पुण्य प्रसून वाजपेयी
राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ की मानें तो एटीएस
पंचतंत्र की कहानी लिख रहा है। क्योंकि जो लोग मालेगांव ब्लास्ट के आरोपी
हो सकते हैं वही लोग संघ के कार्यवाह मोहनराव भागवत और कार्यकारिणी सदस्य
इन्द्रेश कुमार की हत्या की साजिश कैसे रच सकते हैं। लेकिन हिन्दुत्व की
जिस राह को अभिनव भारत सरीखा संगठन पकड़े हुये है और हिन्दुत्व का नाम
लेते-लेते आरएसएस जिस राह पर जा चुका है अगर दोनों की स्थिति को दोनों के
घेरे में ही देखें तो पहला सवाल यही उठेगा कि मालेगांव को लेकर जो सोच
अभिनव भारत में है कमोवेश वही सोच आरएसएस को भी लेकर है। यानी मालेगांव और
संघ के हिन्दुत्व में कोई अंतर करने की स्थिति में अभिनव भारत नहीं है। इस
स्थिति को समझने से पहले जरा दोनों के अतीत को समझ लें।
दरअसल
अभिनव भारत जिस हिन्दू महासभा से निकला उसके कर्ता-धर्ता सावरकर थे जो
सीधे कहते थे," इस ब्रह्माण्ड में हिन्दुओं का अपना देश होना ही चाहिये
जहां हम हिन्दुओं के रूप में, शक्तिशाली लोगों के वंशज के रूप में
फलते-फूलते रहें। सो, शुद्दि को अपनायें, जिसका केवल धार्मिक नहीं,
राजनीतिक पहलू भी है।" वहीं हेडगेवार समाज के शुद्दिकरण के रास्ते हिन्दु
राष्ट्र का सपना देशवासियों की आंखों में संजोना चाहते थे। सावरकर पुणे की
जमीन और कोकणस्थ ब्रह्माणों के बीच से हिन्दुसभा को खड़ाकर सैनिक संघर्ष के
लिये 1904 में अभिनव भारत को लेकर ब्रिटिश सरकार को चुनौती दे रहे थे।
वहीं दो दशक बाद हेडगेवार नागपुर की जमीन पर तेलुगु बह्माणों के बीच से
हिन्दुओं के अनुकुल स्थिति बनाने के लिये कांग्रेस की नीतियों का विरोध कर
हिन्दुत्व शुद्दिकरण पर जोर दे रहे थे।
उस
दौर में सावरकर के तेवर के आगे आरएसएस कोई मायने नहीं रखती थी। ठीक उसी
तरह जैसे अब आरएसएस के आगे हिन्दू महासभा कोई मायने नहीं रखती। सावरकर की
पुत्रवधु हिमानी सावरकर 2004 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में
हिन्दूमहासभा का अलख लिये चुनाव लड़ रही थीं। उस समय बीजेपी ही नहीं आरएसएस
के स्वयंसेवक भी मजा ले रहे थे। हिमानी अपना चुनाव प्रचार करने ऑटो पर
निकलती थीं और बीजेपी के समर्थक जो शायद आरएसएस से भी जुडे रहे होंगे,
ऑटोवाले को कहते थे "हिमानी पैसा न दे पाये तो हमसे ले लेना।" लेकिन वही
दौर ऐसा भी था जब आरएसएस के भीतर बीजेपी को लेकर घमासान मचा हुआ था। इसलिये
कार्यवाह का पद जब मोहन राव भागवत ने संभाला तो मोहनराव में लोग मधुकर राव
भागवत को देख रहे थे।
मधुकर
राव भागवत न सिर्फ मोहन भागवत के पिता थे बल्कि हेडगेवार जब आरएसएस को
भारत की घमनियों में दौड़ाने की बात कहते थे तो मधुकरराव हमेशा उनके साथ
खड़े रहे। उस दौर में मधुकर राव भागवत गुजरात में संघ के प्रांत प्रचारक
थे। जो राजनीतिक नजरिये को खारिज कर हिन्दुत्व के जरिये समाज का शुद्दिकरण
सामाजिक और सांस्कृतिक तौर पर करना चाहते थे। लेकिन मोहन भागवत ने जब
कार्यवाह का पद संभाला तो अयोध्या में मंदिर निर्माण एक सपना बना दिया गया
था। स्वदेशी मुद्दा एफडीआई के आगे घुटने टेक रहा था। गौ-रक्षा का सवाल
उठाना आर्थिक विकास की राह में पुरातनपंथी राग अलापने सरीखा करार दिया जा
रहा था। धारा-370 का जिक्र राजनीतिक तौर पर एक बेमानी भरा शब्द हो चुका था।
धर्मातरंण के आगे आरएसएस नतमस्तक नजर आ रहा था। बांग्लादेशी घुसपैठ का
मामला वाजपेयी सरकार में ठंडे बस्ते में डल चुका था। पूर्वोत्तर में संघ के
चार स्वंयसेवको की हत्या के बावजूद तब के गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी की
खामोशी ने संघ के माथे पर लकीर खींच दी थी। जम्मू-कश्मीर को तीन हिस्सो में
बांटकर देश को जोड़ने के संघ कार्यकारिणी के फैसले को वाजपेयी सरकार ने ही
ठेंगा दिखा दिया था। और इन सबके बीच बीजेपी की तर्ज पर मुस्लिमों को साथ
लाने की जो पहल संघ के भीतर इन्द्रेश कुमार कर रहे थे उसने संघ के एक बड़े
तबके में बैचेनी पैदा कर दी थी।
जाहिर
है इन परिस्थितियों को महज संघ के भीतर का कट्टर हिन्दुत्व ही नहीं देखकर
खुद को अलग-थलग समझ रहा था बल्कि मराठी समाज का वह तबका जो सावरकर के आसरे
कभी आरएसएस को मान्यता नहीं देता था वह कहीं ज्यादा खिन्न भी था। 2002 से
लेकर 2006 के दौरान विश्व हिन्दु परिषद से लेकर भारतीय मजदूर संघ,स्वदेशी
जागरण मंच और किसान संघ के बीच का तालमेल भी बिगड़ता गया।
इन
सब के बीच सरसंघचालक कुपं सीं सुदर्शन की उस पहल ने आग में घी का काम किया
जब आरएसएस पर लगी सांप्रदायिक छवि को धोने के लिये सुदर्शन ने मुस्लिम
समारोह-सम्मेलनों में जाना शुरू कर दिया। महाराष्ट्र के हिन्दुवादी आंदोलन
में संघ की इन तमाम पहल का नतीजा समाज के भीतर संघ की घटती हैसियत से साफ
नजर आने लगा। 2004 में वाजपेयी सरकार की चुनाव में हार ने न सिर्फ संघ के
एंजेडे की हवा निकाल दी जो संघ के लिबरल होने पर बीजेपी की सत्ता का स्वाद
चख रहा था और सत्ता को अपना औजार बनाकर हिन्दुत्व का राग अलापने से भी नहीं
कतरा रहा था। बल्कि इस दौर में संघ के भीतर जिस मराठी लॉबी को हाशिये पर
धकेला गया था उसने खुलकर संघ की सेक्यूलर सोच को निशाना बनाना शुरू किया।
इस
दौर में सावरकर -गोडसे की नयी पीढ़ी जो संघ से पहले अंसतुष्ट थी उसने
सावरकर की संस्था अभिनव भारत को फिर से सक्रिय करने की दिशा में वर्तमान
कालखंड को ही उचित माना। इस विंग ने संघ पर भी मुस्लिम परस्ती और हिन्दु
विरोधी सेक्यूलर राह पर जाने के आरोप मढ़ा। ऐसा नहीं है कि अभिनव भारत
एकाएक उभरा और उसने संघ को निशाने पर ले लिया। दरअसल 2006 में अभिनव भारत
को दोबारा जब शुरू करने का सवाल उठा तो संघ के हिन्दुत्व को खारिज करने
वाले हिन्दुवादी नेताओं की पंरपरा भी खुलकर सामने आयी। पुणे में हुई बैठक
में, जिसमे हिमानी सावरकर भी मौजूद थीं उसमें यह सवाल उठाया गया कि आरएसएस
हमेशा हिन्दुओं के मुद्दे पर कोई खुली राय रखने की जगह खामोश रहकर उसका लाभ
उठाना चाहता रहा है। बैठक में शिवाजी मराठा और लोकमान्य तिलक से हिन्दुत्व
की पाती जोड़कर सावरकर की फिलास्फी और गोडसे की थ्योरी को मान्यता दी गयी।
बैठक में धर्म सम्राट स्वामी करपात्री जी से लेकर गोरक्षा पीठ के मंहत
दिग्विजय नाथ और शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद के भक्तों की मौजूदगी थी या
कहें उनकी पंरपरा को मानने वालों ने इस बैठक में माना कि संघ के आसरे
हिन्दुत्व की बात को आगे बढ़ाने का कोई मतलब नहीं है। माना यह भी गया कि
बीजेपी को आगे रख कर संघ अब अपनी कमजोरी छुपाने में भी ज्यादा वक्त जाया कर
रहा है इसलिये नये तरीके से हिन्दूराष्ट्र का सवाल खड़ा करना है तो पहले
आरएसएस को खारिज करना होगा। हालांकि ऐरएलएल के भीतर यह अब भी माना जाता है
कि कांग्रेस से ज्यादा नजदीकी हिन्दू महासभा की ही रही।
1937 तक तो जिस पंडाल में कांग्रेस का अधिवेशन
होता था उसी पंडाल में दो दिन बाद हिन्दूमहासभा का अधिवेशन होता और मदन
मोहन मालवीय के दौर में तो दोनों अधिवेशनों की अध्यक्षता मालवीय जी ने ही
की। इसलिये आरएसएस कांग्रेस की थ्योरी से हटकर सोचती रही लेकिन हिन्दु
महासभा का मानना है कि संघ ने बीजेपी की सत्ता का मजा लेकर सत्ता दोबारा
पाने के लिये खुद के संगठन का कांग्रेसीकरण ज्यादा कर लिया है और हिन्दू
राष्ट्र की थ्योरी को पूरी तरह नकार दिया है।
महत्वपूर्ण
यह भी है कि ब्रह्मणों की पंरपरा को लेकर भी मतभेद उभरे। चूंकि हेडगेवार
की तरह सुदर्शन भी तेलुगु ब्रह्मण है तो हिन्दुत्व पर कड़ा रुख अपनाने की
सुदर्शन की क्षमता को लेकर भी यह बहस हुई कि संघ फिलहाल सबसे कमजोर रूप में
काम कर रहा है इसलिये संघ की मराठी लॉबी भी सावरकर की सोच को आगे बढ़ाने
में मदद करेगी। इन सब का असर संघ पर किस रूप में पड़ा है या फिर देश में जो
राजनीतिक स्थितियां है उसमे सरसंघचालक सुदर्शन भी अंदर से किस तरह हिले
हुये हैं इसका अंदाजा पिछले महीने 7 नबंबर को दिल्ली के जंतर-मंतर पर
गो-रक्षा के सवाल पर हिमानी सावरकर के साथ मंच पर खड़े सुदर्शन को देखकर
समझा जा सकता था। यानी जो परिस्थितियां सावरकर और संघ को अलग किये हुये थीं
उसमे पहली बार संघ के भीतर भी इस बात को लेकर कुलबुलाहट है कि जिस राह पर
वह चल रही है वह रास्ता सही नहीं है।
मामला
सिर्फ मोहन भागवत या इन्द्रेश की हत्या की साजिश का नहीं है, पुणे में
गोखले-साठे-पेशवा-सावरकर की कतार में खड़े कोकनस्थ बह्मण अब स्वदेशी
अर्थव्यवस्था के उस ढांचे को जीवित करना चाह रहे हैं जिसकी बात कभी संघ के
नेता दत्तोपंत ढेंगड़ी किया करते थे लेकिन ढेंगड़ी अपनी बात कहते-कहते मर
गये मगर न वाजपेयी सरकार ने उनकी बात सुनी न सरसंघचालक ने उन्हें तरजीह दी।
जाहिर है आजादी के बाद पहली बार अगर अभिनव भारत को बनाने की जरूरत सावरकर
को मानने वाले कर रहे हैं तो इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि हिन्दुत्व की जो
थ्योरी सामाजिक और सांस्कृतिक तौर पर अभी तक आरएसएस परोस रही है और बीजेपी
उसे राजनीतिक धार दे रही है, वह अपने ही कटघरे में पहली बार खड़ी है।
साभार: आईबीएन लाइव
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