कांग्रेस हिन्दुओं को इस देश से खत्म करवाना चाहती है, हिन्दू महिलाओं का बलात्कार मुसलमान करके मजे से फिर दूसरे शिकार की तलाश करें, यही सोनिया जी की मंशा है, मित्रों इसे ज्यादा से ज्यादा शेयर कर एक आंदोलन का रूप दें:
एस. शंकर
प्रस्तुति: डॉ0 संतोष राय
दो साल पहले ठंडे बस्ते में गया 'सांप्रदायिक और लक्षित हिंसा निरोधक विधेयक' कानून में बदलने के लिए पुन: संसद में रखा जाने वाला है। शासकीय जिम्मेदारी उठाए वरिष्ठ कांग्रेस नेता ने इसकी जरूरत 'अल्पसंख्यकों' के हित में बताई है। उनकी बात में स्पष्ट ध्वनि है मानो सांप्रदायिक हिंसा के शिकार केवल अल्पसंख्यक यानी मुसलमान रहे हैं। यही दर्शन उस विधेयक में भी है। सांप्रदायिक हिंसा रोकने के नाम पर यह ऐसे कानून का प्रस्ताव है जो किसी सांप्रदायिक हिंसा के लिए सदैव 'बहुसंख्यकों' या हिंदुओं को दोषी मानकर चलेगा। यह कानून बन जाने पर किसी अज्ञात व्यक्ति की शिकायत पर भी कोई हिंदू गिरफ्तार किया जा सकेगा, यदि शिकायत सांप्रदायिक विद्वेष फैलाने की हो। मगर ऐसी शिकायत किसी 'अल्पसंख्यक' के विरुद्ध लागू नहीं होगी। अत: आरंभ से ही किसी हिंदू को ही दोषी मानकर चला जाएगा। उसकी कोई टीका-टिप्पणी भी सांप्रदायिक हिंसा उकसाने जैसी बात मानी जाएगी, जो दंडनीय होगा। इस प्रकार प्रस्तावित कानून स्थायी रूप से हिंदुओं के मुंह पर सदा के लिए ताला लगा देगा।
इस विधेयक के अनुसार देश भर में सांप्रदायिकता पर निगरानी करने वाला एक सर्वोच्च प्राधिकरण होगा। यह प्राधिकरण सांप्रदायिक हिंसा रोकने में विफलता आदि के लिए राज्य सरकारों तक को बर्खास्त कर सकेगा। इस प्राधिकरण में 'अल्पसंख्यक' अधिक संख्या में रखे जाएंगे, क्योंकि विधेयक की स्थायी मान्यता है कि हर हाल में, कहीं भी, कभी भी सांप्रदायिक हिंसा निरपवाद रूप से बहुसंख्यक ही करेंगे। अत: किसी सांप्रदायिक मामले की जांच तथा निर्णय करने वाली इस अथॉरिटी में गैर-हिंदू ही निर्णायक संख्या में होने चाहिए। इसमें यह कल्पना है कि हिंदू तो हिंदू दंगाई के लिए पक्षपात करेगा, किंतु गैर-हिंदू पक्षपात नहीं कर सकता।
नि:संदेह स्वतंत्र भारत में सामुदायिक भेदभाव के आधार पर बनने वाला यह सबसे विचित्र कानून होगा। न्याय, सच्चाई और संविधान के साथ ऐसा भयंकर मजाक कौन लोग कर रहे हैं? क्या उन्हें भारत में सांप्रदायिक दंगों और हिंसा का इतिहास पता भी है? राष्ट्रीय एकता परिषद में प्रस्तुत गृह मंत्रालय की एक रिपोर्ट के अनुसार देश में सन 1968 से 1970 के बीच हुए 24 दंगों में 23 दंगे मुस्लिमों द्वारा आरंभ किए गए थे। उसके बाद से आज तक हुई सांप्रदायिक हिंसा की भी लगभग वही तस्वीर है। गोधरा से लेकर मऊ और उदालगिरि से लेकर मराड तक ऐसी हिंसा क्या बहुसंख्यक समुदाय ने आरंभ की? और पीछे चलें, तो अलीगढ़ दंगे , जमशेदपुर (1979), मुरादाबाद (1980), मेरठ (1982), भागलपुर (1989), बंबई (1992-93) भी किसने शुरू किए थे? यह बुनियादी सच्चाई न केवल हर कहीं स्थानीय जनता जानती है, बल्कि जांच आयोगों की रिपोर्टो में भी दर्ज है। जस्टिस जितेंद्र नारायण आयोग (जमशेदपुर दंगा), जस्टिस आरएन प्रसाद आयोग (भागलपुर दंगा) की रिपोर्टो में क्या पाया गया था?
कड़वी सच्चाई यह है कि हर बार यहां बहुसंख्यक समाज को सांप्रदायिक हिंसा का भयानक दंश झेलना पड़ता है। यही स्वतंत्रता-पूर्व भी होता था। तुर्की में खलीफत खत्म होने (1921) पर यहां मोपला तथा अनगिनत स्थानों पर हिंदुओं को मारा गया। वह सब बार-बार देखकर महात्मा गांधी जैसे व्यक्ति को भी कहना पड़ा कि एक वर्ग स्वभाव से ही आक्रामक होता है। सांप्रदायिक हिंसा के संबंध में यह समकालीन सच्चाई गांधी ही नहीं, बंकिमचंद्र, श्रीअरविंद, एनी बेसेंट, रवींद्रनाथ टैगोर, बाबा साहेब अंबेडकर जैसे अनेकानेक मनीषी नोट कर चुके हैं। यदि सांप्रदायिक हिंसा को रोकने की सच्ची चिंता हो तब पहले देश में हुए प्रत्येक दंगे और हिंसा की पूरी जानकारी जनता के सामने रखी जाए। यह गिना जाए कि एक-एक दंगे की शुरुआत कैसे हुई, किसने की। तब स्वत: तय हो जाएगा कि समुदाय के आधार पर आगामी हिंसा से सुरक्षा किसको चाहिए? सच यह है कि कथित बहुसंख्यक होते हुए भी हिंदुओं का ही पीड़ित, शासित होना एक स्थायी स्थिति है। गांधीजी ने उसी को अपनी तरह से कहा था। ब्रिटिश शासन में भी कथित अल्पसंख्यक ही भारत के बहुसंख्यकों के उत्पीड़क थे। स्वतंत्रता पूर्व भारत में सांप्रदायिक दंगों का पूरा इतिहास इसकी अकाट्य गवाही है। डॉ. अंबेडकर ने अपनी पुस्तक 'पाकिस्तान ऑर पार्टीशन ऑफ इंडिया' में अनगिनत दंगों का विस्तृत उल्लेख किया है। इसके अध्याय 7 से 12 तक पढ़कर स्वत: स्पष्ट हो जाएगा कि भारत में समुदाय के आधार पर कौन उत्पीड़क और कौन उत्पीड़ित रहा है।
स्वतंत्रता-पूर्व भारत के दंगे खुले तौर पर एकतरफा होते थे, जिनका मतलब ही था बहुसंख्यकों का संहार। यहां तक कि जिन्ना ने इस तथ्य का उपयोग भारत-विभाजन की मांग मनवाने के लिए भी किया था कि यदि पाकिस्तान की मांग न मानी गई तो मुस्लिम लीग के 'डायरेक्ट एक्शन' (कलकत्ता, 1946) जैसा सामूहिक संहार और किया जाएगा। जिन्ना के अपने शब्दों में, अब हिंदुओं का भी हित इसी में है कि वे पाकिस्तान की मांग स्वीकार कर लें, चाहे तो केवल हिंदुओं को कत्लेआम और विनाश से बचाने के लिए ही। क्या ऐसे अहंकारी बयान स्वयं नहीं बताते कि सामुदायिक बल पर हिंसा कौन करता और कौन झेलता है? जवाहरलाल नेहरू ने भी मुस्लिम लीग की पहचान यही बताई थी कि वह 'सड़कों पर हिंदू-विरोधी हिंसा करने के सिवा और कुछ नहीं करती'। विभाजन से पहले भारत में सांप्रदायिक दंगों के पीड़ित समुदाय का एक ही अर्थ था-बेचारे हिंदू! मगर विभाजन के बाद के भारत में भी स्थिति मूलत: नहीं बदली। कश्मीर से पूर्णत: और असम, केरल के कई इलाकों से अंशत: केवल हिंदू ही मार भगाए गए। अभी भारत में असंख्य ऐसे इलाके और बस्तियां हैं जहां पुलिस तक जाने से डरती है। इनमें कोई हिंदू बस्ती नहीं।
जिस अल्पसंख्यक वर्ग में देश का विभाजन करा देने और उसके बाद भी हिंसा के बल पर भारत के इलाके दर इलाके खाली कराने की सामर्थ्य हो वह कतई पीड़ित, विवश या भयाकुल नहीं माना जा सकता। वास्तव में दिनों-दिन अल्पसंख्यक ताकत का दबाव भारतीय सामाजिक, राजनीतिक, कानूनी, शैक्षिक आदि क्षेत्रों में बढ़ता जा रहा है। प्रस्तावित कानून भी इसी का संकेत है। अधिकांश नेता, नीति-निर्माता यह जानते हैं, किंतु बोलते उल्टा हैं। यह विचित्र दुरभिसंधि एक खतरनाक संकेत है।
[एस. शंकर: लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं]
http://hindi.yahoo.com/mockery-justice-003359356.html
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