अश्वनी कुमार
प्रस्तुति: डॉ0 संतोष राय
इस विधेयक के मसौदे को जिस तरीके से तैयार किया गया है उससे साफ है कि यह कुछ उन कथित सामाजिक कार्यकर्ताओं का काम है जिन्होंने गुजरात के अनुभव से यह सीखा है कि वरिष्ठ नेताओं को किसी ऐसे अपराध के लिए कैसे घेरा जाये, जो उन्होंने किया ही नहीं।
इस विधेयक के तहत जिन अपराधों की परिभाषा की गई है उन्हें जानबूझकर अस्पष्ट छोड़ दिया गया है। साम्प्रदायिक और किसी वर्ग को लक्ष्य बनाकर की जाने वाली हिंसा का तात्पर्य राष्ट्र के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने को नष्ट करना है। धर्मनिरपेक्षता के मामले में कुछ उचित मतभेद हो सकते हैं। धर्मनिरपेक्षता एक ऐसा जुमला है जिसका अर्थ अलग-अलग लोगों द्वारा अलग-अलग बताया जाता है। आखिर किस परिभाषा के आधार पर अपराध का निर्धारण किया जायेगा? इसी तरह सवाल यह भी है कि शत्रुतापूर्ण माहौल बनाने से कोई ठोस निर्णय लेने के लिए काफी गुंजाइश है कि शत्रुतापूर्ण माहौल का आशय क्या है।
इस प्रकार के कानून के अनिवार्य परिणाम ये होंगे कि किसी भी तरह के साम्प्रदायिक संघर्ष में बहुसंख्यक समुदाय को ही दोषी के रूप में देखा जाएगा। दोष की सम्भावना तब तक बनी रहेगी जब तक दोष सिद्ध नहीं हो जाता। इस कानून के तहत बहुसंख्यक समुदाय के सदस्य को ही दोषी ठहराया जायेगा। अल्पसंख्यक समुदाय का कोई भी सदस्य घृणा संबंधी प्रचार या साम्प्रदायिक हिंसा का अपराध कभी नहीं कर सकता। वास्तव में इस कानून के तहत उसे निर्दोष बताने का वैधानिक उपबंध है। केन्द्र और राज्य स्तर पर निर्धारित संवैधानिक व्यवस्था को संस्थागत पूर्वाग्रह से निश्चय ही नुक्सान होगा। इसका सदस्यता संबंधी ढांचा जाति और समुदाय पर आधारित है।
जो कानून तैयार किया गया है उसे लागू करते ही भारत में समुदायों के बीच आपसी रिश्तों में कटुता-वैमनस्यता फैल जायेगी। यह एक ऐसा कानून है जिसके खतरनाक दुष्परिणाम होंगे। यह तय है कि इसका दुरुपयोग किया जायेगा। शायद इस कानून का ऐसा मसौदा तैयार करने के पीछे यही उद्देश्य भी है। इससे अल्पसंख्यक साम्प्रदायिकता को प्रोत्साहन मिलेगा। कानून में समानता और निष्पक्षता के मूल सिद्धांतों का उल्लंघन किया गया है। राष्ट्रीय सलाहकार परिषद् में सामाजिक कार्यकर्ताओं से यह आशा की जा सकती है कि वे ऐसा खतरनाक और भेदभावपूर्ण कानून का मसौदा तैयार करें। यह आश्चर्य की बात है कि उस निकाय के राजनीतिक प्रमुख ने इस मसौदे को स्वीकृति कैसे प्रदान की। जब कुछ व्यक्तियों ने टाडा-आतंकवाद विरोधी कानून के खिलाफ एक अभियान चलाया था, तो संप्रग के सदस्यों ने यह तर्क दिया था कि आतंकवादियों पर भी साधारण कानूनों के तहत मुकद्दमा चलाया जा सकता है। इससे अधिक कठोर कानून अब बनाया जा रहा है।
राज्य निराश होकर इस बात को देख रहे हैं कि जब केन्द्र सरकार इस प्रकार का गलत कदम उठाने जा रही है, उनकी शक्तियों को हड़पा जा रहा है। साम्प्रदायिक सौहार्द निष्पक्षता से प्राप्त किया जा सकता है न कि इसके विपरीत भेदभाव पैदा करके।
केन्द्र उन निरंकुश शक्तियों को फिर से प्राप्त करना चाहता है, जो बोम्मई मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले से पहले धारा 356 के तहत उसके पास थीं। बोम्मई मामले में पहले केन्द्र सरकार धारा 356 का इस्तेमाल कर निर्वाचित राज्य सरकारों को बर्खास्त कर राष्ट्रपति शासन लागू कर देती थी। इंदिरा गांधी शासन से लेकर राजीव गांधी शासन तक विपक्ष की कई राज्य सरकारों को बर्खास्त किया जाता रहा। 1950 में संविधान लागू होने से लेकर 1994 में सर्वोच्च न्यायालय के बोम्मई फैसले तक सरकार ने 102 बार धारा 356 का इस्तेमाल किया। इनमें से 77 मामलों में केन्द्र में कांग्रेस पार्टी का शासन था। इंदिरा जी ने इस प्रावधान का 50 बार इस्तेमाल किया। धारा 356 का दुरुपयोग इस हद तक बढ़ गया कि मजबूर होकर सर्वोच्च न्यायालय को बोम्मई मामले में निर्णय देकर इस पर रोक लगानी पड़ी।
सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि धारा 356 की उद्घोषणा न्यायिक पुनर्विचार के दायरे में आएगी और अदालत फैसला करेगी कि इसे लागू करने के पीछे कोई दुर्भावना तो नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी कहा कि अगर राष्ट्रपति द्वारा किया गया फैसला दुर्भावनाग्रस्त पाया जाता है तो अदालत फैसला बदल भी सकती है। ऐसा लगता है कि क्षेत्रीय दलों की बढ़ती ताकत से घबराई कांग्रेस साम्प्रदायिक एवं लक्षित हिंसा विधेयक के माध्यम से धारा 356 को चोर दरवाजे से फिर से लागू करना चाहती है। (क्रमश:)
अश्वनी कुमार, सम्पादक (पंजाब केसरी)
दिनांक- 30-11-2011
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