Monday, January 16, 2012

राजनैतिक पार्टियों को मुसलमान नेता इसलाम के लिये इस्‍तेमाल कर रहे हैं


शंकर शरण  

डॉ0 संतोष राय 

कांग्रेस मुस्लिमों को आरक्षण देने के मामले में खुले तौर पर असंवैधानिक निर्णय लेने पर आमादा है। उसे मालूम है कि मजहब आधारित आरक्षण भारतीय संविधान के अनुरूप नहीं। इसीलिए यह पूछे जाने पर कि सुप्रीम कोर्ट से ऐसा आरक्षण रद्द हो सकता है, एक सर्वोच्च कांग्रेसी नेता ने कहा कि तब उस में हम क्या कर सकते हैं!यानी, कांग्रेस जान-बूझ कर असंवैधानिक दाँव खेल रही है, कि किसी तरह चुनावी नैया पार लगे। मगर यदि सुप्रीम कोर्ट ने हस्तक्षेप न किया तो? तब निश्चय ही मुस्लिम आरक्षण चालू हो जाएगा। क्योंकि किसी दल में इस का विरोध करने का साहस नहीं है। तब कोर्ट में ही कितना दम होगा, यह संदिग्ध है। पिछले वर्ष हज सबसिडी पर कोर्ट के निर्णय में देखा जा चुका है कि उसे सिद्धांततः पक्षपाती मानकर भी उसे यथावत रहने दिया। अतः यदि मुस्लिम आरक्षण पर कोर्ट ने कड़ा रुख नहीं लिया, तो एक और जजिया टैक्स आरंभ होने ही वाला है!

कुछ लोग इसे वोट-बैंकराजनीति कहते हैं, कि कांग्रेस मुसलमानों का वोट-बैंक के रूप में इस्तेमाल करती है। जरा ठंढे दिमाग से विचार करना चाहिए कि कौन किस का इस्तेमाल कर रहा है? चुनावी जीत तो आई-गई हो जाती है। किन्तु इस बीच इस्लामी माँगों को जो भौतिक, नैतिक और राजनीतिक धन दे दिया जाता है, उस का ब्याज पूरे भारतीय समाज को भरते रहना पड़ता है। यह करने वाले दल तो इस या उस चुनाव में हार कर किनारे हो जाते हैं। किन्तु जिस देश-विमुख राजनीति को रिझाने के लिए वे वैसे कदम उठाते है, वे स्थाई संस्थान में बदल जाते हैं। फिर दूसरे दल भी उसे तोड़ने का साहस नहीं कर पाते। तब किस ने किस का इस्तेमाल किया?

यह प्रक्रिया दिनो-दिन बढ़ रही है। पिछले कुछ वर्षों का ही उदाहरण लें। पहले अल्पसंख्यक शिक्षा संस्थानों को सीधे केंद्रीय विश्वविद्यालयों से जोड़ने का निर्णय हुआ। धनी मुसलमानों को भी हज सबसिडी देने की घोषणा हो चुकी। अल्पसंख्यक आयोग को संवैधानिक दर्जा, यानी एक तरह की सत्ताधारी हैसियत, दी जा चुकी। उत्तर प्रदेश में एक और इस्लामी विश्वविद्यालय और बिहार में पुलिस दारोगाओं की नियुक्ति में बीस प्रतिशत से अधिक स्थान उर्दू जानने वालोंके लिए सुरक्षित किया गया। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की शाखाएं विभिन्न प्रांतों में खोलने का काम जारी है। मानो किसी राजनीतिक दल की शाखाएं खोली जा रही हो! वस्तुतः यह राजनीतिक दल की शाखा ही है। ध्यान रहे, किसी विद्वत कार्य के लिए इस यूनिवर्सिटी की प्रसिद्धि नहीं रही है। सन् 1947 से पहले यह देश का विभाजन कराने वाले आंदोलन के केंद्र के रूप में कुख्यात हुआ। उस के बाद भी इस्लामी मुद्दों को लेकर ही इस की शोहरत, फितरत सुनी गई है। इसलिए इस संस्थान की शाखाएंखोलने का अर्थ सभी जानते हैं उस में किसी ज्ञान, शिक्षा की चिंता नहीं, केवल वोट-बैंक का धंधा है। इस्लामी मानसिकता और राजनीति को हर जगह थोड़ी और ठोस जमीन एवं स्थाई रूप से और धन देते रहने ने का इंतजाम है। यह देश के लिए कितना घातक है, इसे समझ कर भी अनदेखा करना हमारे राजनीतिक वर्ग का अक्षम्य अपराध है।

हमारे देश के सेक्यूलरनेताओं द्वारा ऐसे घातक, इस्लामपरस्त निर्णयों पर कुछ लोग बार-बार एक घिसी-पिटी बात दुहराते हैं कि मुसलमानों का वोट-बैंक रूप में इस्तेमाल हो रहा है। यह पूरी उलट-बाँसी है। भारत में दलीय राजनीति का संपूर्ण इतिहास कुछ और ही दिखाता है। मुस्लिम नेता पिछले सौ वर्षों से तरह-तरह की वैचारिक, राजनीतिक, भौगोलिक माँगे रखते गए हैं और विविध राजनीतिक दल किसी न किसी झूठी उम्मीद में उसे मानते गए। जब कि उन उम्मीदों में से कोई, कभी पूरी न हुई। कांग्रेस ने लखनऊ पैक्ट, खलीफत का समर्थन आदि इसी आशा में किया था कि राष्ट्रीय आंदोलन में मुस्लिम साथ देंगे। गाँधीजी मुस्लिमों के लिए कांग्रेस को वैचारिक, राजनीतिक, भावनात्मक रूप से निरंतर झुकाते चले गए। पर मुसलमान नेता बराबर माँगे और बढ़ाते गए, सहयोग देने के लिए बढ़ने के बजाए कदम पीछे खींचते गए। डॉ. अंबेदकर ने इसे सटीक पहचाना थाः मसुलमानों की माँगे हुमानजी की पूँछ की तरह बढ़ती जाती हैं।अंततः इस्लामियों ने कांग्रेस को झुकाते और अपनी स्थिति मजबूत करते हुए देश के ही टुकड़े कर डाले। उन्हें निश्चय ही भारत से कोई प्रेम न था! क्या आज स्थिति बदल सकी है?

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने भी देश विभाजन कराने में इसीलिए सहयोग दिया था कि पाकिस्तान में सोवियत संघ और कम्युनिस्टों को जमने की जगह कृतज्ञतापूर्वक मिलेगी। फिर पूरे एसिया में कम्युनिज्म फैलाया जाएगा। राममनोहर लोहिया ने देश-विभाजन को कम्युनिस्ट समर्थन के पीछे यही कारण देखे थे। पर पाकिस्तान ने अपने यहाँ कम्युनिस्टों का नामो-निशान मिटा दिया और सोवियत संघ के बदले अमेरिका को आसन दिया। इधर स्वतंत्र भारत में मुसलमानों ने कांग्रेस को अपने उद्देश्य के लिए सब से उपयुक्त पाया, और कम्युनिस्टों को कभी घास न डाली। आज भी, जब भारतीय कम्युनिस्ट इस्लामी पक्ष-मंडन के लिए बढ़-चढ़ कर काम कर रहे हैं, उन के बीच शायद ही कोई मुस्लिम दिखाई देता है। जब कि भाँति-भाँति के इस्लामी उग्रवादी, तबलीगी, मजहबी आदि संगठनों के लिए मुस्लिम युवक सदैव उपलब्ध हैं।

वस्तुतः स्वतंत्र भारत में भी इस्लामियों ने हर दल का इस्तेमाल कर इस्लाम की ताकत बढ़ाई। इस में उन्हें जैसी सफलता मिली, उस की अगस्त 1947 में किसी ने कल्पना तक न की थी। तब किस ने सोचा था कि शतियों से राम-जन्मभूमि के लिए संघर्ष करने वाले हिंदू अब भी उसे मुक्त नहीं करा पाएंगे! कि नए भारत में, हिंदू प्रधान मंत्रियों के राज में, कश्मीर से हिंदुओं को मार भगा दिया जाएगा। उस कश्मीर से जो हिंदू मनीषा का एक ऐतिहासिक स्थल रहा, जहाँ मुहम्मद गजनवी के हाथ भी नहीं पहुँच पाए थे, और जहाँ मुगल शासन में भी हिंदू बने रहे थे।

कांग्रेस ने देश विभाजन इस दुराशा में स्वीकार कर लिया था कि मुस्लिम समस्यासे मुक्ति मिलेगी स्वयं नेहरू जी ने इस की घोषणा की थी! किंतु समस्या पहले से कहीं अधिक विकट हो गई। कांग्रेस द्वारा झुक-झुक कर इस्लाम को आदर, चढ़ावे के बावजूद मुस्लिम नेता उसे हमेशा खरी-खोटी सुनाते रहते हैं (अभी-अभी आजमगढ़ में राहुल गाँधी का पुतला जलाया गया)। अंततः भाजपा ने भी सत्ता में आने के बाद धारा 370 हटाने जैसे आधारभूत मुद्दों को किनारे कर, हज यात्रा और मदरसों को अनुदान बढ़ा, बंगलादेशी घुसपैठियों की अनदेखी कर, जेनलर मुशर्रफ को गले लगाकर, आदि ठीक वही दुराशा पाली। इन कदमों से राष्ट्रीय के स्थान पर इस्लामी एजेंडा आगे बढ़ा।

सच यह है कि मुस्लिम समाज किसी दल का वोट-बैंक नहीं है। उस के नेता पक्के ब्लैकमेलर-सा रवैया रखते हैं। इच्छित माँग पूरी करा लेने के बाद वादे से मुकर जाना उन की आदत में शुमार है। स्वयं गाँधीजी को जिन्ना के हाथों कई बार ऐसा धोखा मिला था। ऐसी वादाखिलाफी इस्लामी राजनीति के लिए शान की बात होती है, शर्म की नहीं। क्योंकि इस्लाम के लिएधोखा-धड़ी, बात से पलटना, आदि को इस्लामी नेता बिलकुल सही मानते हैं। संस्थापकों से लेकर अयातुल्ला खुमैनी और जिया उल हक तक सभी इस्लामी नेताओं ने यह कहा, किया है।

अतः यह कहना भारी भूल या धूर्त्तता है कि यहाँ किसी भी दल ने मुस्लिमों का इस्तेमाल किया। स्थिति एकदम उल्टी है। पहले देश विभाजन के लिए मुसलमानों ने गाँधी जी और कांग्रेस का उपयोग किया था। फिर 47 के बाद वोट की धमकी/लोभ दिखा-दिखा उन्होंने हरेक दल को राष्ट्रवाद, संविधान, लोकतंत्र, न्यायपालिका आदि सब बिसरा कर इस्लामी एजेंडे की मदद करने पर मजबूर किया है। मुस्लिम नेता अपनी भंगिमा से विभिन्न दलों को बढ़-बढ़ कर बोली लगाने के लिए प्रेरित करते हैं कि कौन दल इस्लामी विस्तार को कितनी मदद करेगा।

उदाहरण के लिए, बिहार में विधान सभा चुनाव के समय राम विलास पासवान ने माँग की कि संसद भवन में मुहम्मद अली जिन्ना की तस्वीर लगाई जानी चाहिए। ध्यान दें, यह माँग किसी मुस्लिम नेता ने नहीं की थी। मगर किसी ने यह भी न कहा कि वह माँग गलत है। यानी, सत्ता-लोभी हिन्दू नेताओं का इस्तेमाल करके इस्लामी दबदबा बढ़ाया जाता है। न कि मुसलमानों का उपयोग करके ऐसे नेता सत्ता पाते हैं। यह अंतर ध्यान से समझने की चीज है। मु्स्लिम वोट तो किसी एक को ही मिलता है, किंतु इस बीच हरेक दल और नेता इस्लाम को पहले से अधिक वैचारिक-राजनीतिक जमीन दे चुकते हैं। यह सब संविधान ही नहीं, मानवीयता तक के विरुद्ध होता है। पर लोभ या भ्रम के वशीभूत हिंदू नेता या बुद्धिजीवी यही उचित समझते हैं। आज भी यही दुर्भाग्यपूर्ण दृश्य दुहराया जा रहा है।

वस्तुतः भारतीय लोकतंत्र में मुस्लिम समुदाय की एकतरफा वोटिंग की नीति का प्रयोग केवल इस्लाम के अधूरे कामको पूरा करने के लिए होता रहा है। उस काम के कुछ प्रमुख अंग हैं कश्मीर को भारत से अलग रखना; बंगलादेश से इस्लामी घुसपैठ पर आँखें मूँदे रहना; इस्लामी संस्थाओं में विदेशी, संदिग्ध, घातक तत्वों को संरक्षण लिए रहने की अनुमति देना; आतंकवाद विरोधी कानूनों को खत्म करना; अल्पसंख्यक शिक्षा के नाम पर सरकारी धन से इस्लामी प्रचार चलाना; संस्कृत को दबाना और उर्दू को बढ़ाना; मदरसों को विश्वविद्यालयों की हैसियत देना; संवैधानिक प्रावधानों और न्यायपालिका के आदेशों-निर्देशों के ऊपर इस्लामी शरीयत को अघोषित वीटो अधिकार देना; आम मुसलमानों को देशभक्ति, भारतीय परंपरा, संस्कृति से पूरी तरह अलग करने के लिए तबलीगियों को छूट देना; सेक्यूलरिज्म को इस्लाम-परस्त अर्थ देना; आदि। जो पार्टी या उम्मीदवार यह सब करेगा, केवल उसी को वोट मिलेंगे। इस प्रकार मुस्लिम वोट-बैंक किसी पार्टी का नहीं, इस्लाम का है!

पाठक स्वयं निर्णय करें। संविधान की अस्थाईधारा 370 हटाना, कश्मीर में हिंदुओं, सिखों, बौद्धों का भवितव्य, समान नागरिक कानून संहिता बनना, वंदे मातरम राष्ट्रगान, बंगलादेश से इस्लामी घुसपैठ को रोकना, कट्टरपंथी व संदेहास्पद मदरसों के विस्तार, आदि अनेक गंभीर मुद्दे देश के अस्तित्व से जुड़े हैं। इन विषयों पर पाँच दशक पहले की तुलना में आज क्या स्थिति है? क्या यह संविधान के स्पष्ट निर्देशों एवं देश-हितों से और दूर नहीं खिसक गई है? ऐसा किन की जिद से, और किस प्रक्रिया से हुआ? आज देश की दुर्गति यह है कि किसी नेता, आंदोलन, संगठन, पाठ्यक्रम, पुस्तक, पत्र-पत्रिका, यहाँ तक कि निर्वाचित केंद्र, राज्य सरकार और न्यायालयों तक की वैधता भी संविधान से तय नहीं होती! वह इस बात से तय होती है कि इस्लामी नेता व उन के सेक्यूलर-वामपंथी चाटुकार उस से संतुष्ट हैं या नहीं।

अपनी सदा नाराज मुद्रा से इस्लामी नेता सभी दलों को चाटुकारी के लिए विवश करते हैं। उन से चढ़ावे पा-पाकर भी ठगे जानेकी झूठी शिकायत करके आक्रोश दिखाते हैं। तरह-तरह के विदेशी इस्लामी मुद्दों पर मनमानी माँगे करते हैं, और न पूरा होने पर मुस्लिमों की उपेक्षा का दावा ठोकते हैं। इस स्थाई नीति से आज यहाँ हर उस नेता, अफसर, विधायक, सांसद का पद असुरक्षित है जिस से मुस्लिम नाराजहो जाएं, चाहे उस ने कितनी ही निष्पक्षता से अपना कर्तव्य पूरा किया हो। यही स्थिति राज्यपालों, उपकुलपतियों, संपादकों आदि की भी है।

समय के साथ भारतीय राजनीति का एक अलिखित नियम बन गया है। इसे हिंदू और मुस्लिम दोनों समझते हैं। मुस्लिम नेताओं को मालूम है कि उन्हें सदैव असंतोष का अभिनय करना है, ताकि विभिन्न हिंदू सत्ताधारियों द्वारा नए-नए चढ़ावे मिलते रहें। अन्यथा यह कैसे संभव हुआ कि तीन तलाक, चार बीवियाँ, जैसी कई शरीयत-सम्मत सुविधाएं मुसलमानों को अनेक इस्लामी देशों में भी नहीं, किंतु भारत में हैं? हज यात्रा के लिए सरकारी अनुदान किसी इस्लामी देश में नहीं। परंतु यह सब भारत के सेक्यूलरशासन में मुस्लिमों को हासिल हैं। फिर भी उन के नेता हमेशा नाराजगी की सूरत बनाए रहते हैं! सिर्फ इसलिए, कि यह मुद्रा उन की कामधेनु है।

सर्वविदित है कि हमारे मुस्लिम नेता द्वारा सदैव ताकत और धमकी के अंदाज से बात करते हैं। उन की भाषा भी उन की आक्रामक मानसिकता की चुगली करती है, जो किसी इस्तेमाल होने वालेकी नहीं, ‘इस्तेमाल करने वालेकी भाषा है। मुस्लिम समूह अपनी संगठित ताकत जानते हैं। इस में वे अरब देशों से अपने मजहबी संबंध को भी जोड़ते हैं, जिस का हवाला दे कुछ मुस्लिम नेताओं ने गाहे-बगाहे भारत सरकार तक को धमकियाँ दी है! कोर्ट को भी अँगूठा दिखाया है। फिर भी यहाँ मीडिया में अल्पसंख्यक असुरक्षाका झूठा प्रचार बेशर्म होता है! और कई हिंदू पत्रकार, बुद्धिजीवी इसे तथ्य मान उल्टे हिंदुओं की ही लानत-मलानत करते हैं।

मुस्लिम वोट-बैंककेवल इस्लाम का, न कि किसी राजनीतिक दल का वोट-बैंक हैं। यह भी समझना चाहिए कि संगठित और निश्चित वोटिंग की प्रवृत्ति से यहाँ मुसलमानों की राजनीतिक ताकत उन के जनसंख्या प्रतिशत से कहीं अधिक है। 1995 में जब चुनाव आयोग ने फोटो पहचान-पत्र बनवाए तो बिहार में देखा गया कि हिंदुओं में 40-45 प्रतिशत लोग ही वह बनवाने गए, जब कि मुसलमानों में यह संख्या 90 प्रतिशत तक थी। दूसरे क्षेत्रों में भी स्थिति शायद ही भिन्न हो। निर्वाचन के दिन भी देश भर में मुस्लिम मतदाताओं का अधिक बड़ा हिस्सा अपने अधिकार का प्रयोग करने निकलता है। अतः जो लोग आबादी के 13 या 20 % के हिसाब से मुसलमानों की चुनावी, राजनीतिक ताकत आंकते हैं, वे बड़ी भूल करते हैं। अपनी कटिबद्धता से मुसलमानों की प्रभावी शक्ति उससे भी अधिक है।

यहाँ साल दर साल मुस्लिम नेताओं की माँगों, आंदोलन, अभियान, बहस आदि का आकलन करें तो उन में मात्र इस्लामी एजेंडा बढ़ाने की चाह दिखती है। जिस आवेश और एकजुटता से वे खुमैनी, बोस्निया, अफगानिस्तान या ईराक के लिए सड़कों पर उतर पड़ते हैं वह अपने देश के लिए या विकास संबंधी मुद्दों पर कभी नहीं देखी जाती। अतः राष्ट्रीय एकता व सम्मान ही नहीं, शिक्षा, रोजगार, बिजली, पानी जैसे मुद्दे भी मुस्लिम नेताओं की प्राथमिकताएं नहीं हैं। वे तो आधुनिक प्रगति के लक्षणों को ही इस्लाम-विरुद्ध मानते हैं! अतः पिछड़ेरहना मुसलमानों की स्वेच्छा है। फिर भी इसे ऐसे पेश किया जाता है मानो इस के लिए उन के विरुद्ध भेद-भाव दोषी हो।

सच यह है कि जिन के हम-ख्याल तालिबान और आदर्श अरब की मजहबी प्रचार-संस्थाएं हो, जिन के गर्व के विषय आतंकवादी सूत्रधार व संगठन हों, उन्हें विकास के सेक्यूलर प्रतिमानों से कुछ नहीं लेना-देना। इस में कोई भ्रम नहीं पालना चाहिए। मुस्लिम नेताओं को वह आर्थिक-शैक्षिक-सामाजिक उन्नति चाहिए ही नहीं जिस में पारसी, ईसाई, हिंदू आदि आगे हैं। पिछले अनगिनत वर्षों से उनकी माँगों की सिलसिलेवार फेहरिश्त ही बना कर देख लीजिए। उसमें अपने आर्थिक, बौद्धिक उन्नति की कोई परवाह ही नहीं हैं। लेकिन गैर-मुस्लिमों की वही उन्नति दिखा कर वे अपने वंचित होने का ढोंग रचते हैं! ताकि मूढ़ हिंदू बुद्धिजीवियों को भ्रमित किया जा सके जो इस्लाम को जानते ही नहीं। फिर राजनीतिक दलों को ब्लैकमेल कर, यहाँ इस्लामी विस्तार के लिए सौदेबाजी और हर तरह के छल-प्रपंच करते हैं।

इसीलिए, भारत में मुसलमानों ने कभी अपने वोट के बारे में किसी राजनीतिक दल को बेफिक्र होने नहीं दिया। चाहे किसी दल ने इस्लामी एजेंडा बढ़ाने में कितनी ही मदद की हो, वह मुस्लिम वोटों के प्रति आश्वस्त नहीं रह सकता। इस का सबसे कड़वा अनुभव स्वयं भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को हुआ, जिस ने पाकिस्तान बनाने में सक्रिय सहयोग करके बड़ी उम्मीदें पाली थी। पर मुस्लिमों ने भारत-विभाजन कराने में कम्युनिस्टों का इस्तेमाल कर के उन्हें फौरन भुला दिया। यही हालत भाजपा समेत सभी दलों की रही, जिस ने इस्लामी एजेंडे को समर्थन या आदर देकर वोटों की आशा की।

अतः यह कहना बिलकुल गलत है कि यहाँ किसी भी पार्टी ने मुसलमानों का वोट-बैंक के रूप में इस्तेमाल किया है। सही तस्वीर यह है कि हरेक दल को मुस्लिम नेताओं ने इस्लामी एजेंडा आगे बढ़ाने के लिए इस्तेमाल किया है। वह भी बड़े सस्ते और इस शिकायती अंदाज में कि वे खुद को लुटा हुआ बता कर भोले हिंदू बुद्धिजीवियों की सहानुभूति अलग से बटोरते हैं।

वस्तुतः सरकारी नीति को इस्लाम-परस्त बनाने का कार्य नेहरू जी के शासन काल से ही आरंभ हो गया था। इसीलिए कांग्रेस में हिंदू स्वाभिमान वाले नेताओं को एक-एक कर किनारे भी किया गया। जबकि नीतियों में इस्लामी अंधविश्वासों, कुरीतियों तक को सहानुभूति व सहायता दी गई। वही कार्य कांग्रेस आज भी कर रही है, और दूसरे दल भी उसी का अनुकरण कर रहे हैं। दिग्विजय सिंह खुलकर 1947 से पहले की मुस्लिम लीग के नेता की सी भूमिका निभा रहे हैं। उन के लिए विश्व-कुख्यात आतंकवादी लादेन जीहै, जबकि विश्व-विख्यात, सम्मानित योग-गुरू रामदेव ठग’! ऐसा कहने वाले को कांग्रेस में सर्वोच्च नीतिकार की हैसियत हासिल है। यह सब केवल सत्ता के लोभ से हो रहा है, यह कांग्रेस समर्थक लोग और मुस्लिम भी जानते हैं।

हिंदू नेताओं की सत्ता लिप्सा और अन्य कमजोरियों से यहाँ के इस्लामी नेता, और पाकिस्तान तथा अन्य महत्वपूर्ण मुस्लिम देशों के नेता भी बखूबी परिचित हैं। इन कमजोरियों में एक यह है कि प्रायः हिंदू छत्रप या नेता अपने ही स्वधर्मी, बंधु या सहकर्मी को बढ़ते नहीं देख पाते। चाहे इस के लिए उन्हें किसी दुश्मन या विदेशी को लाभ उठाने देना पड़े। इस में क्या संदेह कि भारत में सेक्यूलरिज्मको हिंदू-विरोधी अर्थ व दिशा देने का काम मुख्यतः हिंदू नेताओं ने ही किया? सन् 1959 में हज सबसिडी नेहरू ने ही आरंभ की, जिस के लिए न कोई माँग थी, न अपेक्षा। पर सरकारी धन से एक समुदाय के सदस्यों के निजी मजहबी कार्य को सालाना मदद आरंभ की गई। ऐसी सबसिडी दुनिया के किसी मुस्लिम देश में भी नहीं है। तब भारत में इस सबसिडी के रूप में हिन्दू जनता एक तरह से जजिया ही भर रही है! मगर राजनीतिक दलों की ओर से इस खुले अन्याय पर कोई आवाज नहीं उठती। तब कौन किस का उपयोग कर रहा है?

सच यह है कि यहाँ इस्लाम ने हिंदुओं की कमजोरी और अज्ञान का लाभ शतियों उठाया। आश्चर्य नहीं कि वह आज भी इस में सफल है।

No comments: