सुरेश चिपलुनकर
जलालुद्दीन खिलजी के शासनकाल में अमीर खुसरो
लिखते हैं, "...जब भी कोई जीवित विद्रोही हिन्दू किसी विजेता
इस्लामी बादशाह के हाथ लगता था, तब उसे हाथी के पैरों तले कुचल दिया
जाता था, यह एक आनंददायी क्षण होता था..." (सन्दर्भ - KS Lal;
Legacy of Muslim Rule in India, p-120]
"...हमारे पाक लड़ाकों ने समूचे देश को तलवारों के
बल पर वैसे ही साफ़ कर दिया था, जैसे जंगल से काँटों को साफ़ कर दिया
जाता है. हमारी तलवारों की गर्मी से हिन्दू भाप बन कर उड़ गए. हिंदुओं के मजबूत
मर्दों को घुटनों के नीचे से काट दिया गया, इस्लाम विजयी
हुआ... बुतपरस्त गायब हो गए..." (संदर्भ - Tarikh-i-Alai: (Eliot
& Dowson. Vol. III)
अमीर खुसरो को सूफी संत(?) माना
जाता है, परन्तु वास्तव में ये तथाकथित संत इस्लामी शासकों के साथ-साथ ही भारत
आए थे. सूफी परम्परा कुछ और नहीं, बल्कि एक तरह की "इस्लामी
मिशनरी" है, अर्थात "ट्रोजन-हार्स वायरस".
हिंदुओं को जितना नुक्सान कट्टर और धर्मान्ध मुल्लों ने नहीं पहुंचाया, उससे
कहीं अधिक अपने बादशाहों और आकाओं के इशारे पर काम करने वाले
"सूफी-संतों"(??) ने पहुँचाया है...
उदाहरण के लिए - "अजमेर के ख्वाजा
मुइनुद्दीन चिश्ती को ९० लाख हिंदुओं को इस्लाम में लाने का गौरव प्राप्त है.
मोइनुद्दीन चिश्ती ने ही मोहम्मद गोरी को भारत लूटने के लिए उकसाया और आमंत्रित
किया था... (सन्दर्भ - उर्दू अखबार "पाक एक्सप्रेस, न्यूयार्क १४ मई
२०१२).
इसे कहते हैं, "इमेज
बिल्डिंग"... यदि कोई लंबे समय तक सत्ता पर काबिज रहे, तो शिक्षा
पद्धति और पाठ्यपुस्तकों पर उसका स्वाभाविक कब्ज़ा हो जाता है, और
इसी के जरिये "ब्रेन-वाश" करके एक तरफ सत्य छिपाया जाता है, और
दूसरी तरफ "इमेज पालिशिंग" भी की जाती है...
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