डॉ0 संतोष राय
झाँसी की महारानी लक्ष्मीबाई का जन्म 19 नवंबर, 1828 को काशी के पवित्र भूमि असीघाट, वाराणसी में हुआ था। इनके पिता का नाम मोरोपंत तांबे और माता का नाम भागीरथी बाई था। इनका बचपन का नाम मणिकर्णिका' रखा गया परन्तु प्यार से मणिकर्णिका को 'मनु' कहकर बुलाया जाता था। मनु की बाल्यावस्था में ही उसकी माँ का देहान्त हो गया। पिता मोरोपंत तांबे एक साधारण ब्राह्मण और अंतिम पेशवा बाजीराव द्वितीय के यहां काम करते थे। माता भागीरथी बाई सुशील, चतुर और रूपवती गृहकार्य में दक्ष महिला थीं। अपनी माँ की मृत्यु हो जाने पर वह पिता के साथ बिठूर आकर उन्होंने मल्लविद्या, घुड़सवारी और शस्त्रविद्याएँ आदि सीखीं। चूँकि घर में मनु की देखभाल के लिए कोई नहीं था इसलिए उनके पिता मोरोपंत मनु को अपने साथ बाजीराव के दरबार में ले जाते थे जहाँ चंचल एवं सुन्दर मनु ने सबका मन मोह लिया था। बाजीराव मनु को प्यार से 'छबीली' कहकर बुलाने थे।
समय गुजरता गया और मनु विवाह योग्य हो गयी। इनका विवाह सन 1842 में झाँसी के राजा गंगाधर राव निवालकर के साथ बड़े ही धूम-धाम से सम्पन्न हुआ। विवाह के बाद इनका नाम बदलकर लक्ष्मीबाई रखा गया। इस प्रकार काशी की कन्या मनु झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई बन गई। 1851 में उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। दुर्भाग्यवश 1853 तक उनके पुत्र एवं पति दोनों का देहावसान हो गया। रानी ने अब एक दत्तक पुत्र लेकर राजकाज देखने लगी, किन्तु कम्पनी शासन उनका राज्य छीन हडपना चाहती थी। रानी ने जितने दिन भी शासन किया वे ज्यादा से रानी बनकर लक्ष्मीबाई को पर्दे में रहना पड़ता था। स्वच्छन्द विचारों वाली रानी को यह रास नहीं आया। उन्होंने क़िले के अन्दर ही एक व्यायामशाला बनवाई और शस्रादि चलाने तथा घुड़सवारी हेतु आवश्यक प्रबन्ध किए। उन्होंने स्रियों की एक सेना भी तैयार की। राजा गंगाधर राव अपनी पत्नी की योग्यता से बहुत प्रसन्न थे। महारानी अत्यन्त दयालु भी थीं एक दिन जब कुलदेवी महालक्ष्मी की पूजा करके वापस आ रही थीं, कुछ निर्धन लोगों ने उन्हें चारों तरफ से घेर लिया। उन्हें देखकर महारानी का हृदय पसीज गया। उन्होंने नगर में घोषणा करवा दी कि एक निश्चित दिन ग़रीबों में वस्रादि का वितरण किया जायेगा।
उस समय भारत के बड़े भू-भाग पर अंग्रेज़ों का शासन था। वे झाँसी को अन्य राज्यों की तरह गुलाम बनाना चाहते थे।उन्हें यह एक अच्छा अवसर हाथ लगा। उन्होंने रानी के दत्तक-पुत्र को राज्य का उत्तराधिकारी मानने से पूरी तरह इंकार कर दिया और रानी के पत्र लिख भेजा कि चूँकि राजा का कोई पुत्र नहीं है, इसीलिए झाँसी पर अब अंग्रेज़ों के कब्जे में होगा। रानी यह सुनकर क्रोध से भर उठीं एवं सिंहनाद की कि मैं अपनी झाँसी को अंग्रेजों को नहीं दूँगी। अंग्रेज़ यह सुन पूरी तरह बौखा उठे। परिणाम स्वरूप अंग्रेज़ों ने झाँसी पर चौतरफा आक्रमण कर दिया। रानी ने भी युद्ध की पूरी तैयारी कर रखी थी। क़िले की प्राचीर पर मजबूत तोपें रखवायीं। रानी ने अपने महल के सोने एवं चाँदी के सामान तोप के गोले बनाने के लिए भेज दिया। रानी के कुशल एवं विश्वसनीय तोपची थे गौस खाँ तथा ख़ुदा बक्श जी। रानी ने पूरे क़िले की मज़बूत क़िलाबन्दी की जिससे परिंदा भी पर न मार सके। रानी के इस कौशल को देखकर अंग्रेज़ सेनापित सर ह्यूरोज भी भौचक्का हो गया। अंग्रेज़ों ने क़िले को घेर कर चारों ओर से बुरी तरह आक्रमण किया। अंग्रेज़ आठ दिनों तक क़िले पर गोले पर गोले बरसाते रहे परन्तु क़िला वे फतह न कर सके। रानी ने यह कसम खाई कि अन्तिम श्वाँस तक क़िले की हर तरह से रक्षा करेंगे। अंग्रेज़ सेनापति ह्यूराज ने यह महसूस किया कि सैन्य-बल से क़िला जीतना मुमकिन नहीं है। अत: उसने कूटनीति व छल का सहारा लिया और झाँसी के ही एक विश्वासघाती सरदार दूल्हा सिंह को खरीद लिया लिया जिसने क़िले का दक्षिणी द्वार खोल दिया। फिरंगी सेना क़िले में प्रवेश कर गई और लूटपाट तथा हिंसा का तांडव कर दिया।
घोड़े पर सवार, दाहिने हाथ में नंगी तलवार लिए, पीठ पर पुत्र को बाँधे हुए रानी ने रणचण्डी की तरह शत्रु दल का संहार करने लगीं। झाँसी के वीर सैनिक भी शत्रुओं पर टूट पड़े। जय भवानी और हर-हर महादेव के उद्घोष से रणभूमि गुंजायमान हो उठा। किन्तु झाँसी की सेना अंग्रेज़ों की तुलना में बहुत छोटी थी। रानी अंग्रेजों से तो लड सकती थी मगर अपने देश के गद्दारों से कैसे लड़ती, रानी अंग्रेज़ों से घिर गयीं। कुछ विश्वासपात्रों की मदद और सलाह पर रानी कालपी की ओर कूच कर गयी। दुर्भाग्य से एक गोली रानी के पैर को छेद दिया और उनकी गति कुछ धीमी हो जाने के कारण, अंग्रेज़ सैनिक उनके नजदीक आ गए।
जब कालपी छिन गई तो रानी लक्ष्मीबाई ने तात्या टोपे के मदद से शिन्दे की राजधानी ग्वालियर पर हमला बोला, जो अपनी फ़ौज के साथ कम्पनी के साथ वफ़ादारी निभा रहा था। लक्ष्मीबाई के हमला करने पर वह अपने जान की हिफाजत के लिये आगरा भागा और वहाँ अंग्रेज़ों की मदद मांगी। लक्ष्मीबाई की वीरता देखकर शिन्दे की फ़ौज विद्रोहियों को अपनी ओर मिला लिया। रानी लक्ष्मीबाई तथा उसके सहयोगियों ने नाना साहब को पेशवा घोषित कर दिया और महाराष्ट्र की ओर धावा मारने का मन बनाया इससे मराठों में भी विद्रोहाग्नि की ज्वाल धधक जाए। इस संकटपूर्ण समय पर ह्यूरोज तथा उसकी सेना ने रानी लक्ष्मीबाई को और अधिक सफलताएँ प्राप्त करने से रोकने के लिए जी-जान लगा दिया। उसने ग्वालियर फिर से लिया और मुरार तथा कोटा की दो लड़ाइयों में रानी की सेना को हरा दिया। रानी ने अपना घोड़ा बहुत तेजी से दौड़ाया मगर भाग्य ने धोखा दे दिया रास्ते में एक नाला आ गया। घोड़ा नाला पर तेजी से छलांग न लगा पाया। तभी अंग्रेज़ घुड़सवार वहाँ पहुंच गया । एक ने पीछे से रानी के सिर पर हमला बोल दिया, जिससे उनके सिर का दाहिना भाग कट गया और उनकी एक आँख भी बाहर चली आयी। उसी समय दूसरे गोरे सैनिक ने संगीन से उनके छाती पर वार पर वार किया। लेकिन अत्यंत घायल होने पर भी रानी अपनी तलवार चलाती रहीं और उन्होंने दोनों आक्रमणकारियों का वध कर डाला। फिर वे स्वयं भूमि पर गिर पड़ी। चारों तरफ लहू से धरती लाल हो गयी।
वफादार पठान सरदार गौस ख़ाँ अब भी रानी के साथ था। उसका दावानल रौद्र रूप देख कर गोरे भाग खड़े हुए। स्वामिभक्त रामराव देशमुख अन्त तक रानी के साथ ही था, अंत तक रानी के सेवा में कोई कमी नही रखा। उन्होंने रानी के रक्त रंजित शरीर को समीप ही बाबा गंगादास की कुटिया में पहुँचाया। रानी ने अत्यंत प्यास से व्याकुल हो जल माँगा और बाबा गंगादास ने उन्हें अपने पवित्र हांथों से जल पिलाया। झाँसी की रानी को मरवाने में किसने प्रमुख भूमिका निभाया? (2)
बहुत कम लोगों को यह ज्ञात होगा कि आज से डेढ़ सौ वर्ष पूर्व पहले उस वीरांगना झाँसी की रानी को मरवाने में ग्वालियर के उस सिंधिया परिवार ने प्रमुख भूमिका अदा की थी। मगर अफसोस कि वही सिंधिया परिवार के लोग विभिन्न पार्टियों में रहकर आज भी देश की सत्ता पर आए दिन आरूढ हो जाते हैं।
जब रानी लक्ष्मी बाई, नाना साहेब, तांत्या टोपे जैसे बहादुर युद्ध भूमि में अंग्रेजों से लड रहे थे तब तांत्या टोपे ने इस बात को समझा कि युद्ध में सफल होने के लिए उन्हें ग्वालियर जैसे सुरक्षित किले में शरण लेने की आवश्यकता है। अंग्रेजों के गुलाम सिंधिया ने अपनी तोपों का मुँह रानी की सेना की ओर कर दिया, मगर फिर भी रानी झाँसी और उनकी सेना ने किले पर बल पूर्वक अधिकार कर लिया। सिंधिया गीदडों की तरह भागकर आगरा में अंग्रेजों की छावनी में शरण ली। युद्ध खिंचता चला गया। अंत में १७ जून १८५८ को लक्ष्मीबाई को सिंधिया की सहायता से धोखे से मार दिया गया। रानी के बलिदान होने के बाद अंग्रेजों ने तात्या टोपे को हिरासत में ले लिया और 1857 के आज़ादी के संघर्ष को पूरी तरह से कुचल दिया गया। और तात्या को दो बार सूली पर चढाया गया। इसके बाद 1857 के कई स्वतन्त्रता सेनानी और उनके परिवार के लोग बरसों तक अँगरेज़ों और सिंधिया के सिपाहियों से छिपकर अन्यत्र इधर-उधर भागते फिर रहे थे।
झांसी की रानी को किसी ने सम्मान दिया हो या न दिया हो मगर हमारे वीर नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने जब आजाद हिंद फौज में पहली महिला रेजिमेंट बनाया तो उसका नामकरण रानी लक्ष्मीबाई के सम्मान में रानी झाँसी रेजीमेंट रखा था।
कवयित्री सुभुद्रा कुमारी चौहान ने अपनी कविता खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी ...से झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई को हमेशा-हमेश के लिये अमर कर दिया बल्कि इस देश के स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में एक और सुनहरा पन्ना जोड़ दिया है, महान कवियित्री ने अपनी इस कालजयी कविता में रानी लक्ष्मीबाई के वीरता, अदम्य साहस और बलिदान को जिस सुन्दरता से अभिव्यक्ति दी है, उसके मुकाबले में आज तक न तो झाँसी की रानी की वीरता के गौरव-गाथा लिखने वाला कोई कवि, लेखक नही हुआ।
प्रस्तुत है उनकी यह अमर कविता।
सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,
बूढ़े भारत में भी आई फिर से नयी जवानी थी,
गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।
चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
कानपुर के नाना की, मुँहबोली बहन छबीली थी,
लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह संतान अकेली थी,
नाना के सँग पढ़ती थी वह, नाना के सँग खेली थी,
बरछी, ढाल, कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी।
वीर शिवाजी की गाथायें उसको याद ज़बानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
लक्ष्मी थी या दुर्गा थी, वह स्वयं वीरता की अवतार,
देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार,
नकली युद्ध-व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार,
सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना ये थे उसके प्रिय खिलवाड़
महाराष्ट्र-कुल-देवी उसकी भी आराध्य भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झाँसी में,
ब्याह हुआ रानी बन आई लक्ष्मीबाई झाँसी में,
राजमहल में बजी बधाई खुशियाँ छाई झाँसी में,
सुघट बुंदेलों की विरुदावलि-सी वह आयी थी झांसी में,
चित्रा ने अर्जुन को पाया, शिव को मिली भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
उदित हुआ सौभाग्य, मुदित महलों में उजियाली छाई,
किंतु कालगति चुपके-चुपके काली घटा घेर लाई,
तीर चलाने वाले कर में उसे चूड़ियाँ कब भाई,
रानी विधवा हुई, हाय! विधि को भी नहीं दया आई।
निसंतान मरे राजाजी रानी शोक-समानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
बुझा दीप झाँसी का तब डलहौज़ी मन में हरषाया,
राज्य हड़प करने का उसने यह अच्छा अवसर पाया,
फ़ौरन फौजें भेज दुर्ग पर अपना झंडा फहराया,
लावारिस का वारिस बनकर ब्रिटिश राज्य झाँसी आया।
अश्रुपूर्ण रानी ने देखा झाँसी हुई बिरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
अनुनय विनय नहीं सुनती है, विकट शासकों की माया,
व्यापारी बन दया चाहता था जब यह भारत आया,
डलहौज़ी ने पैर पसारे, अब तो पलट गई काया,
राजाओं नव्वाबों को भी उसने पैरों ठुकराया।
रानी दासी बनी, बनी यह दासी अब महरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
छिनी राजधानी दिल्ली की, लखनऊ छीना बातों-बात,
कैद पेशवा था बिठूर में, हुआ नागपुर का भी घात,
उदैपुर, तंजौर, सतारा, कर्नाटक की कौन बिसात?
जब कि सिंध, पंजाब ब्रह्म पर अभी हुआ था वज्र-निपात।
बंगाल, मद्रास आदि की भी तो वही कहानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
रानी रोयीं रनिवासों में, ‘बेगम’ ‘ग़म’ से थीं बेज़ार,
उनके गहने कपड़े बिकते थे कलकत्ते के बाज़ार,
सरे आम नीलाम छापते थे अंग्रेज़ों के अखबार,
'नागपुर के ज़ेवर ले लो लखनऊ के लो नौलख हार'।
यों ‘परदे’ की इज़्ज़त ‘परदेशी’ के हाथ बिकानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
कुटियों में भी विषम वेदना, महलों में आहत अपमान,
वीर सैनिकों के मन में था अपने पुरखों का अभिमान,
नाना धुंधूपंत पेशवा जुटा रहा था सब सामान,
बहिन छबीली ने रण-चण्डी का कर दिया प्रकट आहवान।
हुआ यज्ञ प्रारम्भ उन्हें तो सोई ज्योति जगानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
महलों ने दी आग, झोंपड़ी ने ज्वाला सुलगाई थी,
यह स्वतंत्रता की चिनगारी अंतरतम से आई थी,
झाँसी चेती, दिल्ली चेती, लखनऊ लपटें छाई थी,
मेरठ, कानपुर, पटना ने भारी धूम मचाई थी,
जबलपुर, कोल्हापुर में भी कुछ हलचल उकसानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
इस स्वतंत्रता महायज्ञ में कई वीरवर आए काम,
नाना धुंधूपंत, ताँतिया, चतुर अज़ीमुल्ला सरनाम,
अहमदशाह मौलवी, ठाकुर कुँवरसिंह सैनिक अभिराम,
भारत के इतिहास गगन में अमर रहेंगे जिनके नाम।
लेकिन आज जुर्म कहलाती उनकी जो कुरबानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
इनकी गाथा छोड़, चले हम झाँसी के मैदानों में,
जहाँ खड़ी है लक्ष्मीबाई मर्द बनी मर्दानों में,
लेफ्टिनेंट वाकर आ पहुँचा, आगे बढ़ा जवानों में,
रानी ने तलवार खींच ली, हुया द्वंद असमानों में।
ज़ख्मी होकर वाकर भागा, उसे अजब हैरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
रानी बढ़ी कालपी आई, कर सौ मील निरंतर पार,
घोड़ा थक कर गिरा भूमि पर गया स्वर्ग तत्काल सिधार,
यमुना तट पर अंग्रेज़ों ने फिर खाई रानी से हार,
विजयी रानी आगे चल दी, किया ग्वालियर पर अधिकार।
अंग्रेज़ों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी राजधानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
विजय मिली, पर अंग्रेज़ों की फिर सेना घिर आई थी,
अबके जनरल स्मिथ सम्मुख था, उसने मुहँ की खाई थी,
काना और मंदरा सखियाँ रानी के संग आई थी,
युद्ध श्रेत्र में उन दोनों ने भारी मार मचाई थी।
पर पीछे ह्यूरोज़ आ गया, हाय! घिरी अब रानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
किन्तु सामने नाला आया, था वह संकट विषम अपार,
घोड़ा अड़ा, नया घोड़ा था, इतने में आ गये सवार,
रानी एक, शत्रु बहुतेरे, होने लगे वार-पर-वार।
घायल होकर गिरी सिंहनी उसे वीर गति पानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
रानी गई सिधार चिता अब उसकी दिव्य सवारी थी,
मिला तेज से तेज, तेज की वह सच्ची अधिकारी थी,
अभी उम्र कुल तेइस की थी, मनुज नहीं अवतारी थी,
हमको जीवित करने आयी बन स्वतंत्रता-नारी थी,
दिखा गई पथ, सिखा गई हमको जो सीख सिखानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
जाओ रानी याद रखेंगे ये कृतज्ञ भारतवासी,
यह तेरा बलिदान जगावेगा स्वतंत्रता अविनासी,
होवे चुप इतिहास, लगे सच्चाई को चाहे फाँसी,
हो मदमाती विजय, मिटा दे गोलों से चाहे झाँसी।
तेरा स्मारक तू ही होगी, तू खुद अमिट निशानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।