डॉ0 संतोष राय
भारत माता के गगनांचल रूपी आंचल में ऐसे-ऐसे दीप्तिमान नक्षत्र उद्दीप्त हुये जो कि न केवल भारत भूमि को बल्कि संपूर्ण धरा को अपने दीप्ति कीर्ति से अवलोकित किया है। ऐसे ही एक भारत माता के वीर सेनानी खुदीराम बोस थे। जिनके अपार जोश ने देश के युवाओं एक ओजस्वी ऊर्जा से भर दिया। खुदीराम बोस देश की स्वतंत्रता के लिये सिर्फ १९ साल की उम्र में ही बलिदान हो गये। सच्चाई यह है कि ऐसे ही वीर जवान क्रांतिकारियों से से देश आजाद हुआ है न कि अहिंसा की ढपली पीटने वाले गांधी जैसे लोगों से। क्या अंग्रेज मकड़ी थे जिसे गांधी अपने चरखे की जाल में फंसा लेते। महान् खुदीराम बोस अपने देश के लिये फाँसी के तख्त पर चढ़ने वाले सबसे कम उम्र के युवा क्रान्तिकारी देशभक्त थे। मगर एक सच कहानी यह भी है कि खुदीराम से पहले १७ जनवरी १८७२ को ६८ कूकाओं के सार्वजनिक नरसंहार के समय १३ वर्ष का एक बालक भी अपनी आहुति दिया था। वह बीर बालक जिसका नम्बर ५०वाँ था, जब उसे तोप के सामने लाया गया, उसने लुधियाना के तत्कालीन डिप्टी कमिश्नर कावन की दाढ़ी पूरे बल से पकड़ लिया और तब तक नहीं छोड़ी जब तक उसके दोनों हाथ को एक निर्मम अंग्रेज ने तलवार से काट नहीं दिये गये अंतत: उसे उसी तलवार से मौत की नींद सुला दिया गया था।
वीर युवा सेनानी खुदीराम बोस का जन्म ३ दिसंबर १८८९ को पश्चिम बंगाल के मिदनापुर जिले के बहुवैनी नामक गाँव में बाबू त्रैलोक्यनाथ बोस के यहाँ जनम लिया था। उनकी मां अत्यंत धार्मिक स्वभाव वाल थी जिनका नाम लक्ष्मीप्रिया देवी था। बालक खुदीराम बोस के हृदय में देश को स्वतंत्र कराने की ऐसी भावना थी कि वे बहुत कम उम्र में ही पढ़ायी छोड़ कर देश को स्वतंत्र कराने के लिये बढ़चढ़ कर हिस्सा लेने लगे। इस वीर नौजवान ने देश पर अत्याचारी सत्ता चलाने वाले ब्रिटिश साम्राज्य का किला ध्वस्त करने के दृढ़ निश्चय से अत्यन्त धैर्य पूर्वक प्रथम बम फेंका और मात्र १९ वें वर्ष में हाथ में भगवद गीता लेकर हँसते - हँसते फाँसी के फन्दे पर चढ़कर एक महान् इतिहास को रचा।
खुदीराम रिवोल्यूशनरी पार्टी के सक्रिय सदस्य बने और वन्दे मातरम् लिखी पर्चियां बंटवाने में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते थे। १९०५ में बंगाल के विभाजन (बंग - भंग) के विरोध में चलाये गये आन्दोलन में उन्होंने अपनी सक्रिय भूमिका निभाया।
फरवरी १९०६ में मिदनापुर में एक औद्योगिक तथा कृषि प्रदर्शनी का शुभारंभ था। प्रदर्शनी में भारी भीड़ थी। बंगाल के एक क्रांतिकारी सत्येंद्रनाथ द्वारा लिखे ‘सोनार बांगला’ नामक क्रांतिकारी पत्रक की प्रतियाँ खुदीराम ने इस प्रदर्शनी में खूब बांटी और बंटवायी। एक पुलिस वाले की नजर उन पर पड़ गयी और वह उन्हें पकड़ने के लिये भागा । खुदीराम ने इस सिपाही के मुँह पर पूरे जोर से घूँसा मारा, खून की धारा उसके नाक से बह निकली। तत्पश्चात वे और शेष पत्रक बगल में दबाकर रफूचक्कर हो गये। इस मामले पर राजद्रोह के आरोप में सरकार ने खुदीराम पर अभियोग चलाया परन्तु गवाही न मिलने से खुदीराम निर्दोष साबित हुये और जेल से निजात मिल गयी।
६ दिसंबर १९०७ को खुदीराम ने नारायणगढ़ रेलवे स्टेशन पर बंगाल के गवर्नर की ट्रेन पर जबरजस्त हमला किया परन्तु गवर्नर बाल-बाल बच गया। सन १९०८ में उन्होंने दो अंग्रेज अधिकारियों वाट्सन और पैम्फायल्ट फुलर पर बम फेंका मगर दैववश वे भी बच निकले। मिदनापुर में ‘युगांतर’ नाम की क्रांतिकारियों की गुप्त संस्था के माध्यम से खुदीराम क्रांतिकार्य पहले से ही सक्रिय थे।
१९०५ में लॉर्ड कर्जन ने जब बंगाल का विभाजन किया तो उसके महाविरोध में सड़कों पर उतरे अनेकों भारतीयों को उस समय के कलकत्ता के मॅजिस्ट्रेट किंग्जफोर्ड ने क्रूरतम से क्रूरतम दण्ड दिया। इसके परिणामस्वरूप किंग्जफोर्ड को पदोन्नति देकर मुजफ्फरपुर में सत्र न्यायाधीश के पद से सुशोभित किया गया। ‘युगान्तर’ समिति कि एक गुप्त बैठक में किंग्जफोर्ड को ही मारने का संकल्प लिया गया। इस कार्य हेतु खुदीराम तथा प्रफुल्लकुमार चाकी को चुना गया । खुदीरामको एक बम और पिस्तौल उपलब्ध करायी गयी। प्रफुल्लकुमार को भी एक पिस्तौल दिया गया। मुजफ्फरपुर में आने पर इन दोनों क्रांतिकारियों ने सबसे पहले किंग्जफोर्ड के बँगले की अच्छे तरह से रेकी की । उन्होंने उसकी बग्घी तथा उसके घोडे का रंग पहचान लिया । खुदीराम तो किंग्जफोर्ड को उसके कार्यालय में जाकर अच्छी तरह से पहचान आये।
३० अप्रैल १९०८ को ये दोनों किंग्जफोर्ड के बँगले के बाहर घोड़ागाड़ी से उसके आने की राह तकने लगे । बँगले की पर्यवेक्षण हेतु वहाँ मौजूद पुलिस के गुप्तचरों ने उन्हें भगाना भी चाहा परन्तु वे दोनों ने सही उत्तर देकर वहीं शिकार की ताक में डटे रहे। अंधेरी रात में साढ़े आठ बजे के आसपास क्लब से किंग्जफोर्ड की बग्घी के समान दिखने वाली गाड़ी आते हुए देखकर खुदीराम गाड़ी के पीछे तेजी से दौड़ने लगे। रास्ते में बहुत ही घनघोर अँधेरा था। गाड़ी किंग्जफोर्ड के बँगले के सामने ज्यों ही पहुंची खुदीराम ने अँधेरे में ही आगे वाली बग्घी पर निशाना साधते हुये जोर से बम फेंका। भारतवर्ष में इस पहले बम विस्फोट की आवाज उस रात तीन मील तक सुनाई दी जब वहाँ इस घटना की समाचार ने तहलका मचा दिया। सच्चायी यह थी कि खुदीराम ने किंग्जफोर्ड की गाडी समझकर उसे मारने हेतु बम फेंका था परन्तु उस दिन किंग्जफोर्ड थोडी देर से क्लब से बाहर जाने के कारण बच गया । दुर्भाग्य वश गाडियाँ एक जैसी होने के कारण दो यूरोपियन स्त्रियों को अपने प्राण गँवाने पडे। खुदीराम तथा प्रफुल्लकुमार दोनों ही रातों-रात वहां से भाग खड़े हुये और २४ मील दूर स्थित वैनी रेलवे स्टेशन पर पहुंचकर रात बितायी।
अंग्रेज पुलिस ने उनका पीछा किया और वैनी रेलवे स्टेशन पर उन्हें चारों तरफ से घेर लिया। अपने को पुलिस से घिरा देख प्रफुल्लकुमार चाकी ने खुद को गोली मारकर अपनें प्राणों की आहुति दे दी जबकि खुदीराम को गिरफ्तार कर लिया गया। ११ अगस्त १९०८ को उन्हें मुजफ्फरपुर जेल में फाँसी के फंदे पर लटका दिया गया। मगर इस वीर ने हंसते-हंसते वंदेमातरम् के उद्घोष के साथ अपने प्राणों को भारत माता के कदमों पर न्योछावर कर दिया। उस समय खुदीरामबोस मात्र सिर्फ मात्र १९ साल के थे।
फाँसी के बाद खुदीराम बोस जनता में इतने लोकप्रिय हो गये कि बंगाल के सारे जुलाहे एक खास किस्म की धोती बनाने लगे। बंगाल के राष्ट्रप्रेमियों के लिये वह वीर शहीद और अनुकरणीय और प्रेरणादायी हो गया। पूरे बंगाल में कई दिनों तक शोक मनाया गया व कई दिन तक स्कूल, कालेज, अस्पताल, दूकान व व्यापार सभी बन्द रहे और वीर नौजवान ऐसी धोती पहनने लगे, जिनकी किनारे पर खुदीराम लिखा होता था। ये धोती खुदीराम के शहादत को याद दिलाता था और युवाओं में प्राणार्पण की भावना भरता था।
लेकिन यह अत्यंत दु:खद है कि आज ऐसे क्रांतिकारियों को एक षणयंत्र के तहत आतंकवादी कहा जाता है और देश को स्वतंत्र कराने का श्रेय सिर्फ गांधी और नेहरू को दिया जाता है मगर सच्चाई इससे उलट यह है कि देश को बर्बाद कराने की नींव इन दोनों नेताओं नेहरू और गांधी ने रखी जिसको आने वाली पीढि़यां भुगतेगी, और ऐसे नेताओं को इतिहास कभी माफ नही करेगा।
वीर हुतात्मा खुदीराम बोस के जन्मदिन पर शत्-शत् नमन।
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