Monday, February 27, 2012

महान क्रांतिकारी वीर सावरकर

अनुपम त्रिपाठी  प्रस्‍तुति: डॉ0 संतोष राय
महान क्रांतिकारी वीर सावरकर के चित्र को संसद की लाबी में लगाने का, नकली देश भक्तों ने उन्हें देश द्रोही कहकर विरोध किया गया. इस लेख को पढ़कर पता चलता हैं कि- वीर सावरकर कितने महान थे और उनका विरोद्ध करने वाले कितने दोगले हैं. भारत माँ के वीर सिपाही को देश द्रोही बताने वाले, वास्तव में खुद ही देशद्रोही हैं.
१८५७ के स्वतंत्रता संग्राम में, भारतीय वीरों के क्रांति की जो ज्वाला धधकाई थी, वह अपने ही कपूतों की मुर्खता व स्वार्थ के कारण दबा दी गई थी. आगे से ऐसी क्रांति न हो, इस हेतु से अंग्रेजों ने यही प्रचार किया कि - यह तो मात्र सैनिक विद्रोह था और इसे ग़दर कहकर प्रचारित किया . वीर सावरकर ने पिछले ५० वर्ष से १८५७ के संग्राम के विषय मंह फैली भ्रान्ति का निवारण करने व राष्ट्र को पुन: ऐसी ही क्रांति के लिए खड़ा करने लिए, लन्दन के पुस्तकालय में बैठकर लगभग २५ वर्ष कि अवस्था में १८५७ का स्वातंत्र्य समरलिखा. ग्रन्थ लिखने कि सुचना से ही अंग्रेजी सरकार इतनी घबरा गई कि- छपने से पहले ही इस पुस्तक पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया. आश्चर्य तो यह हैं कि- अंग्रेजी सरकार को यह भी नहीं पता था कि- इस पुस्तक का नाम क्या हैं, किस भाषा में हैं और कहाँ छपी हैं? अंग्रेजों द्वारा प्रचारित १८५७ के ग़दर को को , वीर सावरकर के द्वारा पहली बार , "भारत का प्रथम स्वाधीनता संग्राम" कहा गया था.
पुस्तक पर प्रतिबन्ध लगाकर , जब वीर सावरकर को बंदी बनाकर, अंडमान की जेल (काला पानी) में भेज दिया गया तो - लाला हरदयाल शारदा , मैडम कामा , वीरेंदर चट्टोपाध्याय आदि क्रांतिकारियों ने इसका दूसरा संस्करण भी प्रकाशित कर प्रचारित किया था. भारतीय क्रांति के धूमकेतु शहीदे आजम सरदार भगत सिंहको भी इस ग्रन्थ ने इतना प्रभावित किया था कि- उन्होंने गुप्तरूप से राजाराम शास्त्री की सहायता से इसे प्रकाशित करवाया और सर्वप्रथम पुरुषोत्तम दास टंडन को बेचा था. शहीद सुखदेव ने भी इसे बेचने में विशेष परिश्रम किया था. क्रन्तिकारी पथ के पथिक रास बिहारी बोस को भी इस पुस्तक ने आकर्षित किया, जिसके परिणाम स्वरुप जापान में आजाद हिंद फौज तैयार हुई. आजाद हिंद फौज के सैनिकों को यह पुस्तक पढने के लिए दी जाती थी. नेताजी सुभाष के आशीर्वाद से इसका तमिल संस्करण भी प्रकाशित हुआ. इस कालखंड में इस पुस्तक के, न जाने कितने गुप्त संस्करण देश और विदेश में छपे थे, यह पुस्तक क्रांतिकारियों की गीता बन गयी थी.
१९१५ में भारत की स्वतंत्रता के लिए सर धड़ की बाजी लगाकर कामागाटामारू जहाजसे जो वीर चले थे और हांगकांग, सिंगापुर और बर्मा में स्थित ब्रिटिश सेना में जो बगावत हुई थी, इन सबके मूल में यह ऐतिहिसिक ग्रन्थ ही था. अंडमान जेल में कागज और कलम न दिए जाने पर वीर सावरकर ने देश भक्ति की कवितायों को कोयले से जेल की दिवार पर लिखना शुरू कर दिया था. उन्हें वह स्थान सोने के लिए दिया जाता था जिसके पास मल-मूत्र से भरा हुआ ड्रम रखा होता था. कई कई घंटे भूखे प्यासे रहकर भी उनसे कोहलू चलवाया जाता था. १ जुलाई १९०९ को जब मदन लाल ढींगरा ने कर्जन वायली को गोली से मार दिया था तो भारत में नकली देश-भक्तों ने उनकी निंदा में प्रस्ताव पास किये, लेकिन उस समय भी सिर्फ एक वीर सावरकर थे, जिन्होंने खुल्लम खुल्लम उनका पक्ष लिया और मदन लाल धींगरा के खिलाफ पारित किये जा रहे प्रस्ताव का विरोध शुरू कर दिया.
वीर सावरकर के समकालीन कांग्रेसी नेता जब गाड सेव थे क्वीनके गीत गाते थे तब सावरकर की देश प्रेम की कवितायेँ पत्रिकायों में छपती थी. महारानी विक्टोरिया की मृत्यु पर देश के बड़े बड़े नेता अपनी राजनिष्ठा प्रदर्शित करने के लिए शोक सभायों का आयोजन कर रहे थे तब इस वीर ने घोषणा की थी- इंग्लैंड की रानी हमारे शत्रु की रानी हैं. जब देश के नकली देश भक्त नेता, एडवर्ड सप्तम के राज्य अभिषेक का उत्सव मना रहे थे तो सावरकर ने इसे गुलामी का उत्सव और देश और जाति के प्रति द्रोह कहा था. ७ अक्तूबर १९०५ को गाँधी जी से करीब १७ वर्ष पहले पूने में एक विशाल जनसभा में दशहरे के दिन विदेशी वस्त्रों की होली जलाई, तो गाँधी जी ने उनके इस कदम की आलोचना की थी. जबकि इस कार्य की केसरी के माध्यम से प्रशंसा करते हुए तिलक ने लिखा था की लगता हैं कि - महाराष्ट्र में शिवाजी ने पुन: जन्म ले लिया हैं.
अंडमान जेल में बंद वीर सावरकर को, जेल में आने वाले नए कैदियों से देश की राजनितिक स्थिति का समाचार समय-समय मिलता रहता था. उन्हें यह समझ आ गया था कि- अहिंसा के नारे का सहारा लेकर गाँधी जी अंग्रेज सरकार से आज़ादी की उम्मीद, मुसलमानों से सहयोग के आधार पर लगाये हुए हैं. इसके दुष्परिणाम हिंदुओं को ही भुगतने पड़ेगे. ३० दिसम्बर १९३९ को अहमदाबाद में, हिन्दू महासभा के अध्यक्ष पद से सावरकर ने मुसलमानों को चेतावनी दी - यदि तुम साथ आते हो तो- तुमको साथ लेक , यदि तुम साथ नहीं आते हो तुम्हारे बिना ही और यदि तुम हमारा विरोध करोगे तो तुम्हारे उस विरोध को कुचलते हुए हम हिन्दू देश की स्वाधीनता का युद्ध निरंतर लड़ते रहेगे. १३ दिसम्बर १९३७ को नागपुर की विशाल सभा को संबोधित करते हुए सावरकर ने कहाँ महाराज कश्मीर को तो गाँधी जी ने परामर्श दे दिया की वे अपना राज्य मुसलमानों को सौपकर स्वयं बनारस जाकर प्रायश्चित करे, किन्तु निजाम हैदराबाद से उसी भाषा में बात करने का साहस उनको क्यूँ नहीं हुआ. उनको कहना चाहिए की भारत के सभी नवाब देश छोड़कर मक्का में जाकर प्रायश्चित करे.
जब मुसलमानों को फिर से वापस हिंदू बनाने में लगे आर्य समाजी नेता, स्वामी श्रदानंद की हत्या कर दी तो गाँधी जी ने हत्यारे अब्दुल रशीद को भी अपना भाई बताया था, जबकि सावरकर ने रत्नागिरी के विट्ठल मंदिर में हुई शोक सभा में कहा - पिछले दिन, अब्दुल रशीद नामक एक धर्मांध मुस्लमान ने स्वामी जी के घर जाकर उनकी हत्या कर दी. स्वामी श्रदानंद जी हिन्दू समाज के आधार स्तम्भ थे. उन्होंने सैकड़ों मलकाना राजपूतों को शुद्ध करके पुन: हिन्दू धर्म में लाया था. वे हिन्दू सभा के अध्यक्ष थे. यदि कोई ये सोंचता हों कि - स्वामी जी के जाने से सारा हिन्दुत्व नष्ट होगा, तो उसे मेरी चुनौती हैं. जिस भारत माता ने एक श्रदानंद का निर्माण किया, उसके रक्त की एक बूंद से लाखों श्रदानंद का निर्माण होगा. सरदार पटेल के अनुसार भारत सरकार निजाम हैदराबाद के राज्य में इसलिए आसानी से कार्यवाही कर सकी क्यूंकि उसके लिए मार्ग का निर्माण आर्यसमाज ने तैयार कर दिया था.
१९३९ में आर्यसमाज ने हिन्दू जाति रक्षा और इस्लामिक धर्मांतरण को रोकने के लिए महात्मा नारायण स्वामी के नेतृत्व में आन्दोलन प्रारंभ कर दिया. तब गाँधी जी ने कहा था की आर्यसमाज हिमालय से टकरा रहा हैं. उसे इस आन्दोलन में सफलता कभी नहीं मिलेगी. जबकि वीर सावरकर तुरंत शोलापूर पहुँच गए और कहा- इस आन्दोलन में आर्यसमाज को अपने को अकेला नहीं अनुभव करना चाहिए. हिन्दू महासभा अपनी पूरी शक्ति के साथ कंधे से कन्धा मिलाकर निजाम की हिन्दू विरोधी निति वह जघन्य क्रिया कलापों को चकनाचूर करके ही चैन की साँस लेगी. आखिर विश्व के सबसे बड़े आमिर समझे जाने वाले मतान्ध निजाम को आर्यसमाज के अहिंसात्मक आन्दोलन में दो दर्जन के लगभग शहीदों की क़ुरबानी के बाद हार माननी ही पडी.
जनता स्वयं जानती हैं कि- राष्ट्र भक्ति और वीरता का क्या पैमाना होता हैं. वीर सावरकर रुपी राष्ट्र के अनमोल हीरे को, स्वतंत्र भारत में क्रांतिकारियों की सूची में अग्रणी न रखकर उन्हें देश द्रोही कहने की जो लोग कोशिश कर रहे हैं, ये वही हैं जो एक तरफ तो भगत सिंह को आतंकवादी बतलाते हैं, दूसरी तरफ १९६२ के चीन से युद्ध में, चीन का कोलकाता में स्वागत करने के लिए, सदा तत्पर रहते थे. जो भी क्रांतिकारी हिन्दू समाज की स्तुति करता हैं वह इनकी नज़रों में क्रांतिकारी नहीं रहता. .


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