Thursday, January 12, 2012

1962 के भूले-बिसरे सबक

 ब्रह्मा चेलानी
प्रस्‍तुति: डॉ0 संतोष राय
[चीन से युद्ध के पचास साल पूरे होने पर बीजिंग की रणनीति पर नए सिरे से विचार-मंथन की जरूरत महसूस कर रहे हैं ब्रह्मा चेलानी]
1962 के चीन के हमले की पचासवीं वर्षगांठ पर 2012 में हमें इस युद्ध के सबक पर मंथन करना चाहिए। छल और औचक धावा चीन की रणनीति के अहम पहलू हैं और 1962 इसका कलात्मक उदाहरण था। धोखे से अचानक हमला करने का सिद्धांत चीन में ढाई हजार साल पहले सुन त्सू की पुस्तक 'युद्ध कला' में वर्णित है। जबसे कम्युनिस्ट सत्ता में आए हैं, चीन एशिया में सबसे अधिक लड़ाइयों में लिप्त रहा है। 1950 के बाद चीन ने जितनी भी लड़ाइयां लड़ी हैं, किसी में भी पूर्वचेतावनी नहीं दी गई।
2010 में जारी पेंटागन की रिपोर्ट के अनुसार चीन ने 1950 में सुरक्षा के नाम पर तिब्बत पर कब्जा कर लिया और इसके तुरंत बाद कोरिया युद्ध में कूद पड़ा। 1962 और 1969 में सोवियत संघ के साथ सीमा पर टकराव हुआ और 1979 में वियतनाम के खिलाफ आक्रामक कार्रवाई की गई। रिपोर्ट के अनुसार आधुनिक चीनी लड़ाइयों में अनेक ऐसे उदाहरण हैं जब चीनी नेतृत्व ने सैन्य हमले को सामरिक सुरक्षात्मक कदम का नाम दिया। 1974 में वियतनाम के पारासेल द्वीप के कब्जे के लिए की गई आक्रामक कार्रवाई भी इसका उदाहरण है।
1962 के हमले को बीजिंग ने सुरक्षात्मक कार्रवाई के नाम पर न्यायोचित ठहराया था। वह भारत को हमलावर के रूप में चित्रित करने के लिए नेहरू की असावधानी भरी टिप्पणी का प्रयोग करता था कि हमारे भूभाग को मुक्त किया जाए। 62 का युद्ध धोखे से हमला करने का श्रेष्ठ उदाहरण है। चीन ने दो अलग-अलग मोर्चो से औचक हमला बोलकर भारत को चौंका दिया और भारतीय सेना के पैर उखाड़ दिए। नेहरू ने इसे सही ही 'पीठ में छुरा घोंपना' बताया। उन्होंने कहा कि एक शक्तिशाली और बिगड़ैल विरोधी शांति और शांतिपूर्ण तरीकों की जरा भी परवाह नहीं कर रहा और अच्छाई के बदले में बुराई दे रहा है।
32 दिन के हमले को बहुत चतुराई से और सही समय पर अंजाम दिया गया। यह हमला क्यूबा मिसाइल संकट के समय बोला गया जब सोवियत संघ और अमेरिका परमाणु महायुद्ध के कगार पर खड़े थे। जिस दिन अमेरिका ने क्यूबा से प्रतिबंध हटा दिए थे और इसके साथ ही क्यूबा मिसाइल संकट खत्म हो गया था, चीन ने भारत के खिलाफ आक्रामक कार्रवाई रोक दी। यह चीन का समय का चुनाव ही था कि भारत को बाहरी मदद नहीं मिल पाई, क्योंकि उस समय पूरे विश्व का ध्यान परमाणु विनाश से बचने पर केंद्रित था।
छल-कपट युद्ध से काफी पहले ही शुरू हो गया था। इसका एक उदाहरण प्रधानमंत्री चाऊ एन लाई की 1960 की भारत यात्रा थी। यात्रा के दौरान उन्होंने भारत के सामने सीमा विवाद हल करने का लालच रखा, लेकिन इस दिशा में किया कुछ नहीं। असल में उन्हें भारतीयों को जाल में फंसाने में ज्यादा दिक्कत नहीं हुई, जो आश्वस्त थे कि 1954 में पंचशील समझौते [पांच सिद्धांतों] पर हस्ताक्षर होने के बाद उन्होंने चीन के साथ शांति कायम कर ली थी। युद्ध में भारत की शर्मनाक हार हुई, जिससे भारत को जाग जाना चाहिए था कि एक राष्ट्र तभी शांति स्थापित कर सकता है, जब वह शांति की रक्षा करने में सक्षम हो। आज, छल-कपट के बड़े खेल के तौर पर चीन रक्षा रणनीति के नाम पर ताइवान पर ध्यान केंद्रित कर रहा है। इसके बहाने चीन वृहत्तर सैन्य लक्ष्य हासिल करने में विश्व का ध्यान भटकाने की कोशिश कर रहा है। दरअसल, ताइवान को लेकर चीन के कुछ और ही इरादे हैं। अगर भारत के तमाम पड़ोसी देश चीन की भारत को घेरने की चाल में शामिल हो रहे हैं तो इसका कारण सुन त्सु की यह सलाह है-अपने विरोधी को काबू में करने के लिए उसके पड़ोसियों को उसका दुश्मन बना दो। इसी सलाह पर चलते हुए चीन ने पाकिस्तान को भारत के खिलाफ खड़ा करने के लिए सैन्य मदद दी है, जिसमें परमाणु और मिसाइल प्रौद्योगिकी का हस्तांतरण भी शामिल है।
चीन की सामरिक चाल का एक और उदाहरण है सोवियत युग का 67,500 टन का जहाजी बेड़ा हासिल करना। 1998 में उक्रेन से खरीद के बाद से चीन बराबर कह रहा है कि वह इसका सैन्य उद्देश्य में इस्तेमाल नहीं करेगा। इसके सरकारी नियंत्रण वाले मीडिया में प्रकाशित हुआ था कि इसका इस्तेमाल मकाऊ के पास समुद्र पर तैरते हुए कैसिनो के रूप में होगा, किंतु 2011 के मध्य तक चीन ने इसका पुनर्निर्माण एक एयरक्राफ्ट कैरियर के रूप में कर लिया। चीन की कुटिलता ग्वादर में बंदरगाह के निर्माण से भी सामने आती है। 2007 में चीन द्वारा निर्मित यह बंदरगाह शुरू कर दिया गया था।
सिद्धांत बदलना चीन के छल-कपट के खेल का अभिन्न अंग है। चीन जापान के इस तर्क को खारिज करता है कि पूर्व चीन सागर में मध्यरेखा चीन-जापान की समुद्री सीमा है, किंतु दक्षिण चीन सागर में वियतनाम के साथ विवाद में चीन मध्यरेखा पर जोर देता है। चीन के लिए अंतरराष्ट्रीय कानून का मतलब अपने राष्ट्रीय हित साधने तक सीमित है, न कि नियमों पर आधारित अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था की स्थापना करना। इस प्रकार चीन अंतरराष्ट्रीय कानून की मनमानी व्याख्या से अपने हित साधता है। उदाहरण के लिए, यूनाइटेड नेशंस कन्वेंशन ऑन द लॉ ऑफ द सी [यूएनसीएलओएस] के तहत अपने अधिकारों की व्याख्या इस प्रकार करता है कि उसे दक्षिण चीन सागर में नौवहन का अधिकार है।
अनेक पड़ोसी देशों के साथ सीमा की यथास्थिति को स्वीकार न करने के छद्मावरण में भी चीन का छल साफ झलकता है। यह सीमापार बहने वाली नदियों के प्रवाह की यथास्थिति को बदलने पर भी जोर दे रहा है। सीमाओं और नदियों के प्रवाह में परिवर्तन पर जोर देने के साथ-साथ सामरिक अपारदर्शिता और अचानक धावा बोलने की प्रवृत्ति के कारण एशिया में चीन के उदय को लेकर बेचैनी बढ़ रही है।
जब तक चीन सीमा की यथास्थिति को नहीं स्वीकारता तब तक चीन की ओर से एक और हमले की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता। पिछले महीने लोकसभा में मनमोहन सिंह का बयान कि चीन भारत पर हमला नहीं करेगा, बेतुका लगता है। भारत के सामने इन विषमताओं से निपटने की चुनौतियां हैं। चीन फिर से अचानक हमला करने की तैयारी कर रहा है। इसीलिए यह अंतरिक्ष में तहलका मचाने वाली एंटीसेटेलाइट [एएसएटी] मिसाइलें जैसे घातक हथियार तैयार कर रहा है। इसने पहले से ही गोपनीय ढंग से साइबर युद्ध छेड़ रखा है। इसके माध्यम से वह महत्वपूर्ण ढांचागत सुविधाओं को ध्वस्त करने की क्षमता जुटा रहा है, जो युद्धकाल में घातक सिद्ध होगी। यही नहीं, इसकी सेना भी औचक हमले का अभ्यास कर रही है। 1962 का स्थायी सबक यह है कि भारत को किसी भी प्रकार के हमले से निपटने को तैयार रहना चाहिए और हमलावर की कमजोर नसों को दबाने का मौका नहीं चूकना चाहिए।
[लेखक: सामरिक मामलों के विशेषज्ञ हैं]

साभार: दैनिक जागरण

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