अश्वनी कुमार
प्रस्तुति- डॉ0 संतोष राय
आजादी के बाद भी कांग्रेस और अन्य दलों ने सत्ता के लिए हमेशा हिन्दुवादी संगठनों को निशाना बनाया। इसे देश का दुर्भाग्य कहें या पंडित नेहरू का सौभाग्य कि उन्होंने भी उस समय तेजी से शक्तिशाली हो रहे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को कुचलने का प्रयास किया। महात्मा गांधी की हत्या का घृणित आरोप लगाकर संघ पर प्रतिबंध लगाया गया। दिन-रात दुष्प्रचार कर जनता के मन में संघ के प्रति घृणा भर दी और इस तरह अपनी पार्टी और वंश का राजनीतिक मार्ग प्रशस्त कर दिया। महात्मा गांधी की हत्या में संघ निर्दोष पाया गया और दो वर्ष बाद उससे प्रतिबंध हटा लिया गया। कई बार संघ पर प्रतिबंध लगाया और हटाया गया। कांग्रेस आज भी पुराना खेल खेल रही है और तुष्टीकरण की नीतियों के चलते हिन्दू आतंकवाद का हौवा खड़ा कर रही है। वर्तमान में यह भूमिका चिदम्बरम व दिग्गी राजा निभा रहे हैं। हिन्दुस्तान में हिन्दू धर्म को अपमानित किया जाता है जबकि हिन्दू धर्म किसी दूसरे धर्म का अपमान नहीं करता। इस पर मुझे एक प्रसंग याद आ रहा है।
''सर्वपल्ली राधाकृष्णन जब एक छोटे ईसाई स्कूल में पढ़ते थे तभी से हिन्दू धर्म के प्रति ईसाई अध्यापकों के द्वेषपूर्ण उद्गारों को सुनते आए थे। स्कूल में लडक़ों को 'बाइबल' तो पढ़ाई ही जाती थी पर बात-बात में हिन्दू धर्म की हंसी उड़ाना भी ईसाई पादरियों का नित्यकर्म बन गया था। बालक राधाकृष्णन को यह बुरा तो लगता था पर धर्म के रहस्यों से अनजान होने के कारण वे अधिक बोल नहीं सकते थे। फिर भी इन बातों से उनका मन धर्म के स्वरूप की तरफ आकर्षित हो गया और वे इस विषय की पुस्तकों को पढक़र उन पर विचार करने लगे। उन्होंने स्वामी विवेकानंद की पुस्तकें पढ़ीं और उनसे उनको निश्चय हो गया कि हिन्दू धर्म ईसाई धर्म की अपेक्षा अधिक सारयुक्त और उपयुक्त है। अब वे ईसाई पादरियों की बातें सुनकर चुप नहीं रहते थे, वरन् कभी-कभी अपना असंतोष भी प्रकट कर देते थे।
वे ईसाई धर्म की निंदा नहीं करते थे, वरन् पादरियों की द्वेषदर्शी मनोवृत्ति की ही आलोचना करते थे। जब कोई पादरी उनके सामने हिन्दू धर्म की निंदा करता तो वे कहने लगते-'पादरी महोदय! आपका धर्म दूसरे धर्मों की निंदा करना ही सिखाता है क्या?'
पादरी उत्तर देते- 'और हिन्दू धर्म? क्या दूसरों की प्रशंसा करता है? 'हां, वह कभी दूसरों के धर्म को बुरा नहीं कहता। भगवद्गीता में भगवान कृष्ण ने यही कहा है कि किसी भी देव की उपासना करने से मेरी ही उपासना होती है और मैं उसका प्रतिफल देता हूं। ये विभिन्न मजहब और सम्प्रदाय उन अनेक रास्तों की तरह हैं जो विभिन्न दिशाओं से आकर एक ही केन्द्र पर मिल जाते हैं। इनमें से किसी को सच्चा और अन्यों को झूठा कहना उचित नहीं।'
जब कभी कोई पादरी हिन्दू रीति-रिवाजों की आलोचना करता तो वे कहते-
'पादरी साहब! हो सकता है आप हमारे इन रीति-रिवाजों का महत्व न समझें, किन्तु चिरकाल से चली आ रही इन्हीं प्रथाओं ने हमारे विश्वास और श्रद्धा को स्थिर रखा है, जो धर्म का मूल है। मेरे देश का एक साधारण किसान भी, जो इन्हीं विश्वासों के साथ अपना जीवनयापन करता है, आज के विज्ञान की चकाचौंध से पागल बने किसी भी पाश्चात्य देश के अपने को ज्ञान सम्पन्न कहने वाले व्यक्ति से अधिक धार्मिक है। अधकचरे विज्ञान ने तो आज करोड़ों पाश्चात्यजनों की श्रद्धा को ऐसा निर्बल बना दिया है कि वे किसी भी धर्म के विश्वासी और अनुयायी नहीं रह पाते। इस प्रकार धर्म बल से रहित व्यक्ति क्या कभी सच्चा सुख पा सकता है? आप निश्चय समझ लें कि भारतवर्ष के जिन तपस्वियों और आचार्यों ने संसार को ऐसी महान संस्कृति दी और उसका लाभ बिना धर्म और सम्प्रदाय के भेदभाव के मानव मात्र को पहुंचाया, उनको कभी धर्म शून्य नहीं कहा जा सकता?' (क्रमश:)
''सर्वपल्ली राधाकृष्णन जब एक छोटे ईसाई स्कूल में पढ़ते थे तभी से हिन्दू धर्म के प्रति ईसाई अध्यापकों के द्वेषपूर्ण उद्गारों को सुनते आए थे। स्कूल में लडक़ों को 'बाइबल' तो पढ़ाई ही जाती थी पर बात-बात में हिन्दू धर्म की हंसी उड़ाना भी ईसाई पादरियों का नित्यकर्म बन गया था। बालक राधाकृष्णन को यह बुरा तो लगता था पर धर्म के रहस्यों से अनजान होने के कारण वे अधिक बोल नहीं सकते थे। फिर भी इन बातों से उनका मन धर्म के स्वरूप की तरफ आकर्षित हो गया और वे इस विषय की पुस्तकों को पढक़र उन पर विचार करने लगे। उन्होंने स्वामी विवेकानंद की पुस्तकें पढ़ीं और उनसे उनको निश्चय हो गया कि हिन्दू धर्म ईसाई धर्म की अपेक्षा अधिक सारयुक्त और उपयुक्त है। अब वे ईसाई पादरियों की बातें सुनकर चुप नहीं रहते थे, वरन् कभी-कभी अपना असंतोष भी प्रकट कर देते थे।
वे ईसाई धर्म की निंदा नहीं करते थे, वरन् पादरियों की द्वेषदर्शी मनोवृत्ति की ही आलोचना करते थे। जब कोई पादरी उनके सामने हिन्दू धर्म की निंदा करता तो वे कहने लगते-'पादरी महोदय! आपका धर्म दूसरे धर्मों की निंदा करना ही सिखाता है क्या?'
पादरी उत्तर देते- 'और हिन्दू धर्म? क्या दूसरों की प्रशंसा करता है? 'हां, वह कभी दूसरों के धर्म को बुरा नहीं कहता। भगवद्गीता में भगवान कृष्ण ने यही कहा है कि किसी भी देव की उपासना करने से मेरी ही उपासना होती है और मैं उसका प्रतिफल देता हूं। ये विभिन्न मजहब और सम्प्रदाय उन अनेक रास्तों की तरह हैं जो विभिन्न दिशाओं से आकर एक ही केन्द्र पर मिल जाते हैं। इनमें से किसी को सच्चा और अन्यों को झूठा कहना उचित नहीं।'
जब कभी कोई पादरी हिन्दू रीति-रिवाजों की आलोचना करता तो वे कहते-
'पादरी साहब! हो सकता है आप हमारे इन रीति-रिवाजों का महत्व न समझें, किन्तु चिरकाल से चली आ रही इन्हीं प्रथाओं ने हमारे विश्वास और श्रद्धा को स्थिर रखा है, जो धर्म का मूल है। मेरे देश का एक साधारण किसान भी, जो इन्हीं विश्वासों के साथ अपना जीवनयापन करता है, आज के विज्ञान की चकाचौंध से पागल बने किसी भी पाश्चात्य देश के अपने को ज्ञान सम्पन्न कहने वाले व्यक्ति से अधिक धार्मिक है। अधकचरे विज्ञान ने तो आज करोड़ों पाश्चात्यजनों की श्रद्धा को ऐसा निर्बल बना दिया है कि वे किसी भी धर्म के विश्वासी और अनुयायी नहीं रह पाते। इस प्रकार धर्म बल से रहित व्यक्ति क्या कभी सच्चा सुख पा सकता है? आप निश्चय समझ लें कि भारतवर्ष के जिन तपस्वियों और आचार्यों ने संसार को ऐसी महान संस्कृति दी और उसका लाभ बिना धर्म और सम्प्रदाय के भेदभाव के मानव मात्र को पहुंचाया, उनको कभी धर्म शून्य नहीं कहा जा सकता?' (क्रमश:)
Courtsey:अश्वनी कुमार, सम्पादक (पंजाब केसरी)
दिनांक – 16-11-2011
दिनांक – 16-11-2011
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