Tuesday, December 20, 2011

वर्षो तक वन में घूम घूम बाधा विघ्नों को चूम चूम


आशुतोष 
प्रस्‍तुति: डॉ0 संतोष राय
वर्षो तक वन में घूम घूम बाधा विघ्नों को चूम चूम
सह धुप ग़म पानी पत्थरपांडव आये कुछ और निखार
सौभाग्य ना सब दिन सोता हे
देखे आगे क्या होता हे
मैत्री की राह दिखाने को सब को सुमार्ग पे लाने को
दुर्योधन को समझाने को भीषण विध्वंस बचाने को
भगवान हस्तिनापुर आये पांडव का संदेसा लाये
दो न्याय अगर तो आधा दो
पर इसमें भी यदि बाधा हो तो दे
दो केवल पाच ग्राम
रखो अपनी धरती तमाम
हम वही ख़ुशी से खायेंगे
परिजन पे असी ना उठाएंगे..
दुर्योधन वोः भी दे ना सका आशीष समाज की ले ना सका
उल्टे हरी को बांधने चला जो था असाध्य साधने चला
जब नाश मनुज पर छाता हे पहले विवेक मर जाता हे
हरी ने भीषण हुंकार किया अपना स्वरुप विस्तार किया
डगमग डगमग दिग्गज डोले भगवान कुपित होकर बोले
जंजीर बाधा अब साध मुझे हां हां दुर्योधन बाँध मुझे
यह देख गगन मुझमे लय है यह देख पवन मुझमे लय है
मुझमे विलीन झंकार सकल मुझ मे लय है संसार सकल
अमरत्व फूलता है मुह मे संहार झूलता है मुझ मे
उदयाचल मेरे दीप्त भालभू -मंडल वक्ष -स्थल विशालभुज
परिधि बन्ध को घेरे हैं मैनाक मेरु पग मेरे हैं
दीप्ते जो गृह नक्षत्र निकर सब हैं मेरे मुख के अन्दर दृग
हो तो दृश्य अखंड देख मुझ मे सारा ब्रह्माण्ड देख
चर-अचर जीव , जग क्षर अक्षरनश्वर मनुष्य
सुरजाति अमरसत कोटि सूर्य , सत कोटि चन्द्रसत कोटि सरित
सर सिन्धु मंद्र सत कोटि ब्रह्मा विष्णु महेशसत कोटि
जल्पति जिष्णु धनेशसत कोटि रुद्र ,
सत कोटि कालसत कोटि दंड धर लोकपाल जंजीर बाधा कर साध इन्हें
हाँ हाँ दुर्योधन बाँध इन्हें भूतल अटल पातळ देखगत और अनागत काल देख
यह देख जगत का आदि सृजन यह देख महाभारत का रणमृतकों से पति हुई भू है
पहचान कहाँ इसमें तू है?अम्बर का कुंतल जाल देखपड़ के निचे पातळ देख
मुट्ठी मैं तीनो काल देख मेरा स्वरुप विकराल देख सब जन्म मुझी से पाते हैं
फिर लौट मुझी मैं आते हैं जिह्वा से कढ़ती ज्वाल सघन
साँसों से पाता जन्म पवन पड़ जाती मेरी दृष्टि जिधर हंसने लगती है सृष्टि उधर
मैं जभी मूंदता हूँ लोचन छा जाता चारो और मरण
बाँधने मुझे तो आया है जंजीर बड़ी क्या लाया है? यदि मुझे बांधना चाहे मन्न
पहले तू बाँध अनंत गगन सुने को साध ना सकता है वो मुझे बाँध कब सकता है?
हित वचन नहीं तुने माना मैत्री का मूल्य ना पहचाना तो ले अब मैं भी जाता हूँ
अंतिम संकल्प सुनाता हूँ याचना नहीं अब रण होगा
जीवन जय या की मरण होगा टकरायेंगे नक्षत्र निकर बरसेगी भू पर वह्नी प्रखर
फन शेषनाग का डोलेगा विकराल काल मुंह खोलेगा
दुर्योधन रण ऐसा होगा फिर कभी नहीं जैसा होगा
भाई पर भाई टूटेंगे विष -बाण बूँद -से छुटेंगे
सौभाग्य मनुज के फूटेंगे वयास शृगाल सुख लूटेंगे
आखिर तू भूशायी होगा हिंसा का पर्दायी होगा
थी सभा सन्न , सब लोग डरे चुप थे या थे बेहोश पड़े'
केवल दो नर ना अघाते थे ध्रिश्त्राष्ट्र -विदुर सुख पाते थे
कर जोड़ खरे प्रमुदित निर्भय दोनों पुकारते थे जय -जय ..


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