Tuesday, April 5, 2011

काश मनमोहन सिंह भारत-पाक मैच पान की दूकान पर देखा होता

सुरेश चिपलूनकर    प्रस्तुति: डॉ. संतोष राय


 
 
भारत और पाकिस्तान के बीच बहुप्रतीक्षित मैच अन्ततः 30 मार्च को सुखद अन्त के साथ सम्पन्न हो गया। 26/11 के मुम्बई हमले के बाद पाकिस्तान के साथ भारत का यह पहला ही मुकाबला था, इसलिये स्वाभाविक तौर पर भावनाएं उफ़ान पर थीं। रही-सही कसर भारत के अधकचरे इलेक्ट्रानिक मीडिया (जो कि परम्परागत रूप से मूर्खों, बेईमानों, चमचों से भरा है) ने इस मैच को लेकर जिस तरह अपना “ज्ञान”(?) बघारा तथा बाज़ार की ताकतों (जो कि परम्परागत रूप से लालची, मुनाफ़ाखोर और देशद्रोही होने की हद तक कमीनी हैं) ने इस मौके का उपयोग अपनी तिजोरी भरने में किया… उस वजह से इस मैच के बारे में आम जनता की उत्सुकता बढ़ गई थी।



इस माहौल का लगे हाथों फ़ायदा उठाने में कांग्रेस सरकार, मनमोहन सिंह, विदेश मंत्रालय के अफ़सरों (Foreign Ministry of India) और सोनिया-राहुल ने कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखी। मीडिया भी 7-8 दिनों के लिये इस ओर व्यस्त कर दिया गया, आगामी 5 राज्यों के चुनाव (Assembly elections in India) को देखते हुए पाकिस्तान को पुचकारने (प्रकारान्तर से खुद के मुँह पर जूता पड़वाने) का इससे बढ़िया मौका कौन सा मिल सकता था। यह कांग्रेस की घटिया और नीच सोच ही है कि उसे लगता है कि पाकिस्तान से मधुर सम्बन्ध बनाने पर भारत के मुसलमान खुश होंगे, यह घातक विचारधारा है, लेकिन मीडिया इसकी परवाह नहीं करता और कांग्रेस की “अखण्ड चमचागिरी” में व्यस्त रहता है।

सो, पाकिस्तान से दोस्ती (India-Pakistan Relations) की कसमें खाते, कुछ “नॉस्टैल्जिक” किस्म के अमन की आशा वाले “दलालों” की सलाह पर, मौके का फ़ायदा(?) उठाने के लिये मनमोहन सिंह ने उस व्यक्ति को मैच देखने भारत आने का निमंत्रण दे दिया, जो लगातार पिछले दो साल से पाकिस्तान में छिपे बैठे 26/11 के मुख्य अपराधियों और षडयंत्रकारियों को बचाने में लगा हुआ है, भारत की कूटनीतिक कोशिशों पर पानी फ़ेरने में लगा हुआ है, अमेरिका से हथियार और पैसा डकारकर भारत के ही खिलाफ़ उपयोग करने में लगा है। अफ़ज़ल खान की तरह शिवाजी की पीठ में छुरा घोंपने की मानसिकता बनाये बैठे यूसुफ़ रज़ा गिलानी (Yousuf Raza Gilani) के साथ बुलेटप्रूफ़ काँच के बॉक्स में मैच देखने में मनमोहन सिंह को ज़रा भी संकोच अथवा शर्म नहीं आई। (26/11 Mumbai Attacks)

यह एक सामान्य सिद्धांत है कि जो नेता अपनी जनता की भावनाओं को समझ नहीं सकता, उसे नेता बनकर कुर्सी से चिपके रहने का कोई हक नहीं है। आम जनता की भावना क्या है, यह 30 मार्च की रात को समूचे भारत में कश्मीर से कन्याकुमारी और गुवाहाटी से राजकोट तक साफ़ देखी जा सकती थी, और जो इस जनभावना के ज्वार को नहीं पढ़ पा रहे हैं, ऐसे नेता पक्ष और विपक्ष में अपनी राजनैतिक गोटियाँ बैठाने में लगे हुए हैं। पाकिस्तान का हर विकेट गिरने पर पटाखे छोड़ने वाले, मैच जीतने के बाद आतिशबाजी करने वाले, अपनी-अपनी गाड़ियों पर तिरंगा लहराते, “हिन्दुस्तान जिंदाबाद” (सेकुलरों का मुँह भले यह सुनकर कड़वा हो, लेकिन हकीकत यही है कि “इंडिया-इंडिया” की बजाय “भारत माता की जय” तथा “हिन्दुस्तान जिन्दाबाद” का ही जयघोष चहुँओर हुआ) नारे लगाते बड़े-बूढ़े, हिन्दू-मुस्लिम, नर-नारियाँ जिस “भावना” का प्रदर्शन कर रहे थे, उसे कोई बच्चा भी समझ सकता था। यदि मनमोहन सिंह ने गली-नुक्कड़ की पान की दुकानों पर खड़े होकर मैच देखा होता तो वे जान जाते कि आम आदमी उनके बारे में, पाकिस्तान के बारे में, पाकिस्तान के खिलाड़ियों के बारे में, तथाकथित गंगा-जमनी वाले फ़र्जियों के बारे में… किस भाषा में बात करता है और क्या सोच रखता है।

उत्तर भारत के ग्रामीण इलाकों में रहने वाले लोग जानते हैं कि होली (Holi Festival in India) खेलने के दौरान कैसी गालियों से युक्त भाषा का उपयोग किया जाता है, सोनिया-राहुल अपना एसी बॉक्स छोड़कर ग्रामीण कस्बे के किसी चौराहे पर मैच देखते तो जान जाते कि लोगों ने दीपावली तो मैच जीतने के बाद मनाई थी, होली पहले मनाई… अर्थात “होली के माहौल वाली भाषा” पूरे मैच के दौरान जारी थी। कामरान अकमल का विकेट गिरने से लेकर मिस्बाह का विकेट गिरने तक हर बार तथा स्क्रीन पर कभीकभार दिखाये जाने वाले यूसुफ़ रज़ा गिलानी का दृश्य देखते ही पान की दुकान पर जिस प्रकार की गालियों की बौछार होती थी, उन सभी गालियों को उनके अलंकार सहित यहाँ लिखना नैतिकता के तकाजे की वजह से असम्भव है। परन्तु 30 मार्च को जिसने भी “आम जनता” के साथ मैच देखा और धारा 144 तथा बड़ी स्क्रीन नहीं, डीजे नहीं, अधिक शोर नहीं… जैसे विभिन्न सरकारी प्रतिबन्धों को सरेआम धता बताकर जैसा जश्न मनाया… उसका संदेश साफ़ था कि पाकिस्तान नाम के “खुजली वाले कुत्ते” से अब हर कोई परेशान है और उसे लतियाना चाहता है, दबाना और रगेदना चाहता है… परन्तु इस भावना को न तो अटल जी समझने को तैयार थे, न मनमोहन सिंह समझने को तैयार हैं, और न ही आडवाणी।

यदि मोहाली में मैच शुरु होने से पहले दोनों प्रधानमंत्री हमारे शहीद जवानों के सम्मान में दो मिनट का मौन रखते, अथवा मुम्बई हमले में मारे गये शहीदों की याद में दीपक प्रज्जवलित किये जाते, अथवा पाकिस्तान से विरोध प्रदर्शित करने के लिये कम से कम 20-25 हजार दर्शक और सोनिया-राहुल स्वयं काली पट्टी बाँधकर आते… परन्तु ऐसा कुछ नहीं हुआ… इसी से साबित होता है कि हमारे देश के नेताओं की "कथित देशभक्ति" कितनी संदिग्ध है… और उनमें पाकिस्तान के समक्ष कोई "कठोर"  तो छोड़िये, हल्का-पतला प्रतीकात्मक प्रतिरोध करने लायक "सीधी रीढ़ की हड्डी" भी नहीं बची है।

ड्राइंगरूमों में बैठकर चैनलों की स्क्रिप्ट लिखने वाले तथाकथित “अंग्रेजीदां बुद्धिजीवी” भी कभी इस भावना को नहीं समझ सकते। हमने पाकिस्तान को 4-4 बार युद्ध में हराया है और विश्वकप के मुकाबलों में भी 5 बार हराया है, हमने पाकिस्तान के दो टुकड़े किये हैं (चार टुकड़े और भी करने की क्षमता है), परन्तु कश्मीर के जिस नासूर को पाकिस्तान ने लगातार 60 साल से लहूलुहान रखा है, कभी दाऊद इब्राहीम, टाइगर मेमन तो कभी अफ़ज़ल गुरुओं-कसाबों के जरिये जिस तरह लगातार कीलें-काँटे चुभाता रहा है… अब उससे “आम जनता” आज़िज़ आ चुकी है…। पान की दुकान पर रखे टीवी पर चलते मैच के दौरान होने वाली "देसी गालियों से लैस" अभिव्यक्तियों के स्वर यदि समय रहते देश के कर्णधारों के “तेल डले कानों” तक पहुँच जाये तो ज्यादा अच्छा रहेगा…

अब अन्त में एक कड़वी बात 30 मार्च की रात को जश्न मनाने वाले “वीरों” से भी –



पाकिस्तान को हराने पर आपने जश्न मनाया, पटाखे फ़ोड़े, मिठाईयाँ बाँटी, रैली निकाली, हॉर्न बजाये, तिरंगे लहराये… कोई शिकायत नहीं है। कुछ लोगों ने इस उन्मादी क्रिकेट प्रेम पर यह कहकर नाक-भौंह सिकोड़ी कि ये सब बकवास है, देश जिन समस्याओं से जूझ रहा है उसे देखते हुए ऐसा भौण्डा जश्न मनाना उचित नहीं है… परन्तु ऐसे शुद्धतावादियों से मैं सिर्फ़ इतना ही कहना चाहता हूँ कि आम जनता के जीवन में इतने संघर्ष हैं, इतने दुःख हैं, इतनी गैर-बराबरी है कि उसे खुशी मनाने के मौके कम ही मिलते हैं, इसलिये भारत-पाक क्रिकेट मैच के जरिये थोड़ी देर की “आभासी” ही सही, खुशी मनाने का मौका उन्हें मिलता है। अपना गुस्सा व्यक्त करने की कोई संधि या कोई मौका-अवसर इन आम लोगों के पास नहीं है, इसलिये वह गुस्सा पाकिस्तान के खिलाफ़ मैच के दौरान निकल जाता है… इसलिये मैं कहना चाहता हूँ कि देशभक्ति का यह प्रदर्शन, खुशियाँ, नारेबाजियाँ इत्यादि सब कुछ, सब कुछ माफ़ किया जा सकता है, बशर्ते यह भावना “पेशाब के झाग” की तरह तात्कालिक ना हो, कि ‘बुलबुले की तरह उठा और फ़ुस्स करके बैठ गया”।

दुर्भाग्य से हकीकत यही है कि हमारी राष्ट्रवाद और देशप्रेम की भावना, पेशाब के झाग की तरह ही है… मैच जीतने का जश्न खत्म हुआ, पाकिस्तान और ज़रदारी-गिलानी को गालियाँ देने का दौर थमा और अगले दिन से आम आदमी वापस अपनी “असली औकात” पर आ जाता है, उसे देश को लूटने वालों से कोई फ़र्क नहीं पड़ता, उसे उसका जीवन दूभर करने वाले नेताओं से कोई फ़र्क नहीं पड़ता, उसके बच्चों का जीवन अंधकारमय बनाने वाले भ्रष्टाचार से कोई फ़र्क नहीं पड़ता… तो फ़िर ऐसी देशभक्ति(?) का क्या फ़ायदा जो घण्टे-दो घण्टे हंगामा करके “बासी कढ़ी के उबाल” की तरह बैठ जाये?

भारत-पाकिस्तान के मैच ने दोनों वर्गों (शासकों और शासितों) को साफ़ संदेश दिया है –

शासकों :- जनभावना को समझो, उसका सम्मान करो और तदनुसार आचरण करो…

जबकि ऐ शासितों और शोषितों :- देशभक्ति और राष्ट्रवाद कोई हॉट डॉग या इंस्टेंट फ़ूड नहीं है कि खाया और भूल गये… यह भावना तो “अचार-मुरब्बे” की तरह धीरे-धीरे पकती है, “असली स्वाद के साथ अन्दर तक उतरती है” और गहरे असर करती है। यदि भ्रष्टाचार, महंगाई, अनैतिकता, भाई-भतीजावाद, जातिवाद, अत्याचार, देश की खुली लूट देखकर भी आपका खून नहीं खौलता, तो मान लीजिये कि 30 मार्च की रात जो आपने दर्शाया वह फ़र्जी देशप्रेम ही था… और पेशाब के झाग की तरह वापस चुपचाप अपने घर बैठ जाईये, काम पर लग जाईये…। यदि घोटालों, घपलों, स्विस बैंक, हसन अली, सत्ता के नंगे नाच, कांग्रेस-वामपंथियों के आत्मघाती सेकुलरिज़्म, को यदि आप भूल जाते हैं तो “देशभक्ति के बारे में सोचने” के लिये अगले भारत-पाक मैच का इन्तज़ार कीजिये…स

 लेखक का ब्लॉग है: http://www.blog.sureshchiplunkar.com/

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