आएंगे। कहीं किसी समुदाय के लोग तलवारों व बर्छियों से अपनी छाती तथा पीठ पर वार कर इस कद्र लहू बहाते हैं कि पूरी ज़मीन रक्तरंजित हो जाती है। ईरान, इरा$,पाकिस्तान तथा भारत जैसे कई देशों में शिया समुदाय के लोग दसवीं मोहर्रम के दिन अपने इमाम हज़रत इमाम हुसैन की याद में पूरी दुनिया में सैकड़ों टन $खून बहा देते हैं। देखने वाला हो सकता है उनकी इस कुर्बानी को अंधविश्वास की संज्ञा दे। परंतु इस प्रकार सडक़ों पर खून बहाना,हुसैन की याद में खुद को घायल करना तथा रोना-पीटना व मातमदारी करना  हज़रत हुसैन के प्रति उनकी गहन श्रद्धा व भक्ति का एक अहम हिस्सा है। बेशक इस प्रकार के $खतरनाक  तथा लहूलुहान कर देने वाले आयोजन में कई लोग अपनी जानें भी गंवा बैठते हैं। परंतु इसके  बावजूद आस्थावानों का यही विश्वास होता है कि इस प्रकार से मरने वाला व्यक्ति निश्चित रूप से स्वर्ग का ही अधिकारी है।
                                इसी प्रकार अन्य कई समुदायों व कबीलों में कोई लोहे की छड़ को अपनी जीभ के आर-पार  कर देता है तो कोई लोहे की छड़ों से अपने दोनों गालों को भेद डालता है। शरीर पर चोट व कष्ट पहुंचाने वाले इस प्रकार के सैकड़ों रीति-रिवाज पूरे विश्व में सदियों से प्रचलित हैं। यहां तक कि इन समुदायों व रीति-रिवाजों से जुड़े लोगों की यही ख्वाहिश होती है कि उनकी यह परंपराएं,रीति-रिवाज तथा धार्मिक विरासतें आगे भी हमेशा कायम रहें। ऐसे लोग जो अपनी ऐसी धार्मिक परंपराओं के प्रति इस हद तक समर्पित हों वे आखिर अपनी इन्हीं धार्मिक परंपराओं व रीति-रिवाजों के विरुद्ध एक भी शब्द कैसे सुन सकते हैं? दुनिया अक्सर देखती रहती है कि कभी कुरान शरीफ को जलाए जाने की घटना को लेकर विश्वव्यापी विरोध प्रदर्शन किए जाने की खबरें आती हैं तो कभी कुछ सिरफिरे लोग पैगम्बर का कार्टून बनाकर मुस्लिम समुदाय की भावनाओं को ठेस पहुंचाने का काम करते हैं। परिणामस्वरूप दुनिया के तमाम देशों की व्यवस्था इन विरोध प्रदर्शनों के चलते बाधित हो जाती है। कहीं दंगे फ़साद हो जाते हें तो कहीं हिंसक प्रदर्शनों में बेगुनाह लोग  अपनी जानें गंवा बैठते हैं। पिछले दिनों आस्ट्रेलिया में एक फैशन शो में भारतीय देवी-देवताओं के चित्रों को  लेडीज़ बिकनी,ब्रा व चप्पलों पर उकेरा हुआ देखा गया। ऐसी घटनाएं पहले भी कई बार हो चुकी हैं। मकबूल फि़दा हुसैन जैसे प्रतिष्ठित भारतीय पेंटर स्वयं धार्मिक भावनाएं भडक़ाने वाली एक पेंटिंग को लेकर विवादों में घिर चुके हैं। क्या किसी भी विश्वास व धर्म के लोगों की भावनाओं को इस प्रकार से ठेस पहुंचाने को हम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कहकर ऐसी बातों को दरगुज़र या नज़रअंदाज़ कर सकते हैं?
                                संसार के सभी धर्मों,संप्रदायों,समुदायों तथा सभी जाति,आस्था तथा विश्वास के लोगों का यह मानवीय कर्तव्य है कि भले ही वे एक-दूसरे धर्म व समुदाय के लोगों के रीति-रिवाजों,परंपराओं तथा विश्वासों से सहमत न हों परंतु वे उनकी परंपराओं का सम्मान अवश्य करें। किसी को यह अधिकार तो $कतई नहीं होना चाहिए कि वह दूसरों की धार्मिक भावनाओं की खिल्ली उड़ाए, उसपर चोट पहुंचाए या उसके विश्वास का मज़ाक़ बनाए। और यदि कोई व्यक्ति ऐसा करता है तो निश्चित रूप से वह व्यक्ति न सिर्फ दूसरों की भावनाओं को आहत करता है बल्कि वह किसी भी समुदाय विशेष से जुड़े अतिवादियों व कट्टरपंथी लोगों को भी खुलकर सामने आने तथा आक्रामक भाषा व तेवर में उस आलोचना का जवाब देने का न्यौता भी देता है। पिछले दिनों हमारे देश में भी कुछ ऐसा ही उस समय देखने का मिला जबकि सामाजिक कार्यकर्ता तथा बंधुआ मज़दूर मुक्ति आंदोलन के अगुवाकार स्वामी अग्रिवेश ने जम्मू-कश्मीर के अलगाववादी नेता सैय्यद अलीशाह गिलानी से हुई एक मुलाकात के दौरान अमरनाथ यात्रा पर अपनी अमर्यादित टिप्पणी कर डाली। स्वामी अग्रिवेश ने अमरनाथ यात्रा को पाखंडपूर्ण आयोजन कऱार दिया। उनका तर्क था कि दो वर्ष पूर्व ग्लोबल वार्मिंग के चलते जब श्री अमरनाथ गु$फा में यात्रा के समय प्राकृतिक रूप से शिवलिंग  निर्माण नहीं हो सका फिर आखिर  वहां वैज्ञानिक तरीकों व साधनों से नकली शिवलिंग स्थापित करने की क्या ज़रूरत थी? अग्निवेश ने इसे पाखंड का ही एक प्रमाण बताया।
                                इसमें कोई शक नहीं कि शिवलिंग की संरचना चाहे वह पत्थरों की हो या बर्फ की यह सभी आकृतियां प्राकृतिक रूप से ही गढ़ी जाती हैं। यदि संगतराश भी तमाम शिवलिंग गढ़ता है तो वह भी अपनी कलाकौशल का प्रदर्शन प्रकृति द्वारा निर्मित पत्थर पर ही करता है। लिहाज़ा शिवलिंग अथवा किसी अन्य देवी-देवता की आकृति के निर्माण में प्रकृति के योगादान को या उसके दखल को तो नकारा ही नहीं जा सकता। परंतु यहां प्रश्न यह है कि जिस जनमानस का गहन विश्वास श्री अमरनाथ गुफा में बनने वाले शिवलिंग से अंर्तात्मा से जुड़ गया है उसे न तो उसके हृदय से व मन-मस्तिष्क से निकाला जा सकता है न ही इसे लेकर उसे चेतन या जागरुक करने की कोई आवश्यकता है। ऐसे में जहां देश के लाखों श्रद्धालू लोग अमरनाथ यात्रा के प्रति इतना भावुक, गंभीर व समर्पित रहते हों वहां स्वामी अग्रिवेश की अमरनाथ यात्रा के प्रति की गई टिप्पणी पर उन भक्तजनों का आक्रोशित होना स्वाभाविक है। अग्रिवेश की इस अमर्यादित एवं आपत्तिजनक टिप्पणी ने कई अतिवादियों को भी अग्रिवेश की इस टिप्पणी के आड़ में प्रचारित होने को मौका दे दिया है। ऐसे ही किसी व्यक्ति ने अग्रिवेश का सिर क़लम किए जाने तथा ऐसा काम करने वाले को इनाम दिए जाने का फतवा भी दे दिया है। अदालतों में भी अग्रिवेश के विरुद्ध इसी मुद्दे को लेकर मुकद्दमे दर्ज किए जाने के भी समाचार हैं।
                                पिछले दिनों अन्ना हज़ारे ने जनलोकपाल विधयेक संसद में लाए जाने की मांग को लेकर भ्रष्टाचार के विरुद्ध जब आंदोलन छेड़ा उस समय स्वामी अग्रिवेश को पूरे देश ने अन्ना हज़ारे के खास सहयोगी के रूप में देखा। इसके पूर्व भी अग्रिवेश को पूरा देश एक समर्पित,गरीबपरवर, मज़दूरों व दीन-दुखियों के हितैषी तथा एक वास्तविक त्यागी के रूप में जानता,मानता व पहचानता है। अंधविश्वास का विरोध करने वालों के रूप में भी उनकी पहचान बन चुकी है। परंतु किसी की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने वाली टिप्पणी कर अग्रिवेश विवादों में घिर गए है । बेहतर होता यदि अग्विेश जैसा साफ-सुथरी तथा बेदाग छवि का व्यक्ति ऐसी अमर्यादित टिप्पणी न करता और वह भी गिलानी जैसे उन अलगाववादी नेताओं के साथ की गई बैठक के दौरान जोकि कश्मीर को भारत से अलग किए जाने के परिपेक्ष्य में ही अमरनाथ यात्रा का विरोध करते रहते हैं। और यदि उन्होंने ऐसा कह भी दिया है तो एक योगी व ब्रह्मचारी होने के नाते उन्हें स्वयं यह बेहतर समझना चाहिए कि ऐसी अशोभनीय टिप्पणी के बाद उन्हें उन लोगों से क्षमा मांग लेनी चाहिए जिन्हें अग्निवेश  के वक्तव्य से ठेस पहुंची है। हमें यह हमेशा याद रखना चाहिए कि आस्था,धर्म, विश्वास, परंपराएं तथा रीति-रिवाज कभी भी तर्क तथा विज्ञान की कसौटी पर नहीं तौले जा सकते। इस राह पर चलने वाले लोग जोकि स्वयं को धार्मिक व आस्थावान कहते हैं उनके लिए उनके रीति-रिवाज व धार्मिक परंपराएं उनके जीवन का सबसे बड़ा विश्वास हैं। भले ही अन्य लोगों के लिए  वही रीति-रिवाज व धार्मिक परंपराएं अंधविश्वास या पाखंड ही क्यों न हों।
                                                                                     

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