अश्वनी कुमार
प्रस्तुति: डॉ0 संतोष राय
''ऐ रहबरे मुल्को कौम बताये किसका लहू है, कौन मरा?''बात 1984 की है। प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सारे राष्ट्र में दंगे भडक़ उठे थे। सिखों पर हमले किए गए। नग्न आंखों से क्रूरता का यह तांडव सभी ने देखा। अकेले दिल्ली शहर में मृतकों की संख्या 2733 बताई गई मगर सत्य कुछ और ही था। पूरे राष्ट्र ने देखा, यह कांग्रेस प्रायोजित आतंकवाद था। कई आयोग बने, लेकिन नानावती कमीशन की रिपोर्ट आज तक सार्वजनिक नहीं की गई अगर कांग्रेस में हिम्मत थी तो कपूर-मित्तल की रिपोर्ट को सार्वजनिक क्यों नहीं किया गया। कभी जैन-बनर्जी कमेटी के पर कतरे गए, कभी जैन-अग्रवाल कमेटी की रिपोर्टें झूठी याचिकाओं के बल पर सार्वजनिक नहीं होने दीं। कभी पोटी-रोशा कमेटी गर्भ में ही भ्रूण हत्या का शिकार हुई। दंगों के दौरान एक वृद्ध सिख की विधवा की याचिका पर तत्कालीन न्यायमूर्ति अनिल देव सिंह ने जब फैसला दिया तो सभी की आंखें खुल गईं। यह दिल्ली हाईकोर्ट की बात है।
''अपनी ही मातृभूमि में अपने ही लोगों द्वारा नृशंसतापूर्वक कत्ल किए जाने की घटनाओं की वेदना की बात सोचने से अनुभव होता है कि क्या ऐसे लोग जंगली जानवरों से बदतर नहीं हैं?''आज मैं उस कविता की पंक्तियों को लिखना चाहूंगा जो उस फैसले का हिस्सा हैं, जो कविता रवीन्द्रनाथ टैगोर ने रची और जिसका भाव है कि जंगली जानवरों के साथ एकांत विचरण करने वाले को भी उतना भय शायद महसूस न हो, जितना इन दो पाये दरिन्दों के साथ तब इन्सान को था।
कविता को देखें-“If I 2ere the soil. I 2ere the 2ater if I 2ere the grass or fruit or flo2er if I 2ere to roam about the earth 2ith beasts there 2ould be nothing to fear, in ne1er ending ties 2here e1er I go, It 2ill be the limitless me”.जब न्यायालयों के फैसलों में ऐसी बातें आ चुकी हैं, तो जांच आयोगों की रिपोर्टों की क्या कीमत? जांच तो रंगनाथ मिश्र ने भी की थी। सच तो उन्होंने भी बोलने की शुरूआत की थी, लेकिन वाह रे राज्यसभा का सत्ता सुख, एक अवकाश प्राप्त न्यायाधीश की सारी गरिमा धूल धूसरित हो गई। सब जानते हैं कि वह कौन से बेइमान, भ्रष्ट और कर्त्तव्यहीन अधिकारी थे जो अपने आकाओं के बल पर दंगे करवाने को ही अपना कर्त्तव्य समझ रहे थे।
कौन थे इनके आका। दंगाइयों को किसने छूट दी? पुलिस मौन दर्शक क्यों बनी रही? कांग्रेस ने सत्य के साथ छल किया।
कांग्रेस ने देश की विभिन्न जातियों में अविश्वास पैदा कर अपना उल्लू सीधा किया। इस पर मुझे एक प्रसंग याद आ रहा है-राजकुमार और नगर सेठ के बेटे की दोस्ती से मगध नरेश बहुत दु:खी थे। लाख प्रयास के बावजूद दोनों की दोस्ती टूट नहीं रही थी। राजकुमार को गलत संगत से बचाने के लिए राजा ने मंत्रियों से सलाह ली और फिर इस काम के लिए उन्होंने सबसे चतुर मंत्री को लगाया। एक दिन राजकुमार और नगर सेठ के बेटे बातचीत में मशगूल थे। इतने में मंत्री जी आए और इशारे से राजकुमार को अपने पास बुलाया। मंत्री ने राजकुमार से कुछ कहा और फिर वे वापस लौट गए। मंत्री के जाने के बाद नगर सेठ के बेटे ने राजकुमार से मंत्री के आने का उद्देश्य पूछा पर राजकुमार ने कुछ नहीं बताया। दूसरे दिन इसी तरह मंत्री जी फिर आए और इस बार नगर सेठ के बेटे को बुलाकर कुछ कहा। फिर चलते बने। राजकुमार ने भी अपने मित्र से मंत्री से हुई बात के बारे में पूछा पर नगर सेठ के बेटे ने कुछ नहीं बताया। इस घटना के बाद दोनों के बीच अविश्वास का वातावरण पैदा हो गया। मंत्री जी अपनी चाल में कामयाब हो गए क्योंकि उन्होंने दोनों को बुलाकर कुछ भी नहीं कहा था। सिर्फ अविश्वास पैदा करने की नीयत से अपने पास बुलाया था। राजा को दोनों की मित्रता टूटने की खबर से अत्यधिक प्रसन्नता हुई क्योंकि जो कार्य साम, दाम, दंड से नहीं होता वह काम अविश्वास पैदा करने से हुआ। कांग्रेस सरकारों ने हमेशा ही जातियों में अविश्वास पैदा कर सत्ता तक का सफर तय किया। बाकी चर्चा मैं कल करूंगा। (क्रमश:)
''ऐ रहबरे मुल्को कौम बताये किसका लहू है, कौन मरा?''बात 1984 की है। प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सारे राष्ट्र में दंगे भडक़ उठे थे। सिखों पर हमले किए गए। नग्न आंखों से क्रूरता का यह तांडव सभी ने देखा। अकेले दिल्ली शहर में मृतकों की संख्या 2733 बताई गई मगर सत्य कुछ और ही था। पूरे राष्ट्र ने देखा, यह कांग्रेस प्रायोजित आतंकवाद था। कई आयोग बने, लेकिन नानावती कमीशन की रिपोर्ट आज तक सार्वजनिक नहीं की गई अगर कांग्रेस में हिम्मत थी तो कपूर-मित्तल की रिपोर्ट को सार्वजनिक क्यों नहीं किया गया। कभी जैन-बनर्जी कमेटी के पर कतरे गए, कभी जैन-अग्रवाल कमेटी की रिपोर्टें झूठी याचिकाओं के बल पर सार्वजनिक नहीं होने दीं। कभी पोटी-रोशा कमेटी गर्भ में ही भ्रूण हत्या का शिकार हुई। दंगों के दौरान एक वृद्ध सिख की विधवा की याचिका पर तत्कालीन न्यायमूर्ति अनिल देव सिंह ने जब फैसला दिया तो सभी की आंखें खुल गईं। यह दिल्ली हाईकोर्ट की बात है।
''अपनी ही मातृभूमि में अपने ही लोगों द्वारा नृशंसतापूर्वक कत्ल किए जाने की घटनाओं की वेदना की बात सोचने से अनुभव होता है कि क्या ऐसे लोग जंगली जानवरों से बदतर नहीं हैं?''आज मैं उस कविता की पंक्तियों को लिखना चाहूंगा जो उस फैसले का हिस्सा हैं, जो कविता रवीन्द्रनाथ टैगोर ने रची और जिसका भाव है कि जंगली जानवरों के साथ एकांत विचरण करने वाले को भी उतना भय शायद महसूस न हो, जितना इन दो पाये दरिन्दों के साथ तब इन्सान को था।
कविता को देखें-“If I 2ere the soil. I 2ere the 2ater if I 2ere the grass or fruit or flo2er if I 2ere to roam about the earth 2ith beasts there 2ould be nothing to fear, in ne1er ending ties 2here e1er I go, It 2ill be the limitless me”.जब न्यायालयों के फैसलों में ऐसी बातें आ चुकी हैं, तो जांच आयोगों की रिपोर्टों की क्या कीमत? जांच तो रंगनाथ मिश्र ने भी की थी। सच तो उन्होंने भी बोलने की शुरूआत की थी, लेकिन वाह रे राज्यसभा का सत्ता सुख, एक अवकाश प्राप्त न्यायाधीश की सारी गरिमा धूल धूसरित हो गई। सब जानते हैं कि वह कौन से बेइमान, भ्रष्ट और कर्त्तव्यहीन अधिकारी थे जो अपने आकाओं के बल पर दंगे करवाने को ही अपना कर्त्तव्य समझ रहे थे।
कौन थे इनके आका। दंगाइयों को किसने छूट दी? पुलिस मौन दर्शक क्यों बनी रही? कांग्रेस ने सत्य के साथ छल किया।
कांग्रेस ने देश की विभिन्न जातियों में अविश्वास पैदा कर अपना उल्लू सीधा किया। इस पर मुझे एक प्रसंग याद आ रहा है-राजकुमार और नगर सेठ के बेटे की दोस्ती से मगध नरेश बहुत दु:खी थे। लाख प्रयास के बावजूद दोनों की दोस्ती टूट नहीं रही थी। राजकुमार को गलत संगत से बचाने के लिए राजा ने मंत्रियों से सलाह ली और फिर इस काम के लिए उन्होंने सबसे चतुर मंत्री को लगाया। एक दिन राजकुमार और नगर सेठ के बेटे बातचीत में मशगूल थे। इतने में मंत्री जी आए और इशारे से राजकुमार को अपने पास बुलाया। मंत्री ने राजकुमार से कुछ कहा और फिर वे वापस लौट गए। मंत्री के जाने के बाद नगर सेठ के बेटे ने राजकुमार से मंत्री के आने का उद्देश्य पूछा पर राजकुमार ने कुछ नहीं बताया। दूसरे दिन इसी तरह मंत्री जी फिर आए और इस बार नगर सेठ के बेटे को बुलाकर कुछ कहा। फिर चलते बने। राजकुमार ने भी अपने मित्र से मंत्री से हुई बात के बारे में पूछा पर नगर सेठ के बेटे ने कुछ नहीं बताया। इस घटना के बाद दोनों के बीच अविश्वास का वातावरण पैदा हो गया। मंत्री जी अपनी चाल में कामयाब हो गए क्योंकि उन्होंने दोनों को बुलाकर कुछ भी नहीं कहा था। सिर्फ अविश्वास पैदा करने की नीयत से अपने पास बुलाया था। राजा को दोनों की मित्रता टूटने की खबर से अत्यधिक प्रसन्नता हुई क्योंकि जो कार्य साम, दाम, दंड से नहीं होता वह काम अविश्वास पैदा करने से हुआ। कांग्रेस सरकारों ने हमेशा ही जातियों में अविश्वास पैदा कर सत्ता तक का सफर तय किया। बाकी चर्चा मैं कल करूंगा। (क्रमश:)
साभार: अश्वनी कुमार, सम्पादक (पंजाब केसरी)
दिनांक- 26-11-2011
दिनांक- 26-11-2011
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