Thursday, February 17, 2011

क्या गैर-मुस्लिम पर इस्लाम स्वीकार करना अनिवार्य है ?


Dr. Santosh Rai
सऊदी अरब.रियाज़
इस्लामी आमन्त्रण एंव निर्देश कार्यालय
रब्वा
1430.2009

क्या गैर-मुस्लिम पर इस्लाम
स्वीकार करना अनिवार्य है ?
, हिन्दी ख्

शैख़ मुहम्मद बिन सालेह अल-उसैमीन रहिमहुल्लाह
अनुवादः अताउर्रहमान ज़ियाउल्लाह
।सस पेसंउीवनेमण्बवउ तपहीजे ंतम वचमद

बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम
मैं अति मेहरबान और दयालु अल्लाह के नाम से आरम्भ करता हूँ।
हर प्रकार की प्र्रशंसा सर्व जगत के पालनहार अल्लाह तआला के लिए योग्य है, तथा अल्लाह की कृपा एंव शांति अवतरित हो अन्तिम संदेष्टा मुहम्मद पर, तथा आप के साथियों, आप की संतान और आप के मानने वालों पर।

क्या काफिर ((गैर-मुस्लिम) पर इस्लाम स्वीकार करना अनिवार्य है ?

इसके विषय में सऊदी अरब के एक महा विद्वान मुहम्मद बिन सालेह बिन उसैमीन रहिमहुल्लाह से पूछा गया यह एक प्रश्न हैं जो पाठकों की सेवा में प्रस्तुत किया जा रहा है, आशा है कि यह फत्वा उपर्युक्त मस्अले की पर्याप्त जानकारी प्राप्त करने में लाभदायक सिद्ध होगा।((अ.र.)
प्रश्न:
क्या काफिर (गैर-मुस्लिम) पर इस्लाम स्वीकार करना अनिवार्य है ?


उत्तर:
हर काफिर पर, चाहे वह ईसाई या यहूदी ही क्यों न हो, इस्लाम धर्म को स्वीकारना अनिवार्य है, क्योंकि अल्लाह तआला अपनी किताब में फरमाता है:
قُلْ يَا أَيُّهَا النَّاسُ إِنِّي رَسُولُ اللَّهِ إِلَيْكُمْ جَمِيعًا الَّذِي لَهُ مُلْكُ السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضِ لَا إِلَهَ إِلَّا هُوَ يُحْيِي وَيُمِيتُ فَآَمِنُوا بِاللَّهِ وَرَسُولِهِ النَّبِيِّ الْأُمِّيِّ الَّذِي يُؤْمِنُ بِاللَّهِ وَكَلِمَاتِهِ وَاتَّبِعُوهُ لَعَلَّكُمْ تَهْتَدُونَ ;سورة الأعرافरू158द्ध
‘‘(ऐ मुहम्मद ! ) आप कह दीजिए कि ऐ लोगो! मैं तुम सभी की ओर उस अल्लाह का भेजा हुआ (पैग़म्बर) हूँ, जो आसमानों और ज़मीन का बादशाह है, उसके अतिरिक्त कोई (सच्च) पूज्य नहीं, वही मारता और जिलाता है। इसलिए तुम अल्लाह पर और उसके रसूल, उम्मी (अनपढ़) पैग़म्बर पर ईमान लाओ, जो स्वयं भी अल्लाह पर और उसके कलाम पर ईमान रखते हैं, और उनकी पैरवी करो ताकि तुम्हें (सच्चे और सफलता के रास्ते का) मार्गदर्शन प्राप्त हो।’’ (सूरतुल आराफ: 158)


अतः तमाम लोगों पर अनिवार्य है कि वे अल्लाह के पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पर ईमान लायें, किन्तु इस्लाम धर्म ने अल्लाह तआला की दया और हिकमत से गैर-मुस्लिमों के लिए इस बात को भी जाईज़ ठहराया है कि वो अपने धर्म पर बाक़ी रहें, इस शर्त के साथ कि वो मुसलमानों के आदेशों (नियमों) के अधीन रहें, अल्लाह तआला का फरमान है:
قَاتِلُوا الَّذِينَ لَا يُؤْمِنُونَ بِاللَّهِ وَلَا بِالْيَوْمِ الْآَخِرِ وَلَا يُحَرِّمُونَ مَا حَرَّمَ اللَّهُ وَرَسُولُهُ وَلَا يَدِينُونَ دِينَ الْحَقِّ مِنَ الَّذِينَ أُوتُوا الْكِتَابَ حَتَّى يُعْطُوا الْجِزْيَةَ عَنْ يَدٍ وَهُمْ صَاغِرُونَ ;سورة التوبةरू29द्ध
‘‘जो लोग अहले किताब (अर्थात यहूदा और ईसाई) में से अल्लाह पर ईमान नहीं लाते और न आखिरत के दिन पर (विश्वास रखते हैं ) और न उन चीज़ों को हराम समझते हैं जो अल्लाह और उसके पैग़म्बर ने हराम घोषित किए हैं, और न दीने-हक़ (सत्य-धर्म ) को स्वीकारते हैं, उन से जंग करो यहाँ तक कि वह अपमानित हो कर अपने हाथ से जिज़्या (टैक्स) दें।’’ (सूरतुत्तौबा:29)

सहीह मुस्लिम में बुरैदा रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित हदीस में है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम जब किसी लश्कर (फौज) या सरिय्या (फौजी दस्ता जिस में आप स्वयं शरीक न रहे हों ) का अमीर नियुक्त करते तो आप उसे अल्लाह तआला से डरने और अपने सहयात्री मुसलमानों के साथ भलाई और शुभचिंता का आदेश देते और फरमाते:
‘‘उन्हें तीन बातों की ओर बुलाओ (विकल्प दो), वह उन में से जिसको भी स्वीकार कर लें, तुम उनकी ओर से उसको क़बूल कर लो और उन से (जंग करने से ) रूक जाओ।’’ (सहीह मुस्लिम हदीस नं.ः1731)

इन तीन बातों में से एक यह है कि वह जिज़्या दें।

इसलिए उलमा (बुद्धिजीवियों ) के कथनों में से उचित कथन के अनुसार यहूदियों एंव ईसाईयों के अतिरिक्त अन्य काफिरों (गैर-मुस्लिमों) से भी जिज़्या स्वीकार किया जायेगा।
सारांश यह कि ग़ैर-मुस्लिमों के लिए अनिवार्य है कि वो या तो इस्लाम में प्रवेश करें या इस्लामी अहकाम (शासन) के अधीन हो जायें। और अल्लाह ही तौफीक़ देने वाला है ।
المملكة العربية السعودية दृ الرياض
المكتب التعاوني للدعوة والإرشاد وتوعية الجاليات بالربوة
2009م दृ 1430ه‍

﴿ هل يجب على الكافر أن يعتنق الإسلام؟ ﴾
त्र् باللغة الهندية »

فضيلة الشيخ محمد بن صالح العثيمين رحمه الله

ترجمةरू عطاء الرحمن ضياء الله
حقوق الطبع والنشر لعموم المسلمين
http://www.hindusthangaurav.com/books/hi_Is_it_Oblibatory_for_Non-M...

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