अश्वनी कुमार
प्रस्तुति: डॉ0 संतोष राय
हिन्दुओं की सहिष्णुता की परीक्षा सैकड़ों वर्ष पहले ही शुरू हो गई थी। 1920 में गांधी जी ने कांग्रेस को खिलाफत आंदोलन में झोंक दिया और आजादी की लड़ाई दरकिनार हो गई। कारण था कि खिलाफत आंदोलन में बोलते हुए मौलाना अब्दुल बारी ने कहा था कि ''मुसलमानों का सम्मान खतरे में पड़ जाएगा, यदि हमने हिन्दुओं का सहयोग नहीं लिया। हमें गौ वध बंद कर देना चाहिए क्योंकि हम एक ही भूमि की संतान हैं' किन्तु सम्मान का खतरा भारत में नहीं था। यह तुर्की के मुसलमानों की समस्या थी, जिसे भारतीय मुसलमान ओढक़र चल पड़े थे। 1857 के बाद आजादी की लड़ाई में भारतीय मुसलमानों ने कब साथ दिया? वे 1906 में मुस्लिम लीग की स्थापना के बाद से ही अलग से मुस्लिम राष्ट्र की प्राप्ति के लिए आगे बढऩे लगे थे। 1946 का चुनाव इस केन्द्रीय प्रश्र पर ही लड़ा गया था कि भारत अखंड रहे या उसका विभाजन हो और उस चुनाव के परिणामों से स्पष्ट है कि 99 प्रतिशत हिन्दुओं ने कांग्रेस के 'अखंड भारत' के आह्वान के समर्थन में वोट दिए तो 97 प्रतिशत से अधिक मुस्लिम समाज ने जिन्ना के 'पाकिस्तान' की मांग के समर्थन में वोट डाले और मौलाना आजाद जैसे राष्ट्रवादी नेता की पूर्ण उपेक्षा कर दी।
1947 में मिली विभाजित आजादी से लेकर आज तक हुए छोटे-बड़े एक हजार हिन्दू-मुस्लिम दंगे किसने किए? इसका विश्लेषण होना जरूरी है।
सब जानते हैं कि राष्ट्रीय एकता की स्थापना तब तक नहीं हो सकती जब तक सब के मन में स्वदेशी पूर्वजों के प्रति सम्मान, इस देश की पुरातन संस्कृति के प्रति अपनत्व और गौरव और मातृभूमि के प्रति भक्ति का भाव न हो। युगोस्लाविया, चीन, बुल्गारिया आदि ने जो मुस्लिम समस्या को हल करने के लिए लम्बे प्रयास किए, वह असफल क्यों हो गए? इंग्लैंड जैसे उदारवादी देश में बसे मुसलमानों की यह मांग उठती रही है कि एक धार्मिक सम्प्रदाय के नाते उनके लिए अलग संसद बनाई जाए?
क्यों मुस्लिम समस्या ही हमारे लम्बे स्वातंत्र्य संघर्ष के मार्ग में बाधा बनकर खड़ी रही और क्यों देश विभाजन के बाद भी 'स्वतंत्र भारत' की राजनीति भी आज तक इस 'समस्या' के चारों ओर घूम रही है? 'मुस्लिम पहचान की रक्षा' के पुराने प्रश्र, जिसके 'द्विराष्ट्रवाद' के सिद्धांत ने 'पाकिस्तान' के रूप में भारत के सिर पर 'स्थायी शत्रु' बनाकर खड़ा किया, पुन: विकराल रूप लेकर खड़ा हो गया है? कुछ गिने-चुने देशभक्त उदारवादी मुस्लिम नेता अवश्य चिंतित हैं किन्तु उनकी आवाज मुस्लिम समाज में 'नक्कारखाने में तूती' की आवाज जैसी ही है।
समय आ गया है कि यदि इस देश को फिर से एक और विभाजन से बचाना है तो खुले रूप से निर्णय लेना होगा कि इस देश के 'पुरखे श्रीराम और श्रीकृष्ण हैं' और कोई भी ताकत आतताई हमलावर बाबर को उनके समकक्ष खड़ा नहीं कर सकती। सबको यह बात विदित रहनी चाहिए कि 'सैलाब में सब कुछ अपने साथ बहा ले जाने की शक्ति होती है' और पीछे जमीन को फिर से उर्वरा बनाने की भी।
लौकिकता, सर्वधर्म समभाव तथा प्रजातंत्र वास्तव में देश में कभी नहीं चलाए गए। अल्पसंख्यकों के वोट बटोरकर अपनी गद्दी सुरक्षित करने के बाद हिन्दू बहुमत को गाली देना, उन्हें आतंकित करना, उन्हें साम्प्रदायिक तथा देश विरोधी बताना कांग्रेस नेतृत्व की पुरानी प्रवृत्ति है जबकि वह हिन्दू बहुमत के वोट और नोट से ही शासक बनते हैं। अगर हिन्दू साम्प्रदायिक होते तो राज्य हिन्दुत्वनिष्ठ संस्थाओं का होता, इन सेक्युलरवादियों का नहीं। देश का बंटवारा करने वाले मुसलमान तो राष्ट्रीय और कांग्रेस को खंडित भारत का शासक बनाने वाले हिन्दू साम्प्रदायिक कहे जाते हैं। क्या यह विडम्बना नहीं है कि मौ. आजाद ने अपने को अखंड भारत का समर्थक बताया और बंटवारे के लिए नेहरू और पटेल को उत्तरदायी बताया। आज राम मंदिर भूमि विवाद से सम्बन्धित हलचल और असंतोष के लिए सारे विश्व में हमारी ही सरकार हिन्दुओं को उत्तरदायी ठहराकर बदनाम कर रही है। बाहर बीजेपी या आरएसएस को कौन जानता है। विदेशियों की नजर में हिन्दुओं के अत्याचारों के शिकार मुसलमान हो रहे हैं, ऐसा ही प्रचार और प्रसार हो रहा है। प्रतिक्रिया में मंदिर और गुरुद्वारे 'अपमानित' किए जा रहे हैं और हमारी सरकारें जबानी जमा खर्च के अलावा कुछ नहीं कर रही हैं। वे तो अपनी गद्दी की सुरक्षा के लिए विरोधी राजनीतिक पक्ष को बदनाम करने में जुटी हैं। (क्रमश:)
हिन्दुओं की सहिष्णुता की परीक्षा सैकड़ों वर्ष पहले ही शुरू हो गई थी। 1920 में गांधी जी ने कांग्रेस को खिलाफत आंदोलन में झोंक दिया और आजादी की लड़ाई दरकिनार हो गई। कारण था कि खिलाफत आंदोलन में बोलते हुए मौलाना अब्दुल बारी ने कहा था कि ''मुसलमानों का सम्मान खतरे में पड़ जाएगा, यदि हमने हिन्दुओं का सहयोग नहीं लिया। हमें गौ वध बंद कर देना चाहिए क्योंकि हम एक ही भूमि की संतान हैं' किन्तु सम्मान का खतरा भारत में नहीं था। यह तुर्की के मुसलमानों की समस्या थी, जिसे भारतीय मुसलमान ओढक़र चल पड़े थे। 1857 के बाद आजादी की लड़ाई में भारतीय मुसलमानों ने कब साथ दिया? वे 1906 में मुस्लिम लीग की स्थापना के बाद से ही अलग से मुस्लिम राष्ट्र की प्राप्ति के लिए आगे बढऩे लगे थे। 1946 का चुनाव इस केन्द्रीय प्रश्र पर ही लड़ा गया था कि भारत अखंड रहे या उसका विभाजन हो और उस चुनाव के परिणामों से स्पष्ट है कि 99 प्रतिशत हिन्दुओं ने कांग्रेस के 'अखंड भारत' के आह्वान के समर्थन में वोट दिए तो 97 प्रतिशत से अधिक मुस्लिम समाज ने जिन्ना के 'पाकिस्तान' की मांग के समर्थन में वोट डाले और मौलाना आजाद जैसे राष्ट्रवादी नेता की पूर्ण उपेक्षा कर दी।
1947 में मिली विभाजित आजादी से लेकर आज तक हुए छोटे-बड़े एक हजार हिन्दू-मुस्लिम दंगे किसने किए? इसका विश्लेषण होना जरूरी है।
सब जानते हैं कि राष्ट्रीय एकता की स्थापना तब तक नहीं हो सकती जब तक सब के मन में स्वदेशी पूर्वजों के प्रति सम्मान, इस देश की पुरातन संस्कृति के प्रति अपनत्व और गौरव और मातृभूमि के प्रति भक्ति का भाव न हो। युगोस्लाविया, चीन, बुल्गारिया आदि ने जो मुस्लिम समस्या को हल करने के लिए लम्बे प्रयास किए, वह असफल क्यों हो गए? इंग्लैंड जैसे उदारवादी देश में बसे मुसलमानों की यह मांग उठती रही है कि एक धार्मिक सम्प्रदाय के नाते उनके लिए अलग संसद बनाई जाए?
क्यों मुस्लिम समस्या ही हमारे लम्बे स्वातंत्र्य संघर्ष के मार्ग में बाधा बनकर खड़ी रही और क्यों देश विभाजन के बाद भी 'स्वतंत्र भारत' की राजनीति भी आज तक इस 'समस्या' के चारों ओर घूम रही है? 'मुस्लिम पहचान की रक्षा' के पुराने प्रश्र, जिसके 'द्विराष्ट्रवाद' के सिद्धांत ने 'पाकिस्तान' के रूप में भारत के सिर पर 'स्थायी शत्रु' बनाकर खड़ा किया, पुन: विकराल रूप लेकर खड़ा हो गया है? कुछ गिने-चुने देशभक्त उदारवादी मुस्लिम नेता अवश्य चिंतित हैं किन्तु उनकी आवाज मुस्लिम समाज में 'नक्कारखाने में तूती' की आवाज जैसी ही है।
समय आ गया है कि यदि इस देश को फिर से एक और विभाजन से बचाना है तो खुले रूप से निर्णय लेना होगा कि इस देश के 'पुरखे श्रीराम और श्रीकृष्ण हैं' और कोई भी ताकत आतताई हमलावर बाबर को उनके समकक्ष खड़ा नहीं कर सकती। सबको यह बात विदित रहनी चाहिए कि 'सैलाब में सब कुछ अपने साथ बहा ले जाने की शक्ति होती है' और पीछे जमीन को फिर से उर्वरा बनाने की भी।
लौकिकता, सर्वधर्म समभाव तथा प्रजातंत्र वास्तव में देश में कभी नहीं चलाए गए। अल्पसंख्यकों के वोट बटोरकर अपनी गद्दी सुरक्षित करने के बाद हिन्दू बहुमत को गाली देना, उन्हें आतंकित करना, उन्हें साम्प्रदायिक तथा देश विरोधी बताना कांग्रेस नेतृत्व की पुरानी प्रवृत्ति है जबकि वह हिन्दू बहुमत के वोट और नोट से ही शासक बनते हैं। अगर हिन्दू साम्प्रदायिक होते तो राज्य हिन्दुत्वनिष्ठ संस्थाओं का होता, इन सेक्युलरवादियों का नहीं। देश का बंटवारा करने वाले मुसलमान तो राष्ट्रीय और कांग्रेस को खंडित भारत का शासक बनाने वाले हिन्दू साम्प्रदायिक कहे जाते हैं। क्या यह विडम्बना नहीं है कि मौ. आजाद ने अपने को अखंड भारत का समर्थक बताया और बंटवारे के लिए नेहरू और पटेल को उत्तरदायी बताया। आज राम मंदिर भूमि विवाद से सम्बन्धित हलचल और असंतोष के लिए सारे विश्व में हमारी ही सरकार हिन्दुओं को उत्तरदायी ठहराकर बदनाम कर रही है। बाहर बीजेपी या आरएसएस को कौन जानता है। विदेशियों की नजर में हिन्दुओं के अत्याचारों के शिकार मुसलमान हो रहे हैं, ऐसा ही प्रचार और प्रसार हो रहा है। प्रतिक्रिया में मंदिर और गुरुद्वारे 'अपमानित' किए जा रहे हैं और हमारी सरकारें जबानी जमा खर्च के अलावा कुछ नहीं कर रही हैं। वे तो अपनी गद्दी की सुरक्षा के लिए विरोधी राजनीतिक पक्ष को बदनाम करने में जुटी हैं। (क्रमश:)
Courtsey:अश्वनी कुमार, सम्पादक (पंजाब केसरी)
दिनांक- 21-11-2011
दिनांक- 21-11-2011
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