निरंजन परिहार
प्रस्तुति: डॉ0 संतोष राय
बाला
साहेब ठाकरे। हिंदू हृदय सम्राट। हमेशा अगल अंदाज। बिल्कुल अलग बयान। जो जी में
आया, वह बोल दिया। हर बयान पर बवाल और हर
बवाल पर देश भर में व्यापक प्रतिक्रिया। फिर भी अपने कहे पर किसी भी तरह का कोई
मलाल नहीं। कह दिया तो कह दिया। चाहे कितना भी विरोध हुआ, भले ही किसी ने भी विरोध किया, पर, वे
विरोध से विचलित कभी नहीं हुए। अपने कहे से हिले नहीं। कभी डिगे नहीं। एकदम अटल
रहे। हमेशा अडिग। बाला साहेब दमदार थे। दिग्गज थे। दयालू भी थे और दिलदार भी। दिल
के राजा थे। निधन भी दिल का दौरा पड़ने से ही हुआ। कहा जा सकता है कि जाते जाते भी
दिल से दिल का रिश्ता निभाते गए। दिलवाले बाला साहेब के नाम के साथ अब स्वर्गीय
लिखा जाएगा, यह लाखों दिलों को कभी मंजूर नहीं
होगा।
अब
जब, वे नही हैं, तो बहुत सारे लोगों को यह बता देना भी
जरूरी है कि राजनीति में बाल ठाकरे को जितना सम्मान हासिल था, उतना सम्मान पाने के लिए हमारे देश के
ही नहीं दुनिया भर के हजारों नेताओं को कई कई जनम लेने पड़ेंगे। और, यह जान लेना भी जरूरी है कि बाला साहेब
को हासिल सम्मान भी किसी और की खैरात या उधार की सौगात नहीं था। उनको यह सम्मान
उनकी फितरत से हासिल था। सम्मान इतना कि लिखने में बाल ठाकरे को ‘बाला साहेब’ लिखा जाता है और बोलने में ‘साहेब’ कहा जाता है। भारतीय राजनीति का इतिहास देख लीजिए, हर नेता को किसी न किसी के साए की
जरूरत होती रही है। हर कोई किसी न किसी की वजह से किसी मुकाम पर होता है। पर
राजनीति में बाल ठाकरे का ना तो कोई गॉडफादर था और ना ही कोई खैरख्वाह। पता नहीं
जीवन के किस मोड़ पर कहां बाला साहेब ने यह जान लिया था कि राजनीति में विचार, वाणी और व्यवहार ही सबसे बड़ी पूंजी
हुआ करते हैं। और यह भी समझ लिया था कि इनका जितना ज्यादा उपयोग किया जाएगा, राजनीति उतनी ही खिल उठेगी। इसीलिए
विचार, वाणी और व्यवहार को ही उनने अपने
गॉडफादर के रूप में खड़ा कर दिया। इन तीनों के अलावा, भले ही कोई व्यक्ति हो या वाद, राजनीति में बाला साहेब ने किसी भी
चौथे को तवज्जो नहीं दी। विचार उनके अपने होते थे। वाणी उन विचारों के मुकाबिल
होती थी। फिर विचार और वाणी के साथ ही उनका व्यवहार भी वैसा ही विकसित होता था।
इसीलिए कहा जा सकता है कि बाला साहेब को बाला साहेब किसी और ने नहीं बनाया। उनको
बाला साहेब बनाने में उनकी फितरत का ही सबसे बड़ा रोल रहा। और यह भी उनकी अपनी
फितरत ही थी कि राजनीति में बाला साहेब सबके आलाकमान रहे। मगर उनका आलाकमान कोई
नहीं।
राजनीति
में बहुत सारे लोग, बहुत सारे लोगों की बहुत सारी सलाह
लेकर अपनी रणनीति तय करते हैं। उसके बाद मैदान में उतरते हैं। लेकिन बाला साहेब तो
खुद ही अपने सलाहकार थे। मैदान भी वे ही चुनते थे, योद्धा भी वे ही होते थे और निशाना भी वे ही लगाते थे। निशाना हमेशा
से उनकी जिंदगी का सबसे बड़ा शौक रहा। लोगों को सदा उनने अपने निशाने पर रखा और वे
खुद भी पूरे शौक के साथ हमेशा निशाने पर रहे। राजनीति में आने से पहले जब वे
कार्टूनिस्ट थे, तब भी राजनेता ही उनके निशाने पर थे।
राजनीति में उतर गए, तब भी राजनेता उनके निशाने पर रहे। पर, इस बात का क्या किय़ा जाए कि निशाने की
नीयती ने हमेशा निशाने पर खुद बाला साहेब को भी रखा, जिससे वे खुद भी कभी बच नहीं पाए।
जो
पद के लिए राजनीति में आते हैं और आने के बाद पद पाने की लालसा में इधर से उधर आया
जाया करते हैं, बाला साहेब उन लोगों के लिए हमेशा
अजूबा ही रहे। पूरे जीवन में ना किसी पद की लालसा नहीं पाली और ना ही खुद ने कभी
कोई पद नहीं लिया, पर महापौर से लेकर मुख्यमंत्री, यहां तक कि प्रधानमंत्री भी और लोकसभा
अध्यक्ष से लेकर राष्ट्रपति भी उनने बनाए। उनके अपने लोगों में सबसे पहले छगन
भुजबल, फिर नारायण राणे, बाद में मनोहर जोशी, बीजेपी के अटल बिहारी वाजपेयी और कांग्रेस
की प्रतिभा पाटिल, कोई यूं ही बाला साहेब का गुणगान थोड़े
ही करते हैं। इतना तो आप भी जानते ही हैं कि हमारे देश में बहुत सारे लोग
प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति बनकर भी अपने परिवार तक के लोगों के दिल के किसी कोने
में भी जगह नहीं बना पाए। उसी देश में बाला साहेब बिना किसी पद पर रहकर भी देश भर
में करोड़ों लोगों के पूरे के पूरे दिल पर ही कब्जा किए हुए देखे जाते रहे हैं।
लोग
मुखौटों की राजनीति करते हैं। छद्म छंद गाते हैं और सायों का साथ लेते हैं। लेना
ही होता तो बाला साहेब के लिए यह सब कुछ बहुत सहज था। पर, बाला साहेब बेबाकी से आम आदमी की भाषा
में भाषण करके आम आदमी के मन को मोहते रहे। ऐसा वे इसलिए करते रहे क्योंकि इस गुर
को उनने समझ लिया था कि भावनाओं के भंवर में उतरकर ही राजनीति के भवसागर को आसानी
से पार किया जा सकता है। भारतीय राजनीति के हमारे बहुत सारे नेताओं को हमने अकसर
यह कहते सुना हैं कि राजनीति में भावनाओं के लिए कोई जगह नहीं होती। पर, ऐसे लोगों के लिए बाला साहेब की पूरी
जिंदगी एक अजूबा रही। क्योंकि देश के बाकी राजनेताओं की तरह भावनाओं के साथ खेल
करना तो वे भी जानते थे। पर, अपनी
राजनीति वे खुद को भावनाओं से भरकर करते रहे। यही वजह रही कि उन पर बाकी तो किसम
किसम के सारे आरोप लगते रहे, पर
जन भावनाओं से खेलने और खिलवाड़ करने के आरोप कभी नहीं लगे। वरना मराठी माणूस और
मराठी अस्मिता भावनाओं का मुद्दा नहीं तो और क्या थे। बाकी बातों के साथ साथ एक यह
बात और कि राजनीति में लोग एक सोची समझी रणनीति के तहत अखबारों का अपने समर्थन में
खुलकर उपयोग करते हैं, पर स्वीकारने से बचते हैं। मगर, बाला साहेब ने तो इसके उलट अपने लिए
मराठी में ‘सामना’ और हिंदी में ‘दोपहर
का सामना’ अखबार भी निकाले और अपनी राजनीति को
चमकाने में उनका भरपूर अपयोग भी किया। बाकी नेताओं की तरह किसी से कभी भी कुछ भी
नहीं छुपाया। शराब के शौक से लेकर सिगार का धुआं। सब कुछ डंके की चोट पर।
मराठी
माणूस, मराठी अस्मिता और मुंबई के अलावा
महाराष्ट्र को हमेशा सर्वोपरि माननेवाले बाला साहेब ने अपने जीवन में कई बड़ी बड़ी
राजनीतिक लड़ाईयां पहले खुद ही खड़ी कीं। फिर उनको जीता भी। यह उनकी फितरत रही।
लेकिन यह सभी जानते हैं कि अपनी फितरत की वजह से ही शिवसेना को एकजुट रखने की
लड़ाई में वे उसी तरह से हार गए, जैसा
अपने अंतिम वक्त में वे पांच दिन तक जिंदगी से लड़ते रहे और अंततः जिंदगी जीत गई, साहेब हार गए। बाला साहेब तो चले गए, पर, उनकी
जगह कोई नहीं ले पाएगा। ठीक वैसे ही, जैसे
बाला साहेब ने पार्टी अध्यक्ष का पद तो छोड़ दिया, फिर भी उनकी जगह किसी ने नहीं ली। आपके ज्ञान के लिए यह बताना जरूरी
है कि उद्धव ठाकरे आज भी कार्यकारी अध्यक्ष के रूप में ही काम कर रहे हैं। अपना
मानना है कि बाला साहेब जैसा न कोई हुआ है, न
कोई होगा। इसलिए, क्योंकि जैसा कि पहले और हमेशा अपन
कहते रहे हैं कि उनके जैसा बनने के लिए कलेजा चाहिए। सवा हाथ का कलेजा। ऐसे
कलेजेवाले ही करिश्मा पैदा कर करते है। और अब जब बाला साहेब हमारे बीच नहीं है, तो हमारे समय की राजनीति में किसी अन्य
व्यक्ति से करिश्मे की उम्मीद करना कोई बहुत समझदारी का काम नहीं लगता। करिश्माई
बाला साहेब के इस जहां से चले जाने के यथार्थ का आभास राजनीति को ही नहीं बल्कि
पूरे समाज को होने में अभी बहुत वक्त लगेगा। वे लोग जो कुछ दिन पहले तक बाला साहेब
को इस युग का सबसे उग्र, हिंदुवादी और कट्टरवादी नेता करार दे
रहे थे, आज उनकी बोलती बंद है। अपन पहले भी
कहते रहे हैं और फिर कह रहे हैं कि बाला साहेब वैरागी नहीं थे, पूरे तौर पर एक विशुद्ध राजनेता थे।
मगर असल में उनकी राजनीति और उनके संघर्ष हमारी मुंबई और महाराष्ट्र को बेहतर और
रहने लायक बनाने के लिए थे। निधन की खबर सुनकर जींस – टी शर्ट पहने 25 साल का एक पढ़ा लिखा जवान मातोश्री के
बाहर धार धार रोते हुए आहत भाव से कह रहा था - इस साली जिंदगी का क्या भरोसा, आज है और कल नहीं। सवाल यह नहीं है कि
बाला साहेब के प्रति नए जमाने की इस नई पीढ़ी की श्रद्धा अब किस तरफ जाएगी। पर, राजनीति में अब करिश्मे की उम्मीद
किससे की जाए, यह सबसे बड़ा सवाल है।
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