Thursday, September 6, 2012

महाराष्ट्र में 16 वर्षों में 2158 दंगे दंगों और राजनीति का सच

 मुजफ्फर हुसैन- 

11 अगस्त को मुम्बई महानगर एक बार फिर से हिंसक उपद्रव की चपेट में आ गया है। मुम्बई में धरना, सत्याग्रह, बंद, हड़ताल, जुलूस और रैली न जाने कब हिंसक उपद्रव में बदल जाएं, कह पाना कठिन है। वैसे तो विश्व मानचित्र पर शायद ही कोई देश ऐसा होगा जहां दंगे न हुए हों या न होते हों। हां, इन दंगों के अलग-अलग रूप होते हैं। कहीं गोरे और काले के बीच संघर्ष होता है तो कहीं मजहब और जातियों के बीच। इतिहास बताता है कि इन संघर्षों के कारणों से ही दो देशों के बीच युद्ध भी शुरू हो जाते हैं और देखते ही देखते युद्ध महायुद्ध में बदल जाते हैं।
हालांकि महाराष्ट्र अपनी सहनशीलता और परिपक्वता के लिए सम्पूर्ण भारत में जाना जाता है, लेकिन 1993 के बाद से मुम्बई का चरित्र बदल गया है। अब यहां इतने कारण विद्यमान हैं कि किसी भी क्षण हिंसक संघर्ष भड़क सकता है। औद्योगिक नगरी होने के कारण कभी यहां मालिक और मजदूर में संघर्ष हुआ करता था, लेकिन बढ़ती आबादी में अब इस प्रकार के संघर्षों ने साम्प्रदायिकता का रूप धारण कर लिया है। सब जानते हैं कि जब मुम्बई में 'तस्करी का युग' प्रारम्भ हुआ तो उसने 'भाईगिरी' को जन्म दिया। उनके बीच वर्चस्व को लेकर हिंसा जब टोलियों में विभाजित हुई तो उसने जाति और मजहब का रूप ले लिया। मुम्बई में 'डान' शब्द का प्रयोग होने लगा। इनकी सहभागिता जब मजहब आधारित दंगों में बदली तो राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर आतंकवाद में परिणित हो गई। पिछले दिनों असम में हुई हिंसा को लेकर एक विशेष वर्ग के कुछ संगठनों ने जब आजाद मैदान में धरना दिया तो उसकी समाप्ति के समय उसे क्रूर हिंसा में बदल दिया। पुलिस और मीडिया के साथ जो कुछ घटा उसने मुम्बईकर को सोचने पर मजबूर कर दिया कि क्या इस अन्तरराष्ट्रीय ख्याति के नगर में यही सब कुछ चलता रहेगा? ऐसी हिंसा कभी बंद होगी या नहीं? अल्पसंख्यक समाज का एक विशेष वर्ग इस हिंसा को ही अपना हथियार बनाएगा तो फिर बहुसंख्यक समाज इसे कब तक सहन करता रहेगा?
आतंकवादियों की जड़
मुम्बई के साथ-साथ यह रोग सम्पूर्ण महाराष्ट्र में फैल गया है। भिवंडी, जलगांव और मुम्बई में दंगों की जो श्रृंखला प्रारंभ हुई थी, उसे अब तक यह प्रदेश भूला नहीं है। मालेगांव इस हिंसा का एक स्थायी अड्डा बन गया है। विदर्भ के नगर मलकापुर में इसी प्रकार बार-बार दंगे होने के कारण प्रशासन को 18 दिन तक कर्फ्यू लगाना पड़ा था। विदर्भ और मराठवाडा में होने वाले दंगे आज भी रजाकारों की याद ताजा करा देते हैं। इन दंगों के संबंध में आयोग भी बैठाए गए और उनकी रपट भी आई, लेकिन परिणाम क्या हुआ, यह सारा देश जानता है। साम्प्रदायिक दंगों के मामले में अब महाराष्ट्र सिरमौर बन गया है। लेकिन ऐसा लगता है कि सरकार ने इस संबंध में अब तक कोई सबक नहीं सीखा है। यदि सरकार सतर्क रहती तो मुम्बई में 26/11 जैसी घटना ही क्यों घटती? पिछले दिनों महाराष्ट्र के ही बीड़ जिले से जिन आतंकवादियों के नाम सामने आए हैं उसने सम्पूर्ण देश को चौंका दिया है। अबू जिंदाल ने जो कुछ उगला है उससे तो लगता है कि महाराष्ट्र के बीड़ जिले में बड़ी संख्या में आतंकवादियों का जमघट है। भारत सरकार इस मामले में सक्रिय है लेकिन महाराष्ट्र की धरती पर इस प्रकार के कितने शैतान भरे पड़े हैं, इसकी जानकारी देने वाला कोई नहीं है। आतंकवाद की जड़ों में खाद-पानी देने का काम साम्प्रदायिकता करती है। साम्प्रदायिकता की पहली कड़ी अलगाववाद है। यहीं से राष्ट्रीय एकता भंग होती है जो आगे चलकर आतंकवादी हमलों में बदल जाती है।
सामान्य अनुभव यह है कि ज्यों-ज्यों लोग दंगे की विभीषिका को भूलने लगते हैं त्यों-त्यों साम्प्रदायिक दंगों पर धूल पड़ जाती है। सरकार अपने काम काज में लग जाती है और दंगाई दूसरे दंगे की तैयारियों में व्यस्त हो जाते हैं। व्यक्तिगत रूप से कुछ लोग दंडित कर दिये जाते हैं लेकिन समाज में जहां इन दंगाइयों की जड़ें हैं, और जहां-जहां से इन्हें खाद-पानी मिलता है, उस पर कभी गाज नहीं गिरती है। न तो सरकार की गुप्तचर एजेंसियां उनकी नकेल कसती हैं और न ही उस क्षेत्र के लोग सचेत होते हैं, जो भली प्रकार लोग जानते हैं कि उक्त दंगा करने और कराने वाले कौन थे?
दंगों का इतिहास
सामान्यत: दंगाइयों का संबंध अपराध जगत के लोगों से होता है। यह वर्ग देश-विदेश से हथियार एकत्रित करता है। नशीले पदार्थों की तस्करी करता है। जाली नोट छापता है और किराये के अपराधियों को लाकर उत्पात मचाने के लिये मोर्चा संभाल लेता है। इस मामले में महाराष्ट्र ने उत्तर प्रदेश, आंध्र, बिहार और बंगाल को भी मात दे दी है। इसलिए आवश्यकता यह है कि सम्पूर्ण देश के दंगों की संख्या और स्थिति बतलानी चाहिए।
सन् 2012 को समाप्त होने में अभी चार माह शेष हैं, लेकिन पिछले आठ माह में देश में आठ बड़े दंग हो चुके हैं। आज भी शायद ही कोई सप्ताह जाता हो जब दंगों की चर्चा न होती हो। इस चर्चा का कारण दंगे न हों, इस पर विचार करना नहीं है, बल्कि दंगों के बल पर कौन सरकार बनाएगा, इसका गणित लगाया जाता है। राजनीतिक पार्टियां मानवता के आधार पर इसका विश्लेषण नहीं करतीं बल्कि हर दिन इस बात पर हिसाब-किताब करती रहती हैं कि कौन-सी विधानसभा सीट और कौन-सी लोकसभा सीट किस पार्टी को मिलेगी?
एक बात यह भी तय है कि दंगा आयोजित करने वाले इस बात की चिंता नहीं करते हैं कि दंगों में कितने लोग मरते हैं? बल्कि दंगों से उन्हें कितना लाभ और हानि हुई, इसका आकलन किया जाता है। इसलिए दंगे और राजनीति एक-दूसरे के पूरक की तरह सम्पूर्ण देश में
फैल गए हैं।
बेहाल महाराष्ट्र
इस छोटे से आलेख में हम केवल महाराष्ट्र के दंगों के संबंध में ही बात करेंगे। सूचना के अधिकार (आरटीआई) से मिली जानकारी अत्यंत विश्वसनीय मानी जाती है, इसलिए सरकारी आधार पर एकत्रित की गई जानकारी प्रदान करना अधिक प्रासंगिक होगा। महाराष्ट्र सरकार के गृह मंत्रालय से सूचना के अधिकार (आरटीआई) द्वारा प्राप्त जानकारी की सूची बनाएं तो 1995 से 2011 के बीच, यानी 16 वर्षों में प्रदेश में 2158 दंगों की हिला देने वाली भयानक तस्वीर आंखों के सामने नाचने लगती है। यह क्रूर तस्वीर महाराष्ट्र के भीतर किन जिलों और किन नगरों में खून की होली खेली गई, उसे स्पष्ट करती है। इन दंगों में कुल 99 लोगों की जानें गई हैं। इसमें किसी सुरक्षा बल में तैनात पुलिसकर्मी अथवा पुलिस अधिकारी की गणना नहीं है। घायल होने वालों की संख्या 4,356 बताई गई है। घायल होने वालों में 1465 बहुसंख्यक वर्ग के और 1213 अल्पसंख्यक वर्ग के और 1631 पुलिसकर्मी बताए गए हैं। जानकारी बताती है कि इन दंगों के दौरान आर्थिक रूप से महाराष्ट्र सरकार को दो करोड़ दो लाख 68 हजार 845 रुपए का जबकि देश को 85 करोड़ 89 लाख 12 हजार 289 रुपए की हानि उठानी पड़ी है। राष्ट्रीय सम्पत्ति कितनी स्वाहा हुई होगी, इसका अनुमान लगाना बहुत कठिन नहीं है।
महाराष्ट्र के बाहर देश की राजधानी दिल्ली में झांके तो आहूजा कमेटी की रपट के अनुसार 1984 से लेकर अब तक 733 दंगे दिल्ली में ही हो चुके हैं। इन दंगों के पश्चात सरकार की और से अब तक 1 अरब 56 करोड़ 36 लाख 57 हजार 409 रुपए का मुआवजा दिया गया है। पैसों का यह हिसाब 'रिलीफ पैकेज' 2006 से 31 मार्च, 12 तक का है। आरटीआई में प्रश्नकर्ता ने इस बात की भी जानकारी मांगी थी कि इन दंगों में कितने अधिकारियों को अपराधी घोषित किया गया है? वे किस पद पर थे? और यदि सेवानिवृत्त हुए हैं तो किस पद से? लेकिन इन प्रश्नों की कोई जानकारी प्रदान नहीं की गई हैं।
कैसे रुकें दंगे
भारत में साम्प्रदायिक दंगा होना और उसमें लोगों का मरना तथा घायल होना कोई नई बात नहीं है। गृह मंत्रालय से प्राप्त जानकारी यह बताती है कि 1984 से लेकर मई, 2012 तक देश में कुल 26 हजार 817 दंगे हुए हैं। जनमें कुल 12 हजार 902 लोगों ने अपनी जानें गंवाई हैं। इससे एक बात तो स्पष्ट हो जाती है कि दंगे सबसे अधिक कांग्रेस सरकार में ही हुए हैं इसी पार्टी ने केन्द्र और राज्यों में आजादी के पश्चात लम्बे समय तक हुकूमत की है, इसलिए कांग्रेस साम्प्रदायिकता के आरोप से मुक्त नहीं हो सकती।
साम्प्रदायिकता को किस प्रकार रोका जाए, जब इस पर विचार किया जाता है तब एक कारगर उपाय यह सामने आता है कि जिस क्षेत्र में दंगा हुआ है उस स्थान पर सामूहिक दंड की योजना क्रियान्वित की जानी चाहिए, ताकि जनता को इस बात का अहसास हो कि उक्त कृत्य उनके लिए कितना महंगा साबित हुआ है। देश का बंटवारा इसके लिए हर तरह से उत्तरदायी है। लेकिन जो लोग आज भी विभाजन चाहते हैं, उनके लिए सरकार क्या करे, इस पर विचार करने का समय आ गया है। दंगा कराने में अवैध नागरिकों और घुसपैठियों की सबसे महत्व भूमिका होती है। इसलिए जब तक नागरिकता के लिए एक 'नेशनल रजिस्टर' नहीं बनता है, इन तत्वों का सफाया नहीं होगा। हाल ही में असम में हुए दंगों से सरकार कुछ सीखे तो हम नागरिकों पर उसकी बड़ी कृपा होगी।




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