डॉ0 संतोष राय की कलम से
आपसी भाईचारा , मित्रता और दोस्ती समाज को संगठित और सशक्त करने के लिए
जरूरी है . इस बात से कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति इन्कार नहीं करेगा .लेकिन यह भी
सत्य है कि मित्रता और दोस्ती दौनों तरफ से होना चाहिए . किसी से दोस्ती करते समय
हमें महर्षि दयानन्द के बताये इस नियम का पालन करना चाहिए " सबसे प्रेमपूर्वक
,धर्मानुसार और
जैसे को तैसा " व्यवहार करना चाहिए .परन्तु हमें यह देखकर आश्चर्य होता है कि
इस्लामी इतिहास को जानते हुए कुछ सेकुलरों को हिन्दू मुस्लिम भाईचारे की खुजली
इतनी बढ़ गयी है ,कि क्रिकेट के
माध्यम से भारत पकिस्तान की दोस्ती के सपने देख रहे हैं .इनका बस चले तो जैसे राजा
मानसिंह ने मुगलों से दोस्ती बढ़ने के लिए अपनी बहिन अकबर को दे दी थी . वैसे ही
यह सेकुलर अपनी बहिने पाकिस्तान व्याह देंगे .फिर भी उनके साथ वैसा ही धोखा होगा
जैसा औरंगजेब ने शिवाजी से किया था .हमें यह लेख लिखने की प्रेरणा " आजतक टी
वी "प्रोगराम एजेंडा आजतक 2012 से मिली , जो दिनांक 6 दिसंबर 2012 को प्रसारित हुआ . इसमे पत्रकार "राहुल कँवल "
ने पाकिस्तान इंसाफ पार्टी के अध्यक्ष से इस्लामी आतंक के बारे में सवाल किये थे .
और इमरान ने स्वीकार किया कि जिहाद ही आतंकवाद है .बड़े दुःख की बात है कि आमिर
खान जैसा दोगला चुप बैठा ,
रहा और अपनी
फिल्मों की बातें करता रहा उस विडियो का
एक भाग -.देखिये
Imran Khan -
Special Interview by Rahul Kanwal - Aaj Tak( 6 December 2012)
http://www.youtube.com/watch?v=zLP49icD2qg
संयोग की बात है कि उसी दिन भोपाल में मुसलमान विरोध दिवस
मना रहे थे . मुझे मेरे एक मित्र ने एक फतवा दिखाया , जिसमें काफिरों
से दोस्ती करने को गुनाह बताया गया है .यहाँ पर उस फतवे के मुख्य भाग ज्यों के
त्यों दिए जा रहे हैं .ताकि सेकुलर खुजली का इलाज हो सके
.
1-गैर मुस्लिमों से
दोस्ती का क्या मतलब ?
क़ुर्आन में वर्णित है कि हमारे लिए काफिरों (नास्तिकों, अविश्वासियों, अधर्मियों, अनेकेश्वरवादियों)
को दोस्त बनाना जाइज़ नहीं है, परंतु इसका अभिप्राय क्या है . मेरा मतलब यह है कि किस हद
तक यह जाइज़ है ?क्या हमारे लिए
उनके साथ मामला करना जाइज़ है ? मैं पढ़ता हूं, तो क्या हमारे लिए उनके साथ बास्केट बॉल खेलना जाइज़ है ? क्या हम उनके साथ
बास्केटबॉल आदि के बारे में बात कर सकते हैं ? क्या हम उनकी संगत अपना सकते हैं जबकि वे अपने आस्था के
मामलों को अपने तक ही रखते हैं .
मैं इसके बारे में इसलिए प्रश्न कर रहा हूँ क्योंकि मैं एक
व्यक्ति को जानता हूँ जो इसी तरह उनके साथ रहता है और उसका उनके साथ रहना उसके
आस्था पर कोई प्रभाव नहीं डालता है, लेकिन इसके बावजूद मैं उस से कहता हूँ : तुम इन लोगों के
बजाय मुसलमानों के साथ क्यों नहीं रहते हो
और वह यह जवाब देता है कि : अधिकांश - या कई एक - मुसलमान अपने एकत्र होने
के स्थान में शराब पीते हैं और नशीले पदार्थ सेवन करते हैं, तथा उनके साथ
गर्लफ्रेंड होती हैं, और वह इस बात से
डरता है कि इन मुसलमानों के पाप उसे लुभा सकते हैं, किंतु उसे विश्वास है कि काफिरों का कुफ्र उसे
कदापि प्रलोभित नहीं कर सकता है, क्योंकि वह एक ऐसी चीज़ है जो उसके लिए प्रलोभित करने वाली – आकर्षक - नहीं है, तो क्या उसका
काफिरों के साथ रहना, खेलना, और खेल के बारे
में बात चीत करना , काफिरों को दोस्त
बनाने में शुमार होगा.
हर प्रकार की प्रशंसा और स्तुति केवल अल्लाह के लिए योग्य
है।अल्लाह तआला ने मोमिनों पर काफिरों –अविश्वासियों -
को दोस्त बनाना निषेद्ध कर दिया है और इस पर बहुत सख्त धमकी दी है
2-अल्लाह की धमकी
अल्लाह तआला ने फरमाया :
﴿يَا
أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا لا تَتَّخِذُوا الْيَهُودَ وَالنَّصَارَى أَوْلِيَاءَ
بَعْضُهُمْ أَوْلِيَاءُ بَعْضٍ وَمَنْ يَتَوَلَّهُمْ مِنْكُمْ فَإِنَّهُ مِنْهُمْ
إِنَّ اللَّهَ لا يَهْدِي الْقَوْمَ الظَّالِمِينَ ﴾ [المائدة : 51].
“ऐ विश्वासियो
(ईमानवालो !), तुम यहूदियों और
ईसाईयों को दोस्त न बनाओ,
यह तो आपस में एक
दूसरे के दोस्त हैं, तुम में से जो
कोई भी इनसे दोस्ती करे तो वह उन्हीं में से है, अल्लाह तआला ज़ालिमों को कभी हिदायत नहीं देता।
सूरतुल माइदा-5 : 51).
कुरान में गैर मुस्लिमों , से मित्रता करने को अनेकों बार निषिद्ध किया है
, जैसे इस आयत में
अल्लाह तआला ने उल्लेख किया है कि मुसलमानों में से जो व्यक्ति यहूदियों और
ईसाईयों से दोस्ती करेगा,
वह उन्हें दोस्त
बनाने के कारण उन्हीं में से हो जायेगा। तथा एक अन्य स्थान पर वर्णन किया है कि
उनसे दोस्ती रखना अल्लाह की अप्रसन्नता (क्रोध) और उसके प्रकोप में अनंत के लिए
रहने का कारण है, और यह कि यदि
उनको दोस्त बनाने वाला मुसलमान होता तो उन्हें दोस्त न बनाता, और वह अल्लाह
तआला का यह फरमान हैः
﴿تَرَى
كَثِيرًا مِنْهُمْ يَتَوَلَّوْنَ الَّذِينَ كَفَرُوا لَبِئْسَ مَا قَدَّمَتْ
لَهُمْ أَنفُسُهُمْ أَنْ سَخِطَ اللَّهُ عَلَيْهِمْ وَفِي الْعَذَابِ هُمْ
خَالِدُونَ وَلَوْ كَانُوا يُؤْمِنُونَ
بِاللَّهِ وَالنَّبِيِّ وَمَا أُنزِلَ إِلَيْهِ مَا اتَّخَذُوهُمْ أَوْلِيَاءَ
وَلَكِنَّ كَثِيرًا مِنْهُمْ فَاسِقُونَ﴾ [المائدة: 80-81]
“आप उनमें से
अघिकांश लोगों को देखेंगे कि वे काफिरों से दोस्ती करते हैं, जो कुछ उन्हों ने
अपने आगे भेज रखा है वह बहुत बुरा है, (यह) कि अल्लाह (तआला) उन से नाराज़ हुआ और वे हमेशा अज़ाब
में रहेंगे। अगर वे अल्लाह पर, पैगंबर और जो उनकी तरफ उतारा गया है, उस पर ईमान रखते
तो वे काफिरों को दोस्त न बनाते, परंतु उन में से अधिकांश लोग दुराचारी हैं।
सूरतुल माइदा-5 : 80, 81).
तथा एक अन्य स्थान पर, उनसे घृणित करने के कारण को स्पष्ट करते हुए, उन्हें दोस्त
बनाने से मना किया है, और वह अल्लाह
तआला का यह फरमान है :
﴿
يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا لا تَتَوَلَّوْا قَوْمًا غَضِبَ اللَّهُ
عَلَيْهِمْ قَدْ يَئِسُوا مِنْ الآخِرَةِ كَمَا يَئِسَ الْكُفَّارُ مِنْ أَصْحَابِ
الْقُبُورِ ﴾ [الممتحنة : 13].
“ऐ विश्वासियो
(मुसलमानो), तुम उस क़ौम से
दोस्ती न करो, जिन पर अल्लाह का
क्रोध (प्रकोप) आ चुका है,
जो आखिरत से इस
तरह निराश हो चुके हैं जैसेकि मरे हुए क़ब्र वालों से काफिर मायूस हो चुके हैं।
सूरतुल मुमतहिना-60 : 13).
तथा एक दूसरे स्थान पर इस बात को स्पष्ट किया है कि इस
(निषेद्ध) का स्थान यह है कि जब दोस्ती रखना किसी डर और बचाव के कारण न हो, और यदि वह दोस्ती
इसी के कारण है तो ऐसा करने वाला व्यक्ति माज़ूर (क्षम्य) है, और वह अल्लाह
तआला का यह फरमान है :
﴿
لا يَتَّخِذْ الْمُؤْمِنُونَ الْكَافِرِينَ أَوْلِيَاءَ مِنْ دُونِ الْمُؤْمِنِينَ
وَمَنْ يَفْعَلْ ذَلِكَ فَلَيْسَ مِنْ اللَّهِ فِي شَيْءٍ إِلا أَنْ تَتَّقُوا
مِنْهُمْ تُقَاةً ﴾ [آل عمران3: 28].
“मोमिनों को चाहिए
कि ईमानवालों को छोड़कर काफिरों को अपना दोस्त न बनायें, और जो ऐसा करेगा
तो अल्लाह तआसा से उसका कोई संबंध नहीं है (अल्लाह से बेज़ार है), सिवाय इसके कि
तुम उनके डर से किसी तरह की हिफाज़त का इरादा करो।
सूरत आल इमरान 3:28
इस आयत में उन सभी आयतों का स्पष्टीकरण है जो काफिरों से
सामान्य रूप से दोस्ती से मना करने वाली हैं कि : इसका स्थान चयन (और स्वेच्छा) की
स्थिति में है, लेकिन भय और
तक़िय्या (वचाव व सावधानी) की हालत में उनसे दोस्ती रखने की छूट दी गई है केवल
इतनी मात्रा में जिसके द्वारा उनकी बुराई से बचा जा सके, तथा इसके अंदर उस
दोस्ती से दिल का पवित्र और साफ होना आवश्यक है, और जो व्यक्ति किसी चीज़ को मजबूरी में करता है
वह उस आदमी के समान नहीं है जो उसे अपने चुनाव से करता है।
और इन आयतों के प्रत्यक्ष अर्थ से यह समझ में आता है कि जिस
व्यक्ति ने काफिरों से जानबूझकर इच्छापूर्वक और उनके अंदर अभिरूचि रखते हुए दोस्ती
की तो वह उन्हीं के समान काफिर समझा जाएगा -अज़वाउल बयान“ (2 /98, 99)
तथा काफिरों से दोस्ती रखने के निषिद्ध (हराम) रूपों में से
: उन्हें मित्र और संगी बनाना, उनके साथ खाना और खेलना भी है।
इसमें कोई संदेह नहीं कि मुसलमान पर अनिवार्य है कि वह
अल्लाह के दुश्मनों से द्वेष रखे और उनसे अलगाव प्रकट करे ; क्योंकि यही
पैगंबरों और उनके अनुयायियों का तरीक़ा है, अल्लाह तआला ने फरमाया :
﴿
قَدْ كَانَتْ لَكُمْ أُسْوَةٌ حَسَنَةٌ فِي إِبْرَاهِيمَ وَالَّذِينَ مَعَهُ إِذْ
قَالُوا لِقَوْمِهِمْ إِنَّا بُرَآءُ مِنْكُمْ وَمِمَّا تَعْبُدُونَ مِنْ دُونِ
اللَّهِ كَفَرْنَا بِكُمْ وَبَدَا بَيْنَنَا وَبَيْنَكُمُ الْعَدَاوَةُ
وَالْبَغْضَاءُ أَبَداً حَتَّى تُؤْمِنُوا بِاللَّهِ وَحْدَهُ﴾ [الممتحنة60:4
मुसलमानो!) तुम्हारे लिए इब्राहीम (अलैहिस्सलाम) और उनके
साथियों में बहुत अच्छा आदर्श (नमूना) है, जबकि उन सब ने अपनी क़ौम से साफ शब्दों में कह दिया कि हम
तुम से और जिन-जिन कि तुम अल्लाह के सिवाय पूजा करते हो, उन सबसे पूरी तरह
से विमुख (बरी) हैं। हम तुम्हारे (अक़ीदे का) इंकार करते हैं," और जबक तुम
अल्लाह के एक होने पर ईमान न लाओ हमारे और तुम्हारे बीच हमेशा के लिए बैर और द्वेष
"हमेशा बना रहेगा "(
सूरतुल मुमतहिना -60:4
3-अल्लाह का हुक्म
तथा अल्लाह तआला ने
हुक्म दिया है
﴿
لا تَجِدُ قَوْماً يُؤْمِنُونَ بِاللَّهِ وَالْيَوْمِ الآخِرِ يُوَادُّونَ مَنْ
حَادَّ اللَّهَ وَرَسُولَهُ وَلَوْ كَانُوا آبَاءَهُمْ أَوْ أَبْنَاءَهُمْ أَوْ
إِخْوَانَهُمْ أَوْ عَشِيرَتَهُمْ أُولَئِكَ كَتَبَ فِي قُلُوبِهِمُ الأِيمَانَ
وَأَيَّدَهُمْ بِرُوحٍ مِنْهُ ﴾ [المجادلة58:22]
“आप अल्लाह और
आखिरत के दिन पर ईमान रखने वालों को ऐसा नहीं पाएंगे कि वह अल्लाह और उसके पैग़ंबर
से दुश्मनी रखने वालों से दोस्ती रखते हों, चाहे वे उनके बाप, या उनके बेटे, या उनके भाई, या कुंबे - क़बीले वाले ही क्यों न हों, यही लोग हैं
जिनके दिलों में अल्लाह तआला ने ईमान को लिख दिया है और जिनका पक्ष अपनी रूह से
किया है।
सूरतुल मुजादिला-58:22
इस आधार पर मुसलमान के लिए जाइज़ नहीं है कि उसके दिल में
अल्लाह के दुश्मनों के लिए स्नेह और प्यार पैदा हो जो वास्तव में ही दुश्मन हैं,
4-अल्लाह का फरमान
अल्लाह तआला ने फरमाया
"
﴿
يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا لا تَتَّخِذُوا عَدُوِّي وَعَدُوَّكُمْ
أَوْلِيَاءَ تُلْقُونَ إِلَيْهِمْ بِالْمَوَدَّةِ وَقَدْ كَفَرُوا بِمَا جَاءَكُمْ
مِنَ الْحَقِّ يُخْرِجُونَ الرَّسُولَ
وَإِيَّاكُمْ أَنْ تُؤْمِنُوا بِاللَّهِ رَبِّكُمْ ﴾ [الممتحنة : 1]
“ऐ ईमान वालो !
मेरे और अपने दुश्मनों को अपना दोस्त न बनाओ, तुम तो दोस्ती से उनकी ओर संदेश भेजते हो और वे उस सच को जो
तुम्हारे पास आ चुका है इंकार करते हैं, वे पैगंबर को और स्वयं तुम को भी केवल इस वजह से निकालते
हैं कि तुम अपने रब अल्लाह पर ईमान रखते हो।”
सूरतुल मुमतहिना -60:1
लेकिन जहाँ तक उसका काफिरों के साथ मेल मिलाप रखने का मामला
है, तो काफिरों के
साथ मेल मिलाप रखने से निषेद्ध का कारण केवल कुफ्र में पड़ने का भय है, बल्कि इस
प्रावधान के सबसे स्पष्ट कारणों में से : उनका अल्लाह, उसके पैगंबर और
मोमिनों से दुश्मनी रखना है, अल्लाह तआला ने इस कारण की ओर अपने इस कथन के द्वारा संकेत
किया है :
तो एक मुसलमान को यह कैसे शोभा देता है कि वह अल्लाह और
उसके रसूल के दुश्मन के साथ रहे और उससे दोस्ती रखे !
5-पाठकों से सवाल
हमें पूरा विश्वास है कि इस फतवे दिए गए अल्लाह के आदेशों
से मुसलमानों के विचार और नीयत के बारे में सबको सही जानकारी मिल गयी होगी . और उन
सेकुलरों की हिन्दू मुस्लिम भाईचारे करने की खुजली मिट गयी होगी .हम भी दोस्ती और
मित्रता के समर्थक हैं . लेकिन जब खुद अल्लाह ही मुसलमानों को गैर मुस्लिमों से
नफ़रत करने का आदेश दे रहा है , तो भाड़ में जाए ऐसी दोस्ती , हम भले शैतान से दोस्ती कर लेंगे ,परन्तु कभी
मुसलमान से न तो दोस्ती करेंगे और न उनकी बातों पर विश्वास करेंगे .
बताइए क्या आप फिर भी हिन्दू मुस्लिम भाईचारे की वकालत
करेंगे ?
http://islamqa.com/en/ref/5
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