लॉर्ड मैकाले ने 1830 में अपनी
शिक्षा प्रणाली को भारत में लागू करके अपनी मां के लिए एक पत्र में लिखा था कि
अगले 30 वर्ष में भारत में कोई मूर्ति पूजक नहीं रहेगा। लार्ड मैकाले का आशय
स्पष्ट था कि आने वाले तीस वर्षों में भारत को काले अंग्रेजों के माध्यम से ही परास्त
कर दिया जाएगा। हम अपनी शिक्षा प्रणाली के माध्यम से भारत की प्राचीन संस्कृति को
नष्ट करने में सफल होंगे और सारा भारत प्रभु यीशु की शरण में आ जाएगा। इसी
उद्देश्य को रेवरैण्ड कैनेडी के ये शब्द और भी स्पष्ट कर देते हैं- जब तक
हिंदुस्तान कन्याकुमारी से हिमालय तक ईसाई धर्म को अपना नहीं लेता और जब तक यह
हिंदू और मुस्लिम धर्मों की भत्र्सना नहीं करता, हमारे प्रयास तब
तक अबाध गति से जारी रहने चाहिए। लार्ड मैकाले की उपरोक्त भविष्यवाणी झूठ सिद्घ
हुई। भारत का ईसाईकरण तो नहीं हुआ परंतु मैकाले की समयावधि (30
वर्ष) से पूर्व ही भारत में 1857 की क्रांति की ज्वाला फूट पड़ी। पूरे
देश ने सामूहिक प्रयास के माध्यम से अंग्रेजों को पहली बार चुनौती दी। इसलिए
स्वातंत्र्य वीर सावरकर ने 1857 की क्रांति को भारत का पहला स्वाधीनता
संग्राम कहकर महिमा मंडित किया। अंग्रेजों को और मैकाले के मानस से तैयार काले
अंग्रेजों को भारी धक्का लगा। 1857 की क्रांति की सफलता का परिणाम हमारे
सामने आया कि भारत के ईसाईकरण की प्रक्रिया खण्ड खण्ड हो गयी। मैकाले के उक्त पत्र
के पश्चात जब 1881 में भारत में पहली जनगणना हुई तो ईसाईयों की
जनसंख्या मात्र सवा सत्रह लाख थी। भारत की अंतश्चेतना में छिपे भारतीय धर्म और
संस्कृति के प्रति असीम अनुराग ने लार्ड मैकाले और उसके प्रयासों को गहराई में दफन
कर दिया। इतना ही नहीं 1857 की क्रांति ने भारतीय जनमानस को इस
प्रकार ही भीतर मथ डाला था कि इसके पश्चात के 90 वर्षों में 1947 तक
अंग्रेजों को भारत के लोगों ने और विशेषत: क्रांतिकारी स्वराज्यवादियों ने कभी चैन
से नहीं बैठने दिया। इसलिए ईसाईकरण की प्रक्रिया पर गहरा आघात लग गया।
1857 की
क्रांति की मसाल को अगले दस वर्षों में महर्षि दयानंद के सत्यार्थ प्रकाश ने
स्वराज्य की घुट्टी पिला दी, जिससे वह और भी ऊर्जान्वित होकर भारतीय
युवा शक्ति का मार्गदर्शन करने लगी। जस्टिस महादेव गोविंद रानाडे, श्याम
जी कृष्ण वर्मा, बाल गंगाधर तिलक, देशबंधु
चितरंजनदास, चंद्रशेखर आजाद, रामप्रसाद
बिस्मिल से लेकर सुभाष चंद्र बोस तक यह लंबी कड़ी बनती चली गयी। क्रांति की ज्वाला
को बनाये रखने के लिए महर्षि दयानंद ने आर्य समाज की स्थापना 1875
में की। यदि महर्षि इस संगठन को देशभक्तों का संगठन न बनाना चाहते तो आने वाले समय
में यह संगठन हजारों देशभक्तों का निर्माण कभी नही कर पाता। यह मात्र संयोग नहीं
था कि 1875 में आर्यसमाज की स्थापना होती है तो उसका उद्देश्य क्रांति को सही
दिशा देना था और भारतीयों को राष्ट्रभक्ति का पाठ पढ़ाना था और इसके सात वर्ष
पश्चात ही देश की संस्कृति को बचाने के लिए हिंदूसभा का जन्म (1882) हो
जाता है। यह संगठन प्रारंभ में यद्यपि एक सामाजिक और धार्मिक संगठन ही था लेकिन था
मैकाले की योजना का विरोधी ही। लेकिन हमने इतिहास में पढ़ा है कि कांग्रेस जब 1885
में जन्मी तो उसके जनक एओ ह्यूम थे, जो कि सेवानिवृत्त एक अंग्रेज अधिकारी
थे। उन्होंने कांग्रेस की स्थापना इसलिए की थी कि इसके माध्यम से भारतीयों में आक्रोश
को हल्का किया जा सकता था। इसका उद्देश्य देश की आजादी प्राप्त करना नहीं था जबकि
आर्यसमाज और बाद में हिंदू महासभा भी देश की आजादी के लिए मैदान में आयी थी। वे
क्रांति लाना चाहते थे और अंग्रेज क्रांति की मसाल को बुझाना चाहते थे। इतना मौलिक
अंतर था, आर्य समाज और कांग्रेस नाम के दोनों संगठनों में। इसलिए क्रांतिकारी
आंदोलन से जुड़े सभी संगठन तथा नेता कांग्रेस के जातीय शत्रु थे। उसका संस्कार था
अपने क्रांतिकारी विरोधियों का तीव्र विरोध करना, इसलिए 1885 के
पश्चात कांग्रेस ने ईसा प्रेम के कारण देश के विभाजन तक ईसाईयों की संख्या में
अप्रत्याशित वृद्घि हुई। 1881 के सवा सत्रह लाख ईसाई 1942
में बढ़कर 83 लाख हो गये। पहले पचास साल में सवा सत्रह लाख
थे अगले साठ वर्ष में साढे चार गुणा बढ़ गये। 1971 तक आते आते
इनकी संख्या एक करोड़ 42 लाख को पार कर गयी। आज ये लगभग सवा दो करोड़
हैं। ऐसा क्यों हुआ? पहले पचास वर्ष भारत में कांग्रेस नही थी तो
परिणाम दूसरे थे और जब कांग्रेस आयी तो परिणाम पलट गये। कांग्रेस ने सत्ता संभाली
तो परिणाम तेजी से दौडऩे लगे। क्या समझे? बात साफ हो गयी ना मैकाले के काम को
ह्यूम ने कांग्रेस के माध्यम से कराना आरंभ किया और कांग्रेस ने कहा कि आप
निश्चिंत रहें मेरे आका! आप जो चाहेंगे हम उससे भी आगे बढ़कर करने को तैयार हैं।
परिणाम स्वरूप 1949 में देश में ईसाई मिशनरियों को अपना काम करने
का खुला न्यौता दिया गया।
देश को समझाने के लिए मिशनरियों को एक
प्रतिज्ञा पत्र भरने के लिए दिया जाने लगा जिसकी भाषा इस प्रकार थी-मैं कानूनी रूप
से गठित भारत सरकार का सम्मान करने तथा उसकी आज्ञा का पालन करने का विश्वास दिलाता
हूं और यह भी कि मैं राजनीतिक मामलों में योगदान से सतर्कता पूर्वक अलग रहूंगा।
मेरी इच्छा है और यह उद्देश्य है कि ऐसे मामलों में मेरा प्रयास शांति पूर्ण ढंग
से सरकार के साथ निष्ठापूर्ण सहयोग करना होगा। यह प्रतिज्ञा देश की आंखों में धूल
झोंकने का छदम प्रयास ही था। क्योंकि इस न्यौते की आड़ में विश्वगुरू भारत को
करूणा मैत्री और प्रेम का पाठ पढ़ाने के लिए ईसाई मिशनरीज की संख्या में
अप्रत्याशित वृद्घि हुई। भारत कभी अपने मानवतावादी धर्म के लिए विख्यात था और इसके
उपनिषदों के गूढ़ ज्ञान को देखकर शॉपन हॉवर जैसा दार्शनिक इतना भाव विभोर हो गया
था कि उन्हें सिर पर रखकर नाचने लगा था। लेकिन 1977 के आते आते
यहां अमेरिका की 632 ब्रिटेन की 675, इटली की 391
आयरिश 269 स्पेनिश 253, फ्रांसीसी 233 बेल्जियम 213
कनेडियन 207 ऑस्टे्रलियन 135 अन्य 834
कुल 3732 मिशनरीज कार्य कर रही हैं। भारत को धर्मनिरपेक्षता का पाठ पढ़ाने
वाला पश्चिमी जगत भारत में ईसाई मिशनरीज के माध्यम से सीधे सीधे सांप्रदायिकता का
खेल खेल रहा है। एक अनुमान के अनुसार अब ईसाई मिशनरीज की संख्या 1977 की
अपेक्षा दुगुनी हो गयी है। कांग्रेस को उसका आका मैकाले कब्र से संकेत कर रहा है
कि जो कुछ हो रहा है उसे होने देना चुप रहना बोलना नही।
कांग्रेस कह रही है जो हुकुम दिया जाएगा-मेरे
आका वही बजाया जाएगा। इसलिए न्यू इंग्लैंड के रूप में नागालैंड बसाया गया तो आज
पूरा नागालैंड ईसाईयों का हो गया है। अब वहां नारे लगते हैं-नागालैंड ईसा के लिए।
राम से श्रद्घा हटकर रोम के प्रति जुड़ गयी। इसलिए नया देश बनाने की धमकी पूरे
पूर्वोत्तर की दी जा रही है। इसी को सावरकर ने धर्मान्तरण से मर्मान्तरण और
मर्मान्तरण से राष्ट्रान्तरण की संज्ञा दी थी। इस सच को कांग्रेस आज तक भी नही समझ
सकी है। पूर्वाेत्तर के प्रांतों को ईसाई बहुल बनाकर अब बिहार और बंगाल सहित
छत्तीसगढ़ व झारखंड में भी ईसाई मिशनरीज सक्रिय हो रही हैं। वह निरंतर सफलता की ओर
बढ़ती जा रही हैं और हम सो रहे हैं क्योंकि भारत की सुपर पीएम इस समय एक इटली की
बेटी है। देशी घोड़े पर विदेशी लगाम पड़ी है और सारा देश देख रहा है कि देश में
सरेआम चोरी हो रही है पर सब चुप हैं। इसी चुप्पी के कारण सोनिया की कृपा से मदर टेरेसा
जैसी महिला को भारत रत्न दे दिया गया, जिसके कारण देश ईसाईकरण की प्रक्रिया
बलवती हुई थी और पूर्वोत्तर भारत ईसा की शरण में बैठा दिया गया। मानो देश के
बिखंडन की नींव रखने के लिए मदर टेरेसा को भारत रत्न दिया गया। इससे बड़ा देश का
दुर्भाग्य और क्या होगा? इस दुर्भाग्य के परिपे्रक्ष्य में
देशवासी तनिक विचारें कि कांग्रेस देश के अभिशाप रही है या वरदान……………….?
साभार -राकेश कुमार आर्य.
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