अश्वनी कुमार
प्रस्तुति- डॉ0 संतोष राय
देश के विरुद्ध जंग छेडऩे सहित कई संगीन अपराधों में दोषी करार दिए गए पाक आतंकवादी अजमल कसाब को जस्टिस ताहिलियानी ने सजा-ए-मौत सुनाई थी। निश्चय ही अदालत के फैसले से मुम्बई के आतंकी हमलों में मारे गए निर्दोष लोगों के परिवारों को एक सुकून मिला होगा जिनके परिवार के सदस्य बिना किसी अपराध के ही काल कवलित हो गए थे। शुक्र है कि कसाब जिन्दा पकड़ा गया वरना ये तो पूरी तैयारी के साथ तिलक लगाकर आए थे। सारे के सारे मारे जाते तो तथाकथित धर्मनिरपेक्ष लोग इन्हें हिन्दू करार देते और भारत कभी भी इनका संबंध पाकिस्तान से साबित नहीं कर पाता। ये हिन्दू आतंकवादी नहीं, यह साबित करना भी हिन्दुओं के लिए मुश्किल हो जाता। यह कैसा देश है जहां हत्यारों के बचाव के लिए विधानसभाओं में प्रस्ताव पारित किए जाते हैं। देश में एक नई विचारधारा सृजित करने का प्रयास किया जा रहा है। कभी यहां राजीव गांधी के हत्यारों को आम माफी देने की बात की जाती है तो कभी कसाब की फांसी की सजा माफ करने की मांग की जाती है।
कसाब को सजा सुनाए जाते समय सत्र न्यायालय ने जो टिप्पणियां की थीं, वे काफी आंखें खोलने वाली थीं। न्यायालय ने कहा था कि ''कसाब जैसे आतंकवादी सुधर नहीं सकते। जेहाद के नाम पर धर्मांध लोग कुछ भी कर सकते हैं या इनसे कुछ भी कराया जा सकता है। बेशक ये देश और समाज के साथ मानवता के भी दुश्मन हैं और इन्हें छोड़ देना उपरोक्त तीनों को खतरे में डालना है।''
यह कितना दु:खद है कि इस देश में आतंकवादी को सजा दिए जाने का मामला अब राजनीति का विषय बन चुका है। सभ्य समाज में सजा के दो उद्देश्य होते हैं- व्यक्ति के भीतर पश्चाताप का बोध कराना और दूसरों में भय पैदा करना कि यदि उसने भी अपराध किया तो उन्हें भी ऐसी ही सजा मिलेगी।
मौत से हर व्यक्ति डरता है, इसलिए फांसी से अधिक भय पैदा करने वाली सजा कोई दूसरी नहीं हो सकती। अब मानवाधिकार के कुछ समर्थक पहले की ही तरह यह दलीलें दे रहे हैं कि मृत्युदंड की सजा प्रकृति के नियम के खिलाफ है और किसी को भी किसी का जीवन छीनने का अधिकार नहीं। बेशक वे यह बात कहते हुए बेशर्मी से इस बात को भूल जाएंगे कि जिन मासूम निर्दोषों को इन हैवान बन चुके इंसानों ने बेवजह गोलियों से भून डाला, जीने का अधिकार तो उनको भी था। कसाब के मुकद्दमे और उसकी कड़ी सुरक्षा पर सरकार ने केवल इसलिए करोड़ों रुपए खर्च कर दिए कि कोई यह न कहे कि भारत में आतंकवादी कसाब के साथ कोई नाइंसाफी हुई है।
अफजल के बाद कसाब की सजा पर अमल को लेकर जमकर राजनीति हो रही है। सवाल यह है कि अगर फांसी की सजा पर राजनीति की जा रही है तो देश पर आक्रमण करने वालों, सैकड़ों मासूमों का कत्ल कर देने वाले हैवानों को कौन सी सजा दी जाए? जब मौत की सजा का प्रावधान होते हुए भी इन आतंकवादियों को कानून का लेशमात्र भी डर नहीं रहा तो फिर हालात कैसे होंगे। कसाब की सजा को लटका कर वोटों की राजनीति का गणित बैठाया जा रहा है। बहुत से सवाल हैं जिनका उत्तर सरकार, प्रशासन, न्याय व्यवस्था और खुद समाज को ढूंढने होंगे। अगर सरकार कसाब को सजा नहीं देती और उसे जेल में बिरयानी ही खिलाती है तो इतनी महंगी न्यायिक प्रक्रिया चलाने की जरूरत ही क्या थी। इंदिरा गांधी ने राजनयिक रविन्द्र हरेश्वर म्हात्रे की हत्या होने दी लेकिन मकबूल बट्ट को रिहा नहीं किया था। मकबूल बट्ट को फांसी की सजा दी गई थी। केन्द्र सरकार को याद रखना चाहिए कि पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल अरुण कुमार वैद्य के हत्यारे को क्षमादान देने की याचिका पर तत्कालीन राष्ट्रपति आर. वेंकटरमण ने महज 13 घंटे के भीतर फैसला किया था। एक नहीं कई उदाहरण कांग्रेस के सामने मौजूद हैं। यह देश कैसे उदाहरण स्थापित करना चाहता है, इसके बारे में कांग्रेस को सोचना होगा। यदि भारत को बचाना है तो आतंकवाद और न्यायिक फैसले को राजनीति में घसीटा नहीं जाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद किसी को हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं होना चाहिए। कांग्रेस को देश के सम्मान की नहीं अपना सम्मान बचाने की चिंता है, इसलिए वह केवल वोटों को निहारती है।(क्रमश:)
sabhar:अश्वनी कुमार, सम्पादक (पंजाब केसरी)
दिनांक- 19-11-2011
दिनांक- 19-11-2011
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