शंकर शरण
प्रस्तुति- डॉ0 संतोष राय
केरल का कैथोलिक चर्च आगामी चौदह नवंबर ऐसे 5,000 दंपतियों को सम्मानित करेगा, जिनके 5 से अधिक बच्चे हैं। ‘परिवार बढ़ाओ’ के नारे के साथ यह अभियान आगे और तेज किया जाएगा। वहाँ कैथोलिक नेता ईसाइयों को अधिक बच्चे पैदा करने के लिए विविध प्रोत्साहन और पुरस्कार दे रहे हैं। वायनाड जिले का सेंट विन्सेन्ट चर्च अपने क्षेत्र के हर कैथोलिक परिवार को पाँचवें बच्चे के जन्म पर 10 हजार रूपए नकद दे रहा है। इदुक्की डायोसीज ने दो से अधिक हर बच्चे पर अधिकाधिक पुरस्कार और सहायता देने की विस्तृत योजना घोषणा की है। जैसे किसी परिवार में चौथे बच्चे के जन्म पर उसके जन्म संबंधी अस्पताल का पूरा खर्च डायोसीज उठायगा। पाँचवें बच्चे के जन्म पर बच्चे के जीवन भर का खर्च उठायगा। ऑल इंडिया क्रिश्चियन काऊंसिल के नेता जॉन दयाल के अनुसार हर ईसाई परिवार में चौथा बच्चा होने पर उसकी शिक्षा के लिए विशेष व्यवस्था की जाएगी। ईसाई संगठनों के अस्पतालों में बड़े परिवार वाले ईसाइयों के लिए आकर्षक चिकित्सा पैकेज दिए जाएंगे, आदि। अधिकाधिक बच्चे पैदा करने का यह ईसाई अभियान वर्ष 2008 से ही चल रहा है।
यह सब इसलिए, क्योंकि केरल में ईसाई संख्या पिछले एक दशक में ¼ प्रतिशत घटी है, जबकि मुस्लिम जनसंख्या दो प्रतिशत बढ़ गई। इस से केरल के कैथोलिक नेता इतने चिंतित हैं कि उन्होंने हिन्दुओं को भी मामले को गंभीरता से लेने के लिए कहा। क्योंकि वहाँ हिन्दू संख्या डेढ़ प्रतिशत प्रति दशक के हिसाब से गिर रही है। जबकि मुस्लिम जनसंख्या पौने दो प्रतिशत के हिसाब से बढ़ रही है। केरल सबसे बड़ी ईसाई आबादी वाले राज्यों में एक है। वहाँ लगभग 20 % ईसाई हैं। वे सुशिक्षित भी हैं। इसलिए उन की चिंता और चेतावनी को गंभीरता से लेना चाहिए। आज के विश्व में जनसांख्यिकी भी एक युद्ध है, जिसकी उपेक्षा करना आत्मघाती होगा। विशेषकर हिन्दुओं के लिए, जिनका दुनिया में मुख्यतः एक ही देश है।
किन्तु दुःख की बात है कि जब इस पर कोई हिंदू चिंता दिखाता है तो उसे ‘पिछड़ा’, ‘दकियानूसी’, ‘जनसंख्या विस्फोट से नासमझ’ या ‘घृणा का प्रचारक’ आदि बताकर हँसी उड़ाई जाती है। भारतीय जनसांख्यिकी की स्थिति पर ए.पी. जोशी, एम.डी. श्रीनिवास तथा जे. के. बजाज ने अपने विस्तृत अध्ययन ‘रिलीजियस डेमोग्राफी ऑफ इंडिया’ (2003) से पाया है कि भारत के हर प्रदेश में मुस्लिम जनसंख्या दूसरे किसी भी समुदाय की तुलना में अधिक गति से बढ़ी है। सन् 1993 में भारत में मुस्लिम जनसंख्या 11 प्रतिशत थी, जो केवल पंद्रह वर्षों में बढ़कर 14 प्रतिशत हो गई। पड़ोसी पाकिस्तान और बंगलादेश में जन्म-दर और भी तीव्र है, जिससे भारतवर्ष के संपूर्ण भूखंड में अनुमान से भी कम समय में मुस्लिम जनसंख्या हिन्दुओं के बराबर हो जाएगी। दो फ्रांसीसी विद्वानों यूसुफ कोरबेज तथा इमानुएल टॉड ने अपनी पुस्तक ‘ल रौंदेवू दे सिविलेजेशों’ (सभ्यताओं का मिलन) (2007) में भी ऐसा ही हिसाब दिया है। इस पर चिंता करने के बजाए हिंदू परिवारों में जन्मे सेक्यूलर-वामपंथी-उदारवादी पूरी बात को हँसी में उड़ाने की कोशिश करते हैं। क्या सुशिक्षित हिंदुओं में अपने समुदाय की सामूहिक आत्महत्या भावना का मनोरोग – डेथ-विश – फैल गया है? नहीं तो केरल के सुशिक्षित ईसाई समुदाय की चेतावनी पर वह ध्यान क्यों नहीं दे रहे?
जिस जनसांख्यिकी विंदु पर दुनिया का सबसे बड़ा आबादी समुदाय – ईसाई – इतना चिंतित है, ठीक उसी विषय पर उस से अधिक संकट झेलने वाले हिंदू समुदाय के बौद्धिक उलटा प्रयास कर रहे हैं! कृपया स्वयं जाँच करें। हमारे जो बौद्धिक और नेता दिन-रात परिवार-नियोजन और आबादी वृद्धि की चिंता करते रहते हैं – क्या उन्होंने ईसाई नेताओं को फटकारा कि वे आबादी वृद्धि को प्रोत्साहन देकर समस्या बढ़ा रहे हैं? क्या उन्होंने कभी मुस्लिमों को जनसंख्या नियंत्रण करने को कहा ? मुस्लिमों में तेज जनसंख्या वृद्धि के लिए कभी उन की आलोचना करना तो दूर रहा!
कोई यह भ्रम न पालें कि भारत में ईसाई और मुस्लिम संख्या में हिंदुओं से कम हैं, इसलिए उन पर जनसंख्या नियंत्रण की बातें लागू नहीं की जातीं। जहाँ ईसाई और मुस्लिम बहुसंख्या या एकछत्र संख्या में हैं, वहाँ भी उन्हें परिवार नियोजन का उपदेश कोई नहीं देता। न भारत के कश्मीर, केरल या नागालैंड में, न यूरोप या अरब में। बस पूरी दुनिया में एक मात्र हिंदू देश भारत के हिंदुओं को दिन-रात पढ़ाया जा रहा है कि आबादी कम करो। जबकि इसी देश में मुस्लिम और ईसाई आबादी का प्रतिशत निरंतर बढ़ रहा है। यह शिक्षित हिंदुओं की मूर्खता या डेथ-विश नहीं तो और क्या है?
मामला मात्र केरलीय ईसाइयों का नहीं। वेटिकन में बैठे पोप और उन के प्रवक्ता भी ईसाई आबादी बढ़ाने के खुले आवाहन कर रहे हैं। जबकि यूरोप में ईसाई वर्चस्व ही है। यही भावना यूरोपीय सरकारों में भी है। क्योंकि मामला वस्तुतः बहुत गंभीर है। दुनिया में अतिआबादी से अधिक बड़ी समस्या जनसांख्यिकी युद्ध है। कई मुस्लिम नीतिकार ईसाई आबादी को पीछे छोड़ने की सचेत रणनीति पर चल रहे हैं। कैथोलिक इसे अच्छी तरह समझते हुए अपनी विश्व रणनीति बना रहे हैं। इस बीच मूढ़ हिंदू क्या कर रहे हैं?
आज संपूर्ण ईसाई यूरोप अपने यहाँ इस्लामी देशों से बढ़ते आव्रजन और उस से संबंधित खतरों से मुकाबला करने की चुनौती झेल रहा है। यूरोपीय देशों में जन्म-दर प्रति दंपति 1.1 से 1.7 % के बीच रह गई है। जब कि जनसंख्या यथावत रहने के लिए भी जन्म-दर 2.2 % होना चाहिए। इस बीच अरब और उत्तरी अफ्रीकी देशों से हर वर्ष लाखों मुसलमान यूरोपीय समुद्र तटों पर अवैध रूप से घुसने की कोशिश करते हैं। एक बार सफल हो जाने पर स्थानीय लोकतांत्रिक कानून, मानवाधिकारवादी और इस्लामी कूटनीति के दबाव के सहारे उन्हें किसी न किसी तरह ठौर हो जाता है। यदि यही स्थिति रही तो अगले चालीस-पैंतालीस वर्ष में यूरोप इस्लामी महादेश हो जाएगा। इस खतरे को देख आज ब्रिटेन, जर्मनी, इटली में सरकारें लोगों को अधिक से अधिक बच्चे पैदा करने की खुशामद कर रही है। जब कि आम यूरोपीय इस्लामी आव्रजन को हर कीमत पर रोकने की माँग कर रहे हैं।
यूरोप के मुस्लिमों में प्रजनन दर औसत 3.8 प्रति परिवार है, जबकि सामान्य यूरोपियनों में यह औसत 2.1 प्रति परिवार है। कई अवलोकनकर्ता यूरोप के लिए जिहादी आतंकवादी हमलों से अधिक भयावह इस ‘जनसांख्यिकी टाइम बम’ को मान रहे हैं। इस के द्वारा इस्लामी शक्तियाँ कुछ दशकों में बिना किसी लड़ाई के यूरोप पर कब्जा कर सकती है। यह अनायास नहीं होने वाला। कई इस्लामी प्रतिनिधि सचेत रूप से इस रणनीति का उपयोग कर रहे हैं। वे यह कहने में भी नहीं हिचकिचाते (“हमारी औरतों के गर्भ हमें जीत दिलाएंगे!” – संयुक्त राष्ट्र में अल्जीरिया के राष्ट्रपति हुआरी बोमेदियान)। लीबिया के गद्दाफी ने भी इस रणनीति से यूरोप पर कब्जे की बात की थी। सन् 1975 में लाहौर में इस्लामी देशों की एक बैठक में भी यूरोप में मुस्लिम आव्रजन बढ़ाकर ‘जनसांख्यिकी प्रभुत्व’ बढ़ाने की योजना घोषित की गई थी।
यह सब कोई छिपी योजनाएं नहीं। न भारत इस रणनीति से बाहर है। वास्तव में, भारत तो ईसाई और मुस्लिम दोनों विश्व-समुदायों के रणनीतिकारों की जनसांख्यिकी नीति का एक महत्वपूर्ण निशाना है। हाल में एक भारतीय मुस्लिम नेता ने कहा कि 2020 ई. तक हम यहाँ हिंदुओं के बराबर हो जाएंगे। मुहम्मद समीउल्लाह की ‘मुस्लिम्स इन एलियेन सोसाइटी’ (दिल्ली, 1992) तथा मुह्म्मद इमरान की ‘आइडियल वीमेन इन इस्लाम’ (दिल्ली, 1994) जैसी पुस्तकों से भारत में इस्लाम वर्चस्व की जनसांख्यिकी योजनाओं की झलक पाई जा सकती है। उलेमा परिवार नियोजन के विरुद्ध फतवे देते हैं। यह सुचिंतित रणनीति है। संयोग नहीं कि हमारे मुस्लिम नेता बोस्निया, अफगानिस्तान, ईराक जैसे देशों के लिए बयान जारी करते हैं, जब कि कश्मीर पर मौन रहते हैं। क्योंकि उनके लिए केवल इस्लाम-राष्ट्र का सिद्धांत है, भारत-राष्ट्र का नहीं। अतः कहीं भी इस्लामी आबादी का एक सीमा पार करना हमारे लिए दूसरी, तीसरी कश्मीर समस्या खड़े होने का कारण बनेगा।
इस खतरे के प्रति भारत के उच्च, मध्यवर्गीय हिंदू गाफिल हैं। वे हमारे कर्णधारों की ‘मुस्लिम फर्स्ट’ नीति के उत्स के कारण नहीं समझ रहे। इसके पीछे यहाँ हिंदुओं के घटते और मुसलमानों के बढ़ते प्रतिशत का दबदबा है। पर इन बातों पर शिक्षित, संपन्न, पर धर्म-चेतना से रिक्त हो चुके हिन्दू उच्च-वर्ग की उदासीनता सनक की हद तक है। यह विश्व के जनसांख्यिकी घटनाक्रम और इस्लामी मानसिकता से निरे अनजान हैं। विश्व में हर जगह मुस्लिम दूसरों की तुलना में अधिक तेजी से बढ़ रहे हैं। इस में मुस्लिमों के शिक्षित-अशिक्षित या धनी-गरीब होने से कोई अंतर नहीं देखा गया है। साथ ही, हाल का इतिहास साफ दिखाता है कि किसी देश या क्षेत्र में मुस्लिम जनसंख्या का एक सीमा पार करना और सामाजिक अशांति पैदा होने में सीधा संबंध है। लेबनान, बोस्निया, कोसोवो इस के ज्वलंत उदाहरण हैं। अब चीन के सिक्यांग से भी कई बार वही समाचार आ चुका है।
पर भारत के सेक्यूलरवादी हिंदू शासक और बुद्धिजीवी मानो राष्ट्रीय आत्महत्या पर उतारू हैं। एक बार विभाजन, और जिहादी संहार की विभीषिका झेलकर भी जनसांख्यिकी संकट से आँखे चुराई जा रही है। पिछली जनगणना के आंकड़ों पर खुली चर्चा के बदले उसे छिपाने की कोशिश की गई। कुछ ने तो उल्टे आंकड़ों का ‘हिंदू संगठनों द्वारा दुरूपयोग’ करने पर चिंता की! यही शुतुरमुर्गी भंगिमा पड़ोस से जनसांख्यिकी आक्रमण के बारे में भी अपनाई जाती है। जो बुद्धिजीवी अपने घर में किसी को एक दिन रहने देने तैयार न होंगे, वे देश के सीमा में बंगलादेशी, पाकिस्तानी मुसलमानों की नियमित घुस-पैठ को ‘मानवीय’ दृष्टि से देखने की सलाह देते हैं! उन्हें परवाह नहीं कि यदि यही चलता रहा तो असम, प. बंग, बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, आदि के लिए आगे क्या परिणाम होगा? वही होगा जो पश्चिमी पंजाब के सिखों, हिंदुओं, कश्मीर के पंडितों का हुआ और असम के हिंदुओं का जल्द होने वाला है।
ऐसा नहीं कि हमारे बुद्धिजीवी और नेता इस खतरे को बिलकुल नहीं समझते। वे समझते हैं, इसी लिए ध्यान बँटाने की कोशिश करते हैं! यह वही दुर्भाग्यपूर्ण पराजित मानसिकता है जो शतियों से उत्तर भारत के उच्च-वर्गीय हिंदुओं में पैठ गई है। वे अपनी तात्कालिक सुख-सुविधा और सुरक्षा से बढ़कर देश समाज की चिंता, रक्षा करने के प्रति अनिच्छुक से रहे हैं। आतताइयों, आक्रमणकारियों के साथ किसी न किसी तरह का समझौता करके, सेवा करके शांति खरीदने की नीति अपनाते रहे। नतीजे में स्थाई वैर-भाव से चालित आक्रमणकारियों को पैठने, बढ़ने का अवसर मिलता रहा और धीरे-धीरे भारतवर्ष छीजता, सिकुड़ता रहा। यह प्रक्रिया आज भी चल रही है। देश में अनेक ऐसे नेता हैं जो सत्ता की लालसा में कटिबद्ध इस्लामी रणनीति के हाथों खेल रहे हैं। ऐसे नेता आंभी, जयचंद, मान सिंह आदि का स्मरण कराते हैं। भारत के विरुद्ध देशी-विदेशी इस्लामी रणनीति के प्रति हमारी सरकारों की नीति चुपचाप समय काटने, बहाने गढ़ने के अतिरिक्त कुछ नहीं रही है।
वस्तुतः भारत की बढ़ती जनसंख्या उतनी बड़ी समस्या नहीं। भारत से कम उपजाऊ भू-भाग वाला चीन और सिंगापुर क्षेत्रफल के हिसाब से बहुत अधिक आबादी को अच्छी तरह संभाल रहे हैं। हमारी समस्या कुव्यवस्था, भ्रष्टाचार, विचारहीनता और नेतृत्वहीनता है। वैसे भी, यदि भारत में जनसंख्या-वृद्धि दर घटेगी तो बंगलादेश व पाकिस्तान से जनसांख्यिकी आक्रमण और बढ़ेगा। जब तक यह आक्रमण नहीं रुकता, तब तक यहाँ जनसंख्या-वृद्धि दर में कमी करना अपने घर को घुसपैठियों के लिए खाली करते जाने के समान ही है। अतः अच्छा हो, कि हम केरल के ईसाइयों की सलाह पर ध्यान दें।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।