अश्वनी कुमार
प्रस्तुति- डॉ0 संतोष राय
भारत पूरी दुनिया में श्रीराम और श्रीकृष्ण की भूमि के रूप में जाना जाता है, लेकिन अफसोस अयोध्या में आज तक भव्य श्रीराम मंदिर का निर्माण नहीं हो सका। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेश के बावजूद मामला सर्वोच्च न्यायालय में है। श्रीराम मंदिर निर्माण को लेकर जितनी राजनीति इस देश में की गई, उतनी तो मस्जिदों के स्थानांतरण को लेकर मुस्लिम राष्ट्रों में भी नहीं हुई। अफसोस श्रीकृष्ण जन्मभूमि और हिन्दुओं के अन्य आस्था स्थल भी मुक्त नहीं हैं।
राष्ट्रीय अस्मिता और धर्मनिरपेक्षता के बारे में विभिन्न बुद्धिजीवी अपने विचार व्यक्त करते रहते हैं। मुझे अध्ययन के समय पत्तों की तरह जर्द पड़ चुके कागज के कुछ पन्ने मिले, जो सूबेदार मेजर योगेन्द्र कृष्ण ने कभी मुझे भेजे थे। मैं पाठकों के समक्ष उनके विचार प्रस्तुत करना चाहूंगा-
'यह बात निर्विवाद रूप से सोलह आने सत्य है कि भारत वर्ष विश्व में राम और कृष्ण की भूमि के नाम से जाना जाता है और तमाम तथाकथित बुद्धिजीवियों, लेखकों द्वारा भ्रम निर्माण करते रहने के प्रयत्नों के बावजूद बाबर एक हमलावर के रूप में ही इतिहास में दर्ज है और रहेगा। इन लोगों को श्रीराम और बाबर में हिन्दू-मुसलमान का ही अन्तर दिखाई देता है। भारत व संसार भर के करोड़ों लोग प्रतिवर्ष श्रीराम जन्मभूमि और श्रीकृष्ण जन्मभूमि पर विग्रह के दर्शन, पूजन हेतु हजारों वर्षों से आते रहे हैं। तो क्या वे एक कल्पना पर ही इतनी श्रद्धा और विश्वास लेकर आते हैं? इसे गम्भीरता और बुद्धिमतापूर्वक समझने से सब भ्रांतियां तिरोहित हो जाएंगी। हमारे नेता राष्ट्रीय एकता, धर्मनिरपेक्षता, साम्प्रदायिक सद्भाव, जाति विहीन समाज, सामाजिक न्याय आदि की लम्बी-चौड़ी बातें करते आ रहे हैं तो फिर हम उससे एकदम उल्टी दिशा में बढ़ते हुए क्यों दीख रहे हैं जो देश को पुन: विभाजन के निकट ला रही है? हम लम्बे समय से इस विनाशकारी राजनीतिक प्रणाली का सक्रिय अंग हो चुके हैं और इससे यह विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है कि हमारा राजनीतिक नेतृत्व अपनी चुनाव रणनीति और वादे गणित का पूरा गुलाम बन चुका है। उनकी धारणा पक्की बन चुकी है कि मुस्लिम समुदाय ही सबसे पक्का और सबसे बड़ा आधार है क्योंकि मुस्लिम मतदाता अपने वोट मजहबी आधार पर ही प्रयोग करते हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि उनका धर्मनिरपेक्षता का अर्थ 'हिन्दू आक्रामकता' कहां है? इसी हिन्दू समाज ने 'अपने ही' भ्रांत नेताओं द्वारा 'छाती पर लगे विभाजन के ताजे घाव' को झेलकर भी मुसलमानों को स्वाधीन भारत के 'संविधान' में अपने से भी अधिक अधिकार प्रदान करने दिए। हमारे ऋषियों की देन 'एकं सद्विप्रा: बहुध वर्दांत' के घोष वाक्य की देन के कारण ही हिन्दू समाज ने बहुसंख्यक होते हुए भी यह असामान्य निर्णय लिया। इसमें किसी प्रकार की मजबूरी नहीं थी। इसी के साथ पाकिस्तान ने आजादी के बाद ही 'मुस्लिम राष्ट्र' की घोषणा कर दी जिसका परिणाम स्पष्ट दिख रहा है कि विभाजन के बाद हिन्दुओं की संख्या वहां करोड़ से घटकर लाख रह गई। बंगलादेश में भी हिन्दुओं की 'दुर्गति' ठीक वैसी ही हो रही है।
एक ही ऐतिहासिक पृष्ठभूमि वाले इस भूखंड के इन तीनों भागों के आचरण के इस भारी अंतर पर ध्यान दें तो अंतर साफ दिखाई देता है। उन लोगों ने इस्लामी प्रभुसत्ता स्वीकार की और अल्पसंख्यक लोगों को जीवित लाशें बना दिया और यहां आज भी 'धर्मनिरपेक्षता' जैसे शासन प्रबंध को स्वीकार ही नहीं किया, इसकी आवाज अधिकांश हिन्दू ही उठा रहे हैं। इसे हमारी कायरता समझा जा रहा है। देश के भीतर और बाहर सब तरह की उत्तेजनाओं के बावजूद भी भारत यदि अब तक धर्मनिरपेक्षवाद पर डटा है, तो उसका एकमात्र कारण हिन्दू परम्परा और हिन्दू मानस ही है, जिसे वे दिन-रात कोसते रहते हैं। (क्रमश:)
साभार: अश्वनी कुमार, सम्पादक (पंजाब केसरी)
दिनांक- 20-11-2011
दिनांक- 20-11-2011
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